कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित Kabir Dohe Hindi Meaning
संत कबीर मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के कवियों में अग्रणी कवी हैं जिन्होंने अपनी वाणी से बड़े से बड़े पंडितों और मौलवियों को चुप कर दिया। कारन था उनके अकाट्य तर्क। वर्तमान जीवन के सभी पहलुओं में कबीर की
वाणी प्रासंगिक है। कबीर ने हर उस बात का विरोध किया जो आडम्बर और अत्याचार पर आधारित थी। कबीर के दोहे गागर में सागर हैं। गूढ़ से गूढ़ तत्व ज्ञान सरल शब्दों में व्यक्त कर देना कबीर का हुनर है। कबीर ने जो देखा वो कहा, और तार्किक आधार पर। लोग उनकी बातों पर स्वंय को असहाय सा महसूस करते थे क्यों की तार्कित आधार पर उनकी वाणी अकाट्य थी। वस्तुतः कबीर किसी को नीचा दिखाना और स्वंय को श्रेष्ठ दिखाना नहीं चाहते थे। उनका हृदय तो सबके लिए अथाह प्रेम से भरा पड़ा था। उनकी वाणी में कभी भी हिंशा प्रदर्शित नहीं होती जबकि विरोध आक्रामक दिखाई देता है। कुछ दोहों के माध्यम से कबीर के विचार जानने की कोशिस करते हैं।
वाको बुरा ना मानिये, और कहां से लाय।
कबीर ने अपने दोहो के माध्यम से आम जन को बहुमूल्य शिक्षा देने का प्रयत्न किया है। उक्त दोहे में कबीर का मत है की मुर्ख व्यक्ति से वार्तालाप का कोई फायदा नहीं है। मुर्ख व्यक्ति की पहचान है की वो कुए के मेंढक की तरह से सिमित ज्ञान को की परिपूर्ण मान कर स्वंय का परम् ज्ञानी समझता है। उसके कहे का बुरा नहीं मानना चाहिए क्योंकि उसके तर्क सिमित ज्ञान पर आधारित हैं। मुर्ख व्यक्ति और ज्ञान की प्राप्ति भी नहीं कर सकता है क्यों की उसने स्वंय को परम ज्ञानी होना मान लिया है। भावार्थ यही है की मुर्ख व्यक्ति की बातों का बुरा नहीं मानना चाहिए क्यों की वो उतना ही बता सकता है जितना उसका ज्ञान है।
मन के हारे हार है मन के जीते जीतकहे कबीर गुरु पाइये,मन ही के परतीत।
बाहर कुछ नहीं है, जो है अंदर है। यदि मन में दृढ इच्छा शक्ति है तो जीत संभव है और अगर मन ही निराशा से भरा हुआ है जो जीत भी हार ही है। आत्मकेंद्रित होकर व्यक्ति को अपने मन को सुदृढ़ बनाना चाहिए और दोषारोपण से बचना चाहिए। मन में दृढता हो तो गुरु की प्राप्ति हो जाती है। इस दोहे का भावार्थ है की किसी भी प्ररिस्थिति में व्यक्ति को मन छोटा नहीं करना चाहिए। मन को मजबूत करके बड़ी से बड़ी सफलता भी प्राप्त की जा सकती है। मन को हर परिथिति में सुदृढ़ रखना चाहिए। अनुकूल और प्रतिकूल समय आता जाता रहता है। भावार्थ है की यदि हम स्वंय ही हार मान ले तो हार ही होगी और हम जीत के लिए स्वंय को तैयार करते हैं तो विजयी होंगे।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।कबीर के समय धार्मिक कर्मकांड अपने चरम पर था। आम जन को पढ़ने लिखने से वंचित कर दिया था। कुछ चुनिंदा लोग धर्म के ठेकेदार के रूप में अवतरित हो चुके थे और धर्म को स्वंय की जागीर समझते थे। कबीर ने उन लोगों पर प्रहार करते हुए कहा की शाश्त्र और पोथी पढ़ने मात्र से कोई व्यक्ति पंडित नहीं बन सकता है। पंडित शब्द का यहाँ तात्पर्य है श्रेष्ठ व्यक्ति जो ज्ञान से परिपूर्ण हो। शाश्त्र और पोथी पढ़कर कोई पंडित नहीं बन सकता है। पंडित तभी बन सकता है जब मानव से मानव का प्रेम सीख ले। वो ज्ञान ही किस काम का जो प्रेम से ओतप्रोत न हो ? भावार्थ है की एक दूसरे से प्रेम की भावना होनी चाहिए। प्रेम के आभाव में अर्जित ज्ञान व्यर्थ है।
राह बिचारी क्या करै, जो पंथी न चले विचारी।
आपन मारग छोड़ि के, फिरै उजारि - उजारि।।जीवन कर्म प्रधान है। कबीर ने कहा की अपने दोष दूसरों पर मंढने से कोई फायदा होने वाला नहीं है। राह बिचारि क्या कर सकती है अगर उस पर चलने वाले व्यक्ति को सही राह का ज्ञान न हो। सही राह को छोड़कर वो इधर उधर उजाड़ में भटकता रहता है। जीवन में हमें कई मार्ग मिलते हैं जो अलग अलग मंजिल की और लेकर जाती हैं। ये पथिक पर निर्भर करता है की वो कौनसी राह चुनता है। अपनी राह का चुनाव साधक को विवेक से करना चाहिए। भक्ति मार्ग की कई राह हैं लेकिन उनमें से अधिकांश आडम्बर और कर्मकांडों से भरे पड़े हैं। उन पर चलकर कोई ईश्वर तक नहीं पहुँच सकता है क्योंकि वो राह सत्य पर आधारित नहीं हैं। भावार्थ है की भक्ति की राह पर चलने वाले पथिक को बहुत ही सोच समझ कर अपनी राह का चुनाव करना चाहिए अन्यथा वो भटकता ही रहेगा और मंजिल को प्राप्त नहीं हो पायेगा।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
कबीर ने सदा ही साम्प्रदायिकता का विरोध किया और अपनी वाणी में आम जन को बताया की ईश्वर एक है, निराकार है और सर्वत्र व्याप्त है। ईश्वर सबका है उसके लिए कोई छोटा बड़ा और धर्म विशेष महत्त्व नहीं रखता है। तात्कालिक समाज में हिन्दू और मुस्लिम धर्म में संघर्ष का माहौल था। क्रूर मुस्लिम शाशक हिन्दुओं को जबरन मुस्लिम धर्म ग्रहण करने पर बाध्य कर रहे थे और हिन्दू धर्म के ठेकेदार कर्मकांडों में उलझे थे। कबीर से लोगों तक सन्देश पहुंचाया की हिन्दू राम को श्रेष्ठ मानते हैं और मुस्लिम कहते हैं की रहमान सर्वोच्च है। हिन्दू और मुस्लिम इस बात पर खून बहाते हैं की उनका ईश्वर श्रेष्ठ है लेकिन मर्म किसी ने नहीं जाना है। भावार्थ है की सभी धर्मों का ईश्वर एक ही हैं उसके नाम पर समाज को बाटना और आपसी संघर्ष करना व्यर्थ है। इस दोहे में आपसी भाईचारे की भावना निहित है।
कोई निन्दोई कोई बंदोई सिंघी स्वान रु स्यार
हरख विशाद ना केहरि,कुंजर गज्जन हार।
हरख विशाद ना केहरि,कुंजर गज्जन हार।
किसी की निंदा और यश गान से ज्ञानी व्यक्ति को कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। कोई समर्थ और ज्ञानी की कितनी भी आलोचना करे उसके ऊपर इसका कोई असर नहीं पड़ता है। सियार और कुत्तों के भौकने से शेर डरता नहीं है। शेर तो शक्तिशाली हाथी को भी मार सकता है। भावार्थ है की यदि आप सामर्थ्यवान है तो छोटी मोटी परेशानियों से डरने की आवश्यकता नहीं है। भावार्थ है की स्वंय को समर्थशाली बनाना चाहिए फिर छोटे मोटे खतरों से डरने की आवश्यकता नहीं होती है।
मन चलता तन भी चले, ताते मन को घेर
तन मन दोई बसि करै, राई होये सुमेर।
दोहे की व्याख्या :-तन मन दोई बसि करै, राई होये सुमेर।
व्यक्ति निर्माण पर जोर देते हुए कबीर की वाणी है की व्यक्ति का तन अधीन होता है "मन " के। मन के कारन ही तन क्रियाशील होता है। हम वही करते हैं जो हम सोचते हैं। सोच को वश में करके हम हमारे कर्म को साध सकते हैं। तन और मन दोनों को वश में करके किसी भी साधना को प्राप्त किया जा सकता है और राई भी सुमेरु पर्वत के समान बन सकती है। भावार्थ है की तन मन को वश में करना आवश्यक है क्यों की मन की चंचलता के कारन ही तन से अच्छे बुरे कार्य होते हैं। चंचल मन के चलते किसी भी मार्ग पर चलना दूभर हो जाता है। तन और मन को वश में करने के बाद कुछ भी असाध्य नहीं है।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
दोहे की व्याख्या :-मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
ज्ञान की प्राप्ति सतही तौर पर नहीं की जा सकती है, उसके लिए कठोर प्रयत्न करने पड़ते हैं। जो व्यक्ति पुरजोर प्रयत्न नहीं करता है वो किसी भी साधना की प्राप्ति नहीं कर सकता है। जो गोताखोर गहरे पानी में गोता लगाता है वो वांछित वस्तु को खोज कर प्राप्त कर लेता है और जो डूबने के डर से सतही तौर पर गोता लगाकर संतुष्ट हो जाता है उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। सफल होने के लिए असफलता का डर दूर करके गहन प्रयत्न करने होते हैं। भावार्थ है की छोटे मोटे प्रयत्न करके हार मान लेने वाले व्यक्ति को सफलता प्राप्त नहीं होती है। सफलता के लिए गहन प्रयत्न करने चाहिए। कबीर का यह फलसफा हर क्ष्रेत्र में प्रासंगिक है चाहे वो ईश्वर की भक्ति हो या रोज मर्रा का जीवन।
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय।
दोहे की व्याख्या :-जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय।
परिस्थियों का जीवन पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है। कबीर ने इस दोहे के माध्यम से समझाया है की जैसा हम भोजन करते हैं वैसा ही हमारा मन हो जाता है। सात्विक और पवित्र भोजन से हमारा मन निर्मल रहता है, शांत रहता है। उटपटांग और मासाहारी भोजन से हिंसा की भावना सदैव आतुर रहती है। इसी प्रकार देश काल का व्यक्ति के चरित्र निर्माण पर प्रभाव पड़ता है। इसीलिए व्यक्ति को संगती का ध्यान रखना चाहिए। इस दोहे का भावार्थ है की देश काल और आस पास के वातावरण का व्यक्ति के स्वभाव पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है और इसीलिए सोहबत सदैव नेक लोगों की करनी चाहिए।
सब ही ते लघुता भली, लघुता ते सब होय।
जस द्वितीया कौ चन्द्रमा, शीश नावै सब कोय।।
दोहे की व्याख्या :-जस द्वितीया कौ चन्द्रमा, शीश नावै सब कोय।।
विनम्रता से और सीखने की प्रवृति रखकर खुद को छोटा मानने से सब कार्य सध जाते हैं। अहम् के वश व्यक्ति खुद को सम्पूर्ण समझ बैठता है और दूसरों से कुछ सीख नहीं पाता है। स्वंय छोटा मानकर दूसरों के प्रति विनय भाव रखना उच्च सद्गुण है। कुछ लोग अगम के वश स्वंय को सर्व गुण संपन्न समझने लग जाते है और परिणाम स्वरुप दूसरे के अर्जित ज्ञान और अनुभवों का फायदा नहीं उठा सकते हैं। वाणी अगर मृदुभाषी नहीं हो तो बनते कार्य भी बिगड़ जाते है। कबीर की एक और वाणी है ऐसी वाणी बोलिये मन का आप खोय। जैसे द्वितीया के चन्द्रमा को सब शीश नवा कर अभिनन्दन करते हैं वैसे भी विनय स्वभाव के व्यक्ति का हर जगह आदर किया जाता है। भावार्थ है की विनम्रता और विनय स्वभाव के आभूषण हैं, इन्हे जीवन में उतारना जाहिए और अहम को त्याग देना चाहिए।
दुःख में सुमिरन सब करे ,सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होय।।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होय।।
दोहे की व्याख्या :-
जब व्यक्ति का समय अच्छा बीतता है और वह सुखी रहता है तब वह ईश्वर को भूल जाता है और सद्कार्यों से पृथक होकर मन के वशीभूत कार्य करता है। जब उस पर दुःख आन पड़ते हैं तो वो ईश्वर को याद करता है और विनती करता है। इस सन्दर्भ में कबीर का मानना है की यदि हम सुख के समय ही मालिक को याद रखे और सद्कार्यों में लगे रहें तो दुःख की घडी में भी हम प्रशन्न रह सकते हैं और हमें दुःख की अनुभूति नहीं होती। भावार्थ है की मालिक की स्तुति हर परिस्थितियों में की जानी चाहिए।
दुखिया मुआ दुख करि सुखिया सुख को झूर
दास आनंदित राम का दुख सुख डारा दूर।
दोहे की व्याख्या :-दास आनंदित राम का दुख सुख डारा दूर।
दुखी व्यक्ति दुःख का विश्लेषण करके और दुखी होता रहता है और सुखी व्यक्ति सुख के अग्नि में ही जलता रहता है। सुख दुःख का यहाँ क्रम चलता रहता है। न तो व्यक्ति सुख में सुखी रह पाता है और दुःख में और ज्यादा दुखी हो जाता है। ये मन की स्थितियां है जिनके वशीभूत होकर व्यक्ति भटकता रहता है। कबीर ने अन्यत्र कहा है की सुख क्या है ? वास्तव में सुख है "इच्छाओं का दमन " . जहा किसी से हेत है वही दुःख है। प्रीती ही दुखों का कारन है। जब सारी इच्छाएं शांत हो जाती है तो हमें किसी बात से कोई दुःख नहीं होता और हम मान लेते हैं की करने वाला तो कोई और है और हम "परिणाम" को देखकर दुखी होते रहते है। सुखी तो एक वो व्यक्ति है जो मालिक का दास है जो हरदम मस्त रहता है। वैसे ये एक अलग विषय है की "हेत" को कैसे समाप्त किया जाय और ये इतना आसान भी नहीं है। भावार्थ है की ईश्वर को याद करने वाला व्यक्ति हर वक़्त सुखी रहता है और सुख और दुःख के फेर से मुक्त हो जाता है।
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
दोहे की व्याख्या :-कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
किसी के महत्त्व को कम करके आंकना एक बड़ी भूल हो सकती है। एक तिनका जो पाँव तले होता है यदि उड़कर आँख में गिर जाए तो पीड़ा उत्पन्न कर देता है। भावार्थ है की किसी की शक्ति को कम करके नहीं देखना चाहिए परिस्थिति विशेष में वो एक बड़ी पीड़ा दे सकता है। यही इस नीतिगत दोहे का भाव है। सभी को सम्मान देना चाहिए और उनके महत्त्व को समझना चाहिए। कबीर के समय दलित लोगों पर विभिन्न प्रकार के भेदभाव और अत्याचार होते थे। कबीर दलित चेतना के मध्यकालीन भक्ति आंदोलन की कवियों में मुखर स्वर थे। इन दोहों को दलित स्वाभिमान के सन्दर्भ में भी समझा जा सकता है।
कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ सिध्द को गाँव।
स्वामी कहै न बैठना, फिर-फिर पूछै नाँव।
दोहे की व्याख्या :-जिस व्यक्ति को समाज ने सिद्ध मान लिया है, परिपूर्ण मान लिया है उसके यहाँ नहीं जाना चाहिए क्योंकि वो आपको बैठने को भी नहीं कहेगा और बार बार आपका नाम ही पूछता रह जायेगा। जो लोग स्वंय को बड़ा मान लेते हैं वो अहम् का शिकार हो जाते हैं और दूसरे व्यक्ति के आत्मसम्मान को ठुकराते हुए उसके महत्त्व को समाप्त कर देते है। ऐसे लोगों के यहाँ नहीं जाना चाहिए क्यों की उन्हें वास्तव में आपसे कुछ लेना देना नहीं होता और वो अपना ज्ञान ही दलते रहते है। भावार्थ है की घमंडी और अभिमानी व्यक्ति के यहाँ नहीं जाना चाहिए, वो किसी का सम्मान करने तक की अवस्था में नहीं रहता है। पोंगा पंडितों पर ये कटाक्ष है। ये वो लोग थे जो स्वंय को सिद्ध बताते थे लेकिन मूल मानवीय गुणों से दूर थे।
कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।
दोहे की व्याख्या :-देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।
जब तक देह है दान करना चाहिए, एक रोज जब देह समाप्त हो जाएगी तो इसे देह कौन कहेगा। जब तक जीवन है दान पुण्य का कार्य करना चाहिए और स्वंय से नीचे के स्तर के लोगों की मदद करनी चाहिए क्यों की ये जीवन क्षणिक है और एक रोज समाप्त हो जाना है इसलिए ज्यादा से ज्यादा दान करना चाहिए।
जेती लहर समुद्र की, तेती मन की दौर
सहजय हीरा नीपजय, जो मन आबै ठौर।
दोहे की व्याख्या :-सहजय हीरा नीपजय, जो मन आबै ठौर।
कबीर ने कई स्थानों पर मन की साधना पर बल दिया है। मन स्वभाव से चंचल होता है और एक विषय पर केंद्रित नहीं होता है। मन समुद्र की लहर की तरह होता है जिसमें समुद्र की लहर की तरह विचार उठते रहते हैं जिनका निर्धारण पूर्व में नहीं किया जा सकता है। अगर कोई व्यक्ति मन को काबू में कर ले तो वह वांछित उद्देश्य की प्राप्ति कर सकता है। भक्ति के लिए भी मन को साधना आवश्यक है। जीवन में किसी भी क्ष्रेत्र में सफलता हेतु सबसे पहले मन को ही ठिकाने पर लाना होता है क्यों की पहले विचार मन में आता है और फिर हमारा शरीर उस पर क्रिया करता है।
लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार।
कहौ कबीर क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि दीदार।।
दोहे की व्याख्या :-कहौ कबीर क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि दीदार।।
भक्ति मार्ग पर अग्रसर साधक को कबीर चेता कर कहते हैं की मार्ग लम्बा है घर से दूर है मार्ग विकट है तो फिर कैसे मंजिल मिलेगी हरी के दीदार होंगे ? कबीर का इशारा तृष्णा लोभ मोह माया, सांसारिक बाधाओं की तरफ है। ईश्वर प्राप्ति का मार्ग सरल नहीं है। कई तरह से साधक की परीक्षा ली जाती है। हरि के दर्शन आत्म संयम, चित्त की एकाग्रता और निरंतर प्रयत्न के बिना संभव है। राह में अनेकों चोर भी हैं जैसे मोह, माया, लोभ और तृष्णा और इसीलिए हरि के दीदार दुर्लभ हैं आसान नहीं हैं। भावार्थ है की अनेकों प्रकार के घात के बाद और लम्बे सफर के बाद ही ईश्वर की प्राप्ति होती है।
पाया कहे तो बाबरे,खोया कहे तो कूर
पाया खोया कुछ नहीं,ज्यों का त्यों भरपूर।
दोहे की व्याख्या :-पाया खोया कुछ नहीं,ज्यों का त्यों भरपूर।
जो कहे की उसने ईश्वर को प्राप्त कर लिया है वो बावरा है पागल है और जो कहता है की उसने खो दिया है वो मूढ़ और अविवेकी है। ना तो ईश्वर को पाया जा सकता है और न ही उसे खोया ही जा सकता है। ईश्वर तो ज्यो का त्यों ही रहता है। "जिन पाया तीन गहरी मौन " जिसने इस्वर से साक्षात्कार कर लिया है वह वर्णन नहीं कर सकता है और चुप हो जाता है। जो ढोंगी है वो ईश्वर के वर्णन को बढ़ा चढ़ा कर बताता रहता है, सच्चाई तो यह है की उसने ईश्वर को महसूस नहीं किया है। ईश्वर को खोया भी नहीं जा सकता है क्यों की वो हर जीवित आत्मा के अंदर निवास करता है, वो तो सांसों में समाया हुआ है उसे कैसे खोया जा सकता है और जो कहता है की उसने ईश्वर को खो दिया है वो अविवेकी और मूढ़ है। भावार्थ है की ईश्वर कोई वस्तु नहीं है जिसे पाया जा सके वो तो हर घट में है आवश्यकता है बस उसे महसूस करने की।
या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत।
दोहे की व्याख्या :-गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत।
जीवन क्षणिक है, एक रोज समाप्त हो जाना है, स्थायी नहीं है। इससे हेत लगाना व्यर्थ है। अगर परम सुख की प्राप्ति करनी है तो गुरु के चरणों में चित्त को लगाना चाहिए, वही सच्चा आनंद प्राप्त होगा। जीवन में अनेकों स्वार्थ और लोभ मोह माया के फंदे हैं जो व्यक्ति को उसके मार्ग से विरक्त कर देते हैं। कबीर का कहना है की परम सुख कहाँ है ? परम सुख संसार के सुखों में नहीं है वो तो क्षणिक हैं और जाते जाते दुःख ही देकर जाने वाले हैं। गुरु ही सच्चा सुख देने वाला है और परम सत्ता की और अग्रसर करता है। भावार्थ है की सांसारिक सुख क्षणिक हैं और स्थायी आनंद नहीं दे सकते हैं। गुरु हमें ईश्वर भक्ति मार्ग पर लेकर जाता है इसलिए उसके चरणों मै परम सुख है।
गुरु गोविंद दोउ खड़े काको लागूं पाय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंन्द दियो बताय ।।
दोहे की व्याख्या :-बलिहारी गुरु आपने, गोविंन्द दियो बताय ।।
गुरु गोविन्द से भी बड़ा है क्यों की गुरु ही सद्ऱाह दिखाता है और ईश्वर की और अग्रसर करता है। गुरु के आभाव में गोविन्द का ज्ञान नहीं हो पाता है और साधक सांसारिक लोभ मोह माया में ही उलझा रहता है। बिना गुरु के जीवन व्यर्थ है। मनुष्य इधर उधर भटकता रहता है और अपने उद्देश्य के प्रति सचेत नहीं रहता है। भावार्थ है की उस गुरु को बार बार वंदना है जिसने ईश्वर की और हमें अग्रसर किया है।
पाहन ही का देहरा पाहन ही का देव
पूजनहारा आंधरा क्यों करि माने सेव।
दोहे की व्याख्या :-पूजनहारा आंधरा क्यों करि माने सेव।
कबीर मानवता वादी थे। कबीर ऐसी भक्ति को कभी मानने को तैयार नहीं थे जो कर्मकांड और प्रतीकात्मक थी। कबीर के अनुसार सभी समान हैं और ईश्वर की भक्ति का अधिकार सभी को है। रामानंद को गुरु बनाने को लेकर भी किस्सा है की कबीर का प्रश्न था "क्या राम मेरे नहीं हैं ? राम तो सबके हैं " मूर्तिपूजा के नाम पर समाज में पाखंड और कर्मकांड चरम पर था। कबीर ने देखा की विदेशी मुस्लिम आक्रांता उनके मंदिरों को तोड़ रहे हैं तो उनके मन में कई बार यह प्रश्न पैदा होता था की क्यों ईश्वर इनको ऐसा करने देता है और उनका विश्वाश मूर्ति पूजा पर नहीं रहा और वे निरंकार भक्ति की और अग्रसर हो गए। उन्होंने तो एक स्थान पर कहा है की " पहन पूजे जे हरी मिले तो में पुजू पहाड़" साफ है की उपयोगी तो चाकी है जिससे संसार पीस खाता है। पतथर का मंदिर है पत्थर के भगवान् पूजने वाला भी अँधा है , मुर्ख है तो उसकी साधना कैसे सिद्ध हो सकती है। भावार्थ है की पत्थर की पूजा व्यर्थ है।
काया माहि कबीर है, ज्यों पहुपम मे बास
कई जाने कोई जौहरी, कई जाने कोई दास।
दोहे की व्याख्या :-कई जाने कोई जौहरी, कई जाने कोई दास।
ईश्वर इसी काया में रहता है उसे अन्यत्र ढूढ़ने की आवश्यकता नहीं है। जैसे फूल में खुशबू रहती है उसी प्रकार से ईश्वर हमारे तन में रहता है। या तो उसे कोई ज्ञानी जौहरी जान सकता है या फिर कोई सच्चा दास जान सकता है। मालिक को मंदिर मस्जिद और तीर्थ में ढूंढने की आवश्यकता नहीं है वो तो अंदर ही बैठा है। जो लोग उसे ढूंढते रहते हैं वो मुर्ख हैं उन्हें तत्व ज्ञान नहीं है। जैसे की रत्न के बारे में जौहरी जानता हैं वैसे ही ईश्वर का दास ये जानता है की ईश्वर तो कण कण में हैं, साँसों में हैं उसे बाहर ढूढ़ने की कहाँ आवश्यकता है। भावार्थ है की ईश्वर को ढूढ़ने कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है वो तो हमारे भीतर ही बैठा है बस उसे पहचानने की आवश्यकता है।
तरुबर पात सो युॅं कहे सुनो पात एक बात
या घर यही रीति है एक आबत एक जात।
दोहे की व्याख्या :-या घर यही रीति है एक आबत एक जात।
वृक्ष पत्तों को आग्रह करता है की वो उसके ज्ञान को सुने। आना और जाना इस संसार का चक्र है। एक आता है और एक जाता है यही इस संसार का नियम है कोई स्थायी नहीं है। जन्म और मृत्यु का ये चक्र यु ही अविरल चलता रहता है। अटल बिहारी वाजपेयी जी की एक कविता याद आ गयी, कुछ इस तरह से.......
जो कल थे,
वे आज नहीं हैं।
जो आज हैं,
वे कल नहीं होंगे।
होने, न होने का क्रम,
इसी तरह चलता रहेगा,
हम हैं, हम रहेंगे,
यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।
संसार का रिवाज है की जो आया है वो एक रोज जाएगा। मृत्यु ख़ालिश सत्य है। इस जीवन की सार्थकता तो प्रभु भक्ति में है। भावार्थ है की कबीर की वाणी है की आना जाना लगा रहता है। जो आया है एक रोज जायेगा। इस जीवन में प्रभु की भक्ति करके इसे सफल बनाया जा सकता है।
कबीर ये जग आंधरा, जैसे अंधी गाय
बछरा था सो मरि गया, वो भी चाम चटाय।
दोहे की व्याख्या :-बछरा था सो मरि गया, वो भी चाम चटाय।
नश्वर से लगाव दुःख का कारन है। ये संसार उस गाय की तरह अंधा है जो मरे हुए बच्चे को भी सजीव मानकर लाड करती रहती है। जग तो नश्वर है जो आया है जायेगा, नश्वर से कैसा हेत। ये मोह ही है जो हमें परेशान करता रहता है। भावार्थ है की नश्वर से हेत दुःख का कारन है।
हिन्दू तो तीरथ चले मक्का मुसलमान
दास कबीर दोउ छोरि के हक्का करि रहि जान।
दोहे की व्याख्या :-दास कबीर दोउ छोरि के हक्का करि रहि जान।
ईश्वर को तीर्थ या स्थान विशेष में ढूंढने की प्रथा का विरोध करते हए कबीर वाणी है की हिन्दू तीरथ को भागते हैं और मुस्लिम मक्का को, ये समझ कर की वही पर ईश्वर मिलेंगे। ईश्वर स्थान विशेष का मोहताज नहीं है वो तो सवर्त्र विद्यमान है, घट घट में उसका वाश है। कबीर ने मूर्तिपूजा तीर्थ का सदा ही विरोध किया। अपने आखिरी वक़्त में भी कबीर ने स्थान विशेष का मोह त्यागने के लिए कबीर ने काशी छोड़कर मगहर में प्राण त्यागना तय किया क्योंकि प्रचलित मान्यता थी की काशी में मरने पर स्वर्ग मिलता है और मगहर में मरने पर व्यक्ति गधा बनता है। कबीर चाहते थे की लोग इस कुरीति छोड़े और कर्म प्रधानता को अपनाये। कबीर ने कहा की यदि मेरे कर्म ही बुरे हैं तो काशी कैसे मुझे स्वर्ग दिला सकती है।
कबीर दोनों को छोड़कर इस्वर को आत्मा में ढूंढते हैं। भावार्थ है की ईश्वर किसी स्थान विशेष में नहीं है, वो तो सवर्त्र व्याप्त है, कण कण में वाश करता है और हर एक व्यक्ति में उसका अंश है। उसे अंदर ही ढूँढना है कहीं बाहर नहीं।
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।
दोहे की व्याख्या :-औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।
कबीर ने व्यक्तिगत चारित्रिक गुणों के निर्माण पर सदा ही जोर दिया है। व्यक्ति की वाणी मृदु और शीतल होनी चाहिए। वाणी शीतल जल की तरह होनी चाहिए जो औरों को शीतल करती है। मृदु वाणी बोलने और सुनने वाले दोनों को शीतल करती है। भावार्थ है की व्यक्ति के वाणी मृदु होनी चाहिए अहंकार से वशीभूत होकर कठोर वाणी से बनते हुए कार्य भी बिगड़ जाते हैं।
कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत।
साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत।
दोहे की व्याख्या :-साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत।
नाते रिश्तेदारों में गुणों का विश्लेषण नहीं किया जा सकता है। वे व्यक्ति के गुण अवगुण पर ध्यान दिए बगैर उसके परिवार और कुल के बारे में विचार कर निष्कर्ष निकाल देते हैं जो त्रुटिपूर्ण ही होता है। कुल विशेष का व्यक्ति अच्छा और बुरा हो सकता है उसके अच्छे होने का प्रमाण उसका कुल कभी नहीं हो सकता है और वैसे भी कबीर के जाती पाती का सदैव विरोध किया है। भावार्थ है की किसी के गन अवगुण का पैमाना कुल विशेष नहीं हो सकता है। कुल के इसी हेत को छोड़ना चाहिए।
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