मो सम कौन कुटिल खल कामी

मो सम कौन कुटिल खल कामी

 
मो सम कौन कुटिल खल कामी

मो सम कौन कुटिल खल कामी।
जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ, ऐसौ नोनहरामी॥
भरि भरि उदर विषय कों धावौं, जैसे सूकर ग्रामी।
हरिजन छांड़ि हरी-विमुखन की निसदिन करत गुलामी॥
पापी कौन बड़ो है मोतें, सब पतितन में नामी।
सूर, पतित कों ठौर कहां है, सुनिए श्रीपति स्वामी॥
 
आपने सूरदास जी के प्रसिद्ध पद "मो सम कौन कुटिल खल कामी" के कुछ अंश प्रस्तुत किए हैं। इस पद में सूरदास जी अपने आत्मनिरीक्षण के माध्यम से अपनी कमियों और पापों को उजागर करते हैं। वह कहते हैं कि उनके जैसा कोई कुटिल और पापी नहीं है, क्योंकि उन्होंने अपने शरीर को ही परमात्मा की उपासना के लिए नहीं समर्पित किया। वह विषयों में लिप्त होकर सूअर की तरह जीवन जी रहे हैं और हरिजनों को छोड़कर हरी-विमुखों की सेवा में लगे हैं। अंत में, वह भगवान से प्रार्थना करते हैं कि वह उनके पापों को क्षमा करें, क्योंकि वह सबसे बड़े पापी हैं।


    Mosam Kuan Kutil Khal Kaami Mosam Kuan Kutil Khal Kaami, Bhajan by Goswami Tulsidas
     
    मन का वो गहरा आत्ममंथन, जहां सूरदास जी अपनी कमियों को सामने लाते हैं, जैसे कोई दर्पण में अपनी सच्चाई देख रहा हो। जीवन की वो भटकन, जहां शरीर तो मिला, पर उसे श्रीकृष्णजी की भक्ति में नहीं लगाया। विषयों की लालच में भागना, जैसे कोई गांव का सूअर खाने की तलाश में भटकता है। हरिजनों की संगति छोड़कर, जो प्रभु से विमुख हैं, उनकी सेवा में वक्त गंवाना, ये सब मन को कचोटता है।

    सूरदास जी का मन कहता है, उनसे बड़ा पापी और कोई नहीं। हर गलती को गिनकर, वो श्रीकृष्णजी से शरण मांगते हैं। जैसे कोई बच्चा अपनी भूल मानकर मां के पास दौड़ता है, वैसे ही वो प्रभु के सामने गिड़गिड़ाते हैं। धर्म का रास्ता यही दिखाता है, कि अपनी कमियों को देखो, स्वीकार करो, और प्रभु की शरण में जाओ। चिंतन बताता है, कि सच्ची भक्ति वही है, जो मन को निर्मल कर दे, जैसे गंगा का जल हर मैल धो देता है।
     
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