क्या लेके आया बन्दे क्या लेके जायेगा भजन

क्या लेके आया बन्दे क्या लेके जायेगा भजन

क्या लेके आया बन्दे क्या लेके जायेगा,
दो दिन की ज़िन्दगी है दो दिन का मेला।
क्या लेके आया बन्दे क्या लेके जायेगा,
दो दिन की ज़िंदगी है, दो दिन का मेंला,
क्या लेके आया बन्दे क्या लेके जायेगा,
दो दिन की ज़िन्दगी है दो दिन का मेला।

तुम जब इस संसार में आये थे तो क्या लेकर आये थे और क्या है जो तुम लेकर जाओगे। उल्लेखनीय है की ज़ीवन के लिए धन, दौलत और साधन संपन्न होना जरुरी है। भारतीय संस्कृति कभी यह नहीं सीखाती है की ग़रीब बन कर जीवन को बिताओ। लेकिन यह भी ग़ौरतलब है की कहीं धन दौलत कमाना कहीं "रोग" नहीं बन जाए। उतना काफी है जिससे यह जीवन आराम से चल सके बाकी साथ कुछ नहीं जाना है। तन के कपडे भी यहीं रह जाने हैं, यही इस चेतावनी भजन का मुख्य अभिप्राय है।

ईस जगत सराऐ मे मुसाफीर रहना दो दिन का,
विर्था करे गुमान मुर्ख ईस घर और जोबन का,
नहि है भरोसा पल का गफलत का खैला,
दो दिन की ज़िंदगी है, दो दिन का मेंला,
क्या लेके आया बन्दे क्या लेके जायेगा,
दो दिन की ज़िन्दगी है दो दिन का मेला। 

इस जगत के सराय (यह जगत हमारा घर नहीं है, हम मुसाफिर है जो कुछ समय के लिए यहां पर रुके हैं। इस सराय में दो दिन के लिए रुकना है। ) व्यर्थ में ग़ुमान, घमंड और अहम् करना कोई समझदारी नहीं है। जोबन भी दिन चार का पावना है, मेहमान है। एक पल का भी भरोषा नहीं है की अगले पल विधना क्या खेल रचाएगी। ऐसे में गफलत में रहना उचित नहीं है।

वो कहाँ गऐ बलवान तीन पग धरती तोलणियाँ
जिनकी पड़ती धाक नहि कोई शामा बोलणियाँ
निर्भय डोलणियाँ नर गया वो अकेला,
दो दिन की ज़िंदगी है, दो दिन का मेंला। 

इस संसार में जो आया है वह एक रोज अवश्य ही जाएगा, यही रीत है। कहाँ गए वो बड़े बड़े सूरमा और बाहुबली जो इस धरती को तीन कदम से नापने का हुंकार भरते थे, उनकी शक्ति का धाक था और उनके सामने बोलने वाला कोई नहीं था, उन्हें भी तो अकेले ही जाना पड़ा जो कभी बड़ी निर्भीकता से डौला करते थे।

नर छोड़ सक्या ना कोय माया गिणी गिणाई न,
गढ कोटा की निव छोडग्या चिणी चिणाई न,
चिणी र चिणाई संग चाल्या नही ढैला,
दो दिन की ज़िंदगी है, दो दिन का मेंला,
क्या लेके आया बन्दे क्या लेके जायेगा,
दो दिन की ज़िन्दगी है दो दिन का मेला। 

तुमको माया यहीं छोडनी है, यही सत्य है। गिनी गिनाई माया को तुमको यहीं पर छोड़ना पड़ेगा। गढ़ और कोट (बड़ा घर ) आदि जो चिने हुए हैं/बने हुए हैं तुमको छोड़ने पड़ेंगे और साथ में ढेला भी नहीं जाने वाला है। जो निर्मित हुआ है यहीं पर रह जाना है।

ईस काया का है भाग ,भाग बिन पाया नई जाता,
शर्मा कहे बिना नसिब तोड़ फल खाया नई जाता,
गाया नहि हरि गुण अब गाले गैला,
दो दिन की ज़िंदगी है, दो दिन का मेंला,
क्या लेके आया बन्दे क्या लेके जायेगा,
दो दिन की ज़िन्दगी है दो दिन का मेला। 

नसीब की बात है, किस्मत से ही राम भजन ही मिलते हैं, इसलिए बिना नसीब तो फल भी तोड़ कर खाए नहीं जाते हैं। अब तक तो हरी के गुण गाये हैं लेकिन पागल / गेला अब तो हरी के नाम का सुमिरन कर ले क्यों की यह जगत दो ही दिन का मेला है - सत श्री साहेब आदेश।  


यह सुन्दर भजन सांसारिक असारता और मानव जीवन की क्षणभंगुरता का गहरा चिंतन प्रस्तुत करता है। जीवन की वास्तविकता को दर्शाते हुए, यह सिखाता है कि मनुष्य इस संसार में खाली हाथ आता है और अंततः खाली हाथ ही जाता है। जो कुछ भी अर्जित किया जाता है—धन, संपत्ति, प्रतिष्ठा—सब यहीं रह जाता है।

भक्ति और वैराग्य के इस भाव में यह विचार उत्पन्न होता है कि संसार एक अस्थायी सराय है, जिसमें प्रत्येक मनुष्य एक यात्री मात्र है। अहंकार और भौतिकता के प्रति मोह रखना एक भ्रम है, क्योंकि कालचक्र की गति में सभी बाह्य उपलब्धियाँ निष्फल सिद्ध होती हैं।

इस दृष्टिकोण में महापुरुषों, योद्धाओं और शक्तिशाली व्यक्तियों का उदाहरण दिया जाता है, जो कभी अजेय माने जाते थे, परंतु अंततः वे भी समय के प्रवाह में विलीन हो गए। इस विचार से यह प्रेरणा मिलती है कि सत्य और प्रेम ही एकमात्र ऐसा धन है, जो आत्मा के साथ जाता है।

जगत के मोह को छोड़कर, जब मनुष्य ईश्वर की भक्ति में समर्पित होता है, तब उसे वास्तविक संतोष प्राप्त होता है। सांसारिक धन-दौलत का सीमित महत्व होता है, किंतु प्रभु की शरण जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य बन जाती है। यही चेतावनी देता हुआ यह भजन मनुष्य को आत्मबोध और भक्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। जब अंतिम समय आएगा, तब केवल प्रभु का स्मरण ही वास्तविक सहारा होगा।
 
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