कबीर साहेब के दोहे हिंदी अर्थ सहित जानिये

कबीर साहेब के दोहे हिंदी अर्थ सहित जानिये

ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत ।
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥

दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान ।
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥

शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥

कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त ।
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥

कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय ।
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥

सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग ।
रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥

गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास ।
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥

लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ ।
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥

काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय ।
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥

दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास ।
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥

दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन ।
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥

दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास ।
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥

भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय ।
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥

भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥

भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय ।
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥

भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय ।
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥

भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम ।
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥

भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय ।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥

भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश ।
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥

कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज ।
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥

भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय ।
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 

ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत।
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत॥


सच्चा ज्ञानी व्यक्ति अभिमान रहित होता है और सभी से प्रेम करता है। वह सत्यवादी, परोपकारी होता है और सभी का आदर करता है।

दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान।
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान॥


सच्चा सेवक दया और धर्म की ध्वजा धारण करता है, धैर्यवान होता है, संतोषी स्वभाव से सुख प्रदान करता है और अत्यंत बुद्धिमान होता है।

शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय॥


सच्चा सेवक शांत स्वभाव का, ज्ञानयुक्त, अत्यंत उदार हृदय वाला, लज्जाशील, निष्कपट और कोमल हृदय का होता है।

कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त।
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त॥

कबीर कहते हैं कि जो व्यक्ति गुरु के प्रेम से वंचित होता है, वह दूर से ही पहचान में आ जाता है। उसका शरीर कमजोर, मन उदास होता है और वह संसार से रूठा हुआ सा फिरता है।

कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय।
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय॥

कबीर कहते हैं कि हर कोई गुरु से कुछ चाहता है, लेकिन गुरु की वास्तविक सेवा करने वाला कोई नहीं है। जब तक शरीर की इच्छाएं बनी रहती हैं, तब तक सच्चा दास नहीं बना जा सकता।

सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग।
रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग॥

सच्चा सेवक सुख-दुख को समान रूप से सहन करता है और कभी भी गुरु का साथ नहीं छोड़ता। उसे सांसारिक रंग नहीं लगते, वह सदैव सतगुरु के रंग में रंगा रहता है।

गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास।
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास॥

जब समर्थ गुरु सिर पर खड़े होते हैं, तो दास को किसी बात की चिंता नहीं होती। रिद्धि-सिद्धि उसकी सेवा करती हैं और मुक्ति सदैव उसके पास रहती है।

लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़।
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़॥

कबीर कहते हैं कि जो व्यक्ति सच्चे ज्ञान में लगा रहता है और सभी बंधनों को तोड़ देता है, वही सच्चा दास है। मृत्यु भी उसके सामने हाथ जोड़कर खड़ी रहती है।

काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय।
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय॥

सच्चा दास किसी को कष्ट नहीं देता, चाहे सामने वाला उसे मारने वाला ही क्यों न हो। वह बार-बार उसके प्रति भी विनम्र रहता है; यही दास के लक्षण हैं।

दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास।
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास॥

दास कहलाना कठिन है; मैं तो दासों का भी दास हूँ। अब मैं ऐसा बनना चाहता हूँ जैसे पाँव तले की घास, जो सबके नीचे रहती है।

दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन।
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन॥

कबीर कहते हैं कि सच्चा दास वही है जिसके हृदय में दासत्व का भाव बसा हो, जो साधुओं के अधीन हो और प्रेम भक्ति में लवलीन हो।
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