कीजै प्रभु अपने बिरद की लाज।
महापतित कबहूं नहिं आयौ, नैकु तिहारे काज॥
माया सबल धाम धन बनिता, बांध्यौ हौं इहिं साज।
देखत सुनत सबै जानत हौं, तऊ न आयौं बाज॥
कहियत पतित बहुत तुम तारे स्रवननि सुनी आवाज।
दई न जाति खेवट उतराई, चाहत चढ्यौ जहाज॥
लीजै पार उतारि सूर कौं महाराज ब्रजराज।
नई न करन कहत, प्रभु तुम हौ सदा गरीब निवाज॥
कहावत ऐसे दानी दानि।
चारि पदारथ दिये सुदामहिं, अरु गुरु को सुत आनि॥
रावन के दस मस्तक छेद, सर हति सारंगपानि।
लंका राज बिभीषन दीनों पूरबली पहिचानि।
मित्र सुदामा कियो अचानक प्रीति पुरातन जानि।
सूरदास सों कहा निठुरई, नैननि हूं की हानि॥
खेलत नंद-आंगन गोविन्द।
निरखि निरखि जसुमति सुख पावति बदन मनोहर चंद॥
कटि किंकिनी, कंठमनि की द्युति, लट मुकुता भरि माल।
परम सुदेस कंठ के हरि नख,बिच बिच बज्र प्रवाल॥
करनि पहुंचियां, पग पैजनिया, रज-रंजित पटपीत।
घुटुरनि चलत अजिर में बिहरत मुखमंडित नवनीत॥
सूर विचित्र कान्ह की बानिक, कहति नहीं बनि आवै।
बालदसा अवलोकि सकल मुनि जोग बिरति बिसरावै॥
कहां लौं बरनौं सुंदरताई।
खेलत कुंवर कनक-आंगन मैं नैन निरखि छबि पाई॥
कुलही लसति सिर स्याम सुंदर कैं बहु बिधि सुरंग बनाई।
मानौ नव धन ऊपर राजत मघवा धनुष चढ़ाई॥
अति सुदेस मन हरत कुटिल कच मोहन मुख बगराई।
मानौ प्रगट कंज पर मंजुल अलि-अवली फिरि आई॥
नील सेत अरु पीत लाल मनि लटकन भाल रुलाई।
सनि गुरु-असुर देवगुरु मिलि मनु भौम सहित समुदाई॥
दूध दंत दुति कहि न जाति कछु अद्भुत उपमा पाई।
किलकत-हंसत दुरति प्रगटति मनु धन में बिज्जु छटाई॥
खंडित बचन देत पूरन सुख अलप-अलप जलपाई।
घुटुरुनि चलन रेनु-तन-मंडित सूरदास बलि जाई॥
गिरि जनि गिरै स्याम के कर तैं।
करत बिचार सबै ब्रजवासी, भय उपजत अति उर तैं।
लै लै लकुट ग्वाल सब धाए, करत सहाय जु तुरतैं।
यह अति प्रबल, स्याम अति कोमल, रबकि-रबकि हरबर तैं।
सप्त दिवस कर पर गिरि धारयो, बरसि थक्यौ अंबर तैं।
गोपी ग्वाल नंद सुत राख्यौ, मेघ धार जलधर तै।
जमलार्जुन दौउ सुत कुबेर के, तेउ उखारे जर तैं।
सूरदास प्रभु इंद्र गर्व हरि, ब्रज राख्यौ करबर तैं।
ग्वालिन मेरी गेंद चुराई।
खेलत आन परी पलका पर अंगिया मांझ दुराई॥१॥
भुज पकरत मेरी अंगिया टटोवत छुवत छंतिया पराई।
सूरदास मोही एही अचंबो एक गई द्वय पाई॥२॥
कन्हैया हालरू रे ।
गुढि गुढि ल्यायो बढई धरनी पर डोलाई बलि हालरू रे ॥१॥
इक लख मांगे बढै दुई नंद जु देहिं बलि हालरू रे ।
रत पटित बर पालनौ रेसम लागी डोर बलि हालरू रे ॥२॥
कबहुँक झूलै पालना कबहुँ नन्द की गोद बलि हालरू रे ।
झूलै सखी झुलावहीं सूरदास, बलि जाइ बलि हालरू रे ॥३॥
कनक रति मनि पालनौ, गढ्यो काम सुतहार ।
बिबिध खिलौना भाँति के, गजमुक्ता चहुँधार ॥
जननी उबटि न्हवाइ के, क्रम सों लीन्हे गोद ।
पौढाए पट पालने, निरखि जननि मन मोद ॥
अति कोमल दिन सात के, अधर चरन कर लाल ।
सूर श्याम छबि अरुनता, निरखि हरष ब्रज बाल ॥
कहन लागे मोहन मैया मैया।
नंद महर सों बाबा बाबा अरु हलधर सों भैया॥
ऊंच चढि़ चढि़ कहति जशोदा लै लै नाम कन्हैया।
दूरि खेलन जनि जाहु लाला रे! मारैगी काहू की गैया॥
गोपी ग्वाल करत कौतूहल घर घर बजति बधैया।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया॥
गोपालहिं माखन खान दै।
सुनु री सखी को जिनि बोले बदन दही लपटान दै॥
गहि बहिया हौं लै कै जैहों नयननि तपनि बुझान दै।
वा पे जाय चौगुनो लैहौं मोहिं जसुमति लौं जान दै॥
तुम जानति हरि कछू न जानत सुनत ध्यान सों कान दै।
सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन कों राखौं तन मन प्रान दै॥
कुंवर जल लोचन भरि भरि लैत।
बालक बदन बिलोकि जसोदा कत रिस करति अचेत॥
छोरि कमर तें दुसह दांवरी डारि कठिन कर बैत।
कहि तोकों कैसे आवतु है सिसु पर तामस एत॥
मुख आंसू माखन के कनिका निरखि नैन सुख देत।
मनु ससि स्रवत सुधाकन मोती उडुगन अवलि समेत॥
सरबसु तौ न्यौछावरि कीजे सूर स्याम के हेत।
ना जानौं केहिं पुन्य प्रगट भये इहिं ब्रज-नंद निकेत॥
खीझत जात माखन खात।
अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात॥
कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धूरि धूसर गात।
कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात॥
कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात।
सूर हरि की निरखि सोभा निमिष तजत न मात॥
जीवन का सच्चा आधार वह अनंत कृपा है, जो पतित से पतित को भी गले लगाती है। मनुष्य भले ही अपने कर्मों से गिर जाए, पर प्रभु का नाम ऐसा पावन है, जो हर दाग को धो देता है। जैसे अजमिल ने अंतिम क्षण में नाम लिया और नरक के द्वार से मुक्त हो गया, वैसे ही सच्ची श्रद्धा से पुकारा गया एक नाम जीवन को तार देता है। कोई कितना भी छोटा या पापी हो, प्रभु की करुणा में कोई भेद नहीं; वह सबको समान रूप से अपनाता है। यह विश्वास मन को बल देता है कि जब सारी दुनिया ठुकरा दे, तब भी प्रभु का नाम एकमात्र सहारा है। जीवन की हर भूल को क्षमा करने की शक्ति उसी के चरणों में है, और यही नाम हर संकट में रक्षा करता है।