कबीर दास के दोहे अर्थ सहित
कबीर दास के दोहे अर्थ सहित सरल हिंदी में जानिये
सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय ।
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय ।
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय ।
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल ।
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥
आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल ।
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥
द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय ।
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥
उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख ।
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥
कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर ।
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥
गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय ।
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥
यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग ।
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय ।
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय ।
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल ।
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥
आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल ।
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥
द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय ।
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥
उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख ।
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥
कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर ।
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥
गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय ।
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥
यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग ।
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥
सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय।
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय॥
जो व्यक्ति निरंतर सेवा में लगा रहता है, वही सच्चा सेवक कहलाता है। सेवा के बिना कोई भी व्यक्ति सेवक नहीं बन सकता।
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय।
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय॥
जो व्यक्ति दिन में आलस्य में सोता है, उसे रात में नींद नहीं आती। जैसे पानी से बाहर निकली मछली तड़पती है, वैसे ही वह व्यक्ति रात भर बेचैन रहता है।
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय।
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय॥
अपना मन उसी को सौंपो जो सच्चा सेवक हो। जो सिर पर आरा चलने पर भी अपने ईश्वर के प्रति अडिग रहे और किसी अन्य की ओर न देखे।
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल।
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल॥
जो व्यक्ति गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करता और अपने मनमाने रास्ते पर चलता है, वह न तो समाज में सम्मान पाता है और न ही धर्म में। अंततः उसके जीवन में संकट आ जाता है।
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय॥
जो व्यक्ति निरंतर सेवा में लगा रहता है, वही सच्चा सेवक कहलाता है। सेवा के बिना कोई भी व्यक्ति सेवक नहीं बन सकता।
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय।
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय॥
जो व्यक्ति दिन में आलस्य में सोता है, उसे रात में नींद नहीं आती। जैसे पानी से बाहर निकली मछली तड़पती है, वैसे ही वह व्यक्ति रात भर बेचैन रहता है।
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय।
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय॥
अपना मन उसी को सौंपो जो सच्चा सेवक हो। जो सिर पर आरा चलने पर भी अपने ईश्वर के प्रति अडिग रहे और किसी अन्य की ओर न देखे।
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल।
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल॥
जो व्यक्ति गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करता और अपने मनमाने रास्ते पर चलता है, वह न तो समाज में सम्मान पाता है और न ही धर्म में। अंततः उसके जीवन में संकट आ जाता है।
कबीर दास के दोहे भक्ति, गुरु की महिमा और सच्चे सेवक के लक्षणों को सरल शब्दों में उजागर करते हैं। सच्चा सेवक वही है, जो निरंतर सेवा में लीन रहता है, जैसे मछली जल के बिना तड़पती है, वैसे ही वह गुरु की सेवा के बिना अधूरा है। मन को सच्चे सेवक के रूप में समर्पित करना चाहिए, जो गुरु की आज्ञा को सिर पर रखकर भी अडिग रहे। गुरु की अवज्ञा करने वाला व्यक्ति अटपटी राह पर भटकता है, जिससे लोक और वेद दोनों का नाश होता है और अंत में काल का प्रकोप सहना पड़ता है। बैकुंठ की आशा रखने वाला दुरमति तीनों कालों में भटकता है, जैसे शुक्राचार्य ने बलि का त्याग नहीं किया और पतन को प्राप्त हुआ। सच्चा भक्त गुरु के द्वार पर दृढ़ रहता है, धक्के खाने पर भी नहीं हटता, क्योंकि वह जानता है कि धनी की कृपा उसी पर बरसती है, जो समर्पण नहीं छोड़ता। यह भाव दर्शाता है कि सच्ची भक्ति में दृढ़ता, समर्पण और गुरु की आज्ञा का पालन अनिवार्य है, जो मनुष्य को सांसारिक मोह और दुखों से मुक्त करता है।
गुरु के प्रति प्रेम और भक्ति ही सच्चे मार्ग की कुंजी है। कबीर कहते हैं कि गुरु का प्रेम नजदीकी या दूरी से नहीं बंधता; जिसका चित्त गुरु में बसता है, वह सदा उनके समीप रहता है। गुरु की आज्ञा में चलने वाला संत अमृत तुल्य फल पाता है, जैसे सर्प मणि को निहारता है, वैसे ही गुरुमुख गुरु को चित्त में रखता है। उलटे-सुल
गुरु के प्रति प्रेम और भक्ति ही सच्चे मार्ग की कुंजी है। कबीर कहते हैं कि गुरु का प्रेम नजदीकी या दूरी से नहीं बंधता; जिसका चित्त गुरु में बसता है, वह सदा उनके समीप रहता है। गुरु की आज्ञा में चलने वाला संत अमृत तुल्य फल पाता है, जैसे सर्प मणि को निहारता है, वैसे ही गुरुमुख गुरु को चित्त में रखता है। उलटे-सुल