कबीर के लोकप्रिय दोहे हिंदी मीनिंग Kabir Ke Lokpriy Dohe Hindi Arth Sahit (HIndi Meaning)

कबीर के लोकप्रिय दोहे हिंदी मीनिंग Kabir Ke Lokpriy Dohe Hindi Arth Sahit (HIndi Meaning)

कबीर के लोकप्रिय दोहे हिंदी मीनिंग Kabir Ke Lokpriy Dohe Hindi Arth Sahit (HIndi Meaning)


कबीर देखि परखि ले, परखि के मुख खोल
साधु असाधु जानि ले, सुनि मुख का बोल। 

कबीर एक सच्चे व्यक्तित्व निर्माण गुरु थे। कबीर के अनुसार बाहर कुछ नहीं है जो है अंदर है। वाणी के विषय में कबीर ने कहा है "ऐसी वाणी बोलिये मन का आप खोय, औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय" इसी क्रम में विचार है की कुछ बोलने से पहले देख परख लेना चाहिए। किसी को परखने के उपरान्त ही वाणी का उपयोग होना चाहिए। वाणी से किसी साधू और असाधु का पता लगाया जा सकता है। साधु की वाणी अहंकार से रहित होगी और मृदु होगी इसके विपरीत असाधु की वाणी कठोर और अपने स्वार्थ में लिपटी होगी। संतजन का स्वभाव शांत होता है और उनकी वाणी भी शांति प्रदान करती है। इसके विपरीत दुष्टजन की वाणी अलग होती है उसके स्वार्थ निहित होता है। इसका ज्ञान उनकी वाणी को परखने से हो जाता है। इस विषय पर वैज्ञानिक शोध भी हुए हैं और वाणी से किसी के व्यक्तित्व का पता लगाने सम्बन्धी कई जानकारियां निकल कर सामने आयी हैं। मसलन जो लोग ज्यादा ही मीठा और मनभावक बोलते हैं वो किसी राज को छुपा कर रखने में माहिर होते हैं और जनप्रिय बन जाते हैं। जो लोग तेज आवाज में बोलते हैं वो लोगों का ध्यान अपनी और आकृषित करवाना चाहते हैं और लोगों की नज़रों में बने रहना चाहते हैं। जबकि जो लोग अपने परिवार और समाज के प्रति समर्पित होते हैं उनकी आवाज में ठहराव और शान्ति होती है वो धीरे बोलते हैं, उनके चेहरे के भाव वाणी के भाव से मिलते जुलते ही होते हैं। भावार्थ है की कबीर ने किसी के व्यक्तित्व का पता लगाने का माध्यम उसकी वाणी को बताया है। संतजन और दुष्ट लोगों की पहचान उनकी वाणी के अध्ययन से पता किया जा सकता है।

जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं ।
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ॥ 


दोहे की व्याख्या :-

स्वंय के होने का अहसास और अभिमान साधक को ईश्वर भक्ति से विरक्त कर देता है। जब तक अहंकार रहता हैं हरी नहीं दिखता जबकि ईश्वर होता सामने ही है। प्रेम की गली काफी संकरी है जिसमें दोनों (अहंकार और हरी ) एक साथ नहीं समां सकते हैं। प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकता है। अहम् और परम दोनों एक साथ नहीं हो सकते हैं। जब अहम् समाप्त हो गया तो परम की प्राप्ति हो गयी है। भावार्थ है की अहम् को रखकर परम की प्राप्ति नहीं की जा सकती है। अहम् को समाप्त करते ही परम दिखाई देने लग जाता है। दोनों एक साथ नहीं रह सकते हैं। ईश्वर की प्राप्ति के लिए साधक को पहले खुद के होने का अहम् समाप्त करना होगा इसके बाद ही वह परम सत्ता के समीप जा सकता है।


धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर।
अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।

दान पुण्य का बड़ा महत्त्व है। दूसरों के मदद करने से सामर्थ्य बढ़ता है घटता नहीं है। जैसे नदी का नीर पीने से कम नहीं होता उसी भाँती धर्म करने से धन घटता नहीं है, ऐसा कबीर वर्णन करते हैं। धर्म के नाम पर किये जाने वाले दान का अपना महत्त्व होता है। भावार्थ है की धर्म के नाम पर किये जाने वाले दान का अपना महत्त्व होता है, जिस प्रकार नदी का पानी पीने से घटता है उसी प्रकार दान पुण्य से सामर्थ्य और बढ़ता ही है।


अति का भला ना बोलना,अति की भली ना चूप
अति का भला ना बरसना, अति की भली ना धूप। 

कबीर के दोहे का हिंदी मीनिंग Hindi Meaning of Kabir Doha
चारित्रिक और व्यक्तित्व निर्माण पर बल देते हुए कबीर का कहना है की अति हर जगह उचित नहीं होती है। ज्यादा बोलना और ज्यादा चुप रहना दोनों ही घातक है। इसी प्रकार ना तो ज्यादा धुप भली है और ना ही ज्यादा बरसात ही, दोनों अनुपात में ही अच्छे लगते हैं। "अति सरवरत्रे व्रजरत्ते " हर कार्य संतुलन में ही उपयोगी होता है। ज्यादा बोलने वाले को सम्मान नहीं मिलता, ज्यादा चुप रहने वाले को मुर्ख समझ लिया जाता है। उसी प्रकार ज्यादा बरसात से अनाज नष्ट हो जाता है और रोज मर्रा का जीवन दूभर हो जाता है, ज्यादा धुप से पेड़ पौधे जल जाते हैं और खेतों में भी कुछ निपजता नहीं है। जो कुछ भी अच्छा है संतुलित है। पृथ्वी संतुलन का एक विलक्ष्ण उदाहरण है। पृथ्वी सूरज से ना तो बहुत ज्यादा दूर है और ना ही बहुत ज्यादा नजदीक। पृथ्वी की घूमने के शक्ति ना तो बहुत ज्यादा तेज है और ना ही बहुत ज्यादा धीमी। इसी प्रकार पृथ्वी पर ना तो बहुत ज्यादा गर्मी है और ना ही बहुत ज्यादा सर्दी। इसलिए यहाँ जीवन संभव है। भावार्थ है की हर वस्तु संतुलन में ही उपयोगी है।

आबत सब जग देखिया, जात ना देखी कोई
आबत जात लखई सोई जाको गुरुमत होई। 

जन्म को सब देख सकते है, आगमन दिखता है लेकिन व्यकित मृत्यु के बाद कहाँ जाता है ये कोई नहीं जानता है। आने और जाने को वही व्यक्ति देख सकता है जिसको गुरु का ज्ञान प्राप्त हो गया है। कबीर के दोहों में मृत्यु को सास्वत सत्य बताया गया है। सत्य ही सुन्दर है। कबीर की झोपड़ी ही समशान के पास थी उठते बैठते, सोते जागते कबीर लोगों की चिताये देखता और देखता की लोग किस प्रकार से सत्य को थोड़ी देर में ही भूल जाते हैं। दोहे में गुरु ज्ञान का महत्त्व रेखांकित है और बताया गया है की जन्म मरण के इस चक्र को गुरु ज्ञान से ही समझा जा सकता है। भावार्थ है की गुरु घ्यान प्राप्ति उपरांत जन्म और मरण को समझा जा सकता है, अन्यथा कोई नहीं जान पाता है की मरने के बाद कोई कहाँ जाता है।


कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय।
साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय।

जिन लोगों को ईश्वर से विरक्ति है, जो दुष्ट है उनको गुरु निंदा करने दो, साधक को गुरु ज्ञान लेना चाहिए। दुष्ट जन और कुत्तों को पलट कर जवाब नहीं देना चाहिए क्योंकि उन्हें गुरु नाम की महिमा से कोई लेना देना नहीं हैं। हर कार्य में बढाए तो होती हैं और इसी प्रकार से भक्ति में भी बढ़ाएं हैं। दुष्टजन साधक को प्रचलित सांसारिक मार्ग से अलग होकर भक्ति करने पर उसे भला बुरा कहते हैं उसकी आलोचना करते हैं। कबीर ने चेताया है की उनकी बातों पर ध्यान नहीं देना है जिस प्रकार कुत्ते भौंकते ही रहते हैं उसी प्रकार से दुष्टजन साधक की आलोचना करते रहते हैं। भावार्थ है की साधक को उसकी आलोचनाओं से विचलित नहीं होना चाहिए और गुरु के ज्ञान को ग्रहण कर बताये मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए।

हिन्दू तुरक के बीच में मेरा नाम कबीर
जीव मुक्तवन कारने अबिकत धरा सरीर।

कबीर की वाणी है की लोग हिन्दू मुस्लिम के नाम पर झगड़ रहे हैं। झूठी बातों पर लड़ रहे हैं, मैं जीवन मुक्ति के कारन आया हु और लोगों के बीच शरीर धारण किया है। वस्तुतः यह दोहा कबीर की लीलाओं से सबंधित है। इस दोहे में बताया गया है की कबीर ने लोगों को मुक्ति मार्ग बताने के लिए देह धारण की थी। अगर बात लीलाओं इतर भी की जाय तो इस बात में कोई दो राय नहीं है की कबीर का पूरा जीवन ही मानवता मात्र के लिए समर्पित था। कबीर की लीला के बारे में एक जगह वर्णन है की काशी में जलन का रोग फैल गया था। एक वृद्धा ने कबीर से इसे दूर करने की गुहार लगाई तो कबीर से वृद्धा पर मिटटी का स्पर्श करवाया और वो ठीक हो गयी।
मेरे मत से तो कबीर को किसी चमत्कार करने वाले की दृष्टि से देखने की बजाय कबीर खुद ही एक चमत्कार ही थे। उन्होंने पुरे जीवन लोगों के मिथ्याचार को समाप्त करने में बिताया। दलितों के लिए आवाज उठायी और सामाजिक कुरीतियों के लिए सभी को आड़े हाथों लिया। कबीर ने अपने अंतिम समय में भी लोगो के इस भ्रम को तोडा की काशी में देह त्यागने पर स्वर्ग मिलता है। इस दोहे का भावार्थ है की आम लोगों को जीवन के चक्र से मुक्ति दिलाने के लिए कबीर ने जन्म लिया।

मांगन मरन समान है तोहि दयी मैं सीख
कहे कबीर समुझाइ के मति मांगे कोइ भीख। 

कबीर ने कर्मप्रधान समाज की कल्पना की थी और इसी क्रम में वो व्यक्ति को सीख देते हैं की मांगने से मरना बेहतर है। भीख किसी भी सूरत में नहीं मांगनी चाहिए। इस दोहे का भावार्थ है की व्यक्ति को पुरुषार्थ करना चाहिए और किसी से भीख नहीं मांगनी चाहिए। 

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