कबीर के दोहे व पद हिंदी मीनिंग Kabir Ke Dohe Hindi Me with Hindi Meaning
कबीर की वाणी जो दोहों की माध्यम से है, यहाँ उनका हिंदी विश्लेषण और व्याख्या मेरे द्वारा की गयी है। कक्षा १० और १२ के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी है। कबीर के दोहे नायब हैं और जीवन का फलसफा सिखाते हैं।
याते चाकी भली जो पीस खाए संसार।।
कबीर की वाणी है की कर्मकांड और मूर्तिपूजा निरर्थक हैं। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के समय विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं ने हिन्दू मंदिरों को खंडित करने का कार्य किया और वो मुस्लिम धर्म को भारत में स्थापित करना चाहते थे। कबीर ने देखा की क्रूर शासक मंदिरों को ध्वस्त कर रहे हैं और उनके भगवान् कुछ नहीं कर रहे हैं। इससे कबीर का मन मूर्तिपूजा से उचट गया और उन्होंने निर्गुण उपासना को बल दिया। इसके अतिरिक्त हिन्दू धर्म में भगवान् के नाम पर कई ठेकेदार पैदा हो गए थे जिन्होंने कर्मकांड और ढकोसलों, आडम्बरों का सहारा लेकर आम जन को लूटना शुरू कर दिया था। उनका उद्देश्य अपना उल्लू सीधा करना था और उनको किसी से कुछ लेना देना नहीं था।
कबीर ने मूर्तिपूजा का विरोध करते हुए कहा की पत्थर की मूर्ति को पूजने से यदि ईश्वर प्राप्ति होती हो तो मैं पहाड़ पूज लूंगा। पत्थर की मूर्ति को पूजने से तो बेहतर पत्थर की चाकी है जिससे ये संसार पीस कर खाता है। भावार्थ है की ईश्वर तो हृदय में रहते है उसे अन्यत्र किसी स्थान में ढूढ़ने की कोई आवश्यकता है। इस दोहे में कर्मकांड और मूर्तिपूजा का विरोध किया गया है।
लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल।
लाली देखन मै गई मै भी हो गयी लाल।।
ये पूरी कायनात ही मेरे मालिक के रंग में रंगी हुयी है। मैं जिधर देखता हूँ उधर मेरे मालिक का ही रंग है, प्रभाव है। जब मैंने ईश्वर का यह रंग और लीला देखि तो मैं भी इसके रंग में रंग गया हु। मेरे अंदर भी ईश्वर का ही वाश है। इस संसार के हर कण में भगवान् का वाश है। छोटे से छोटेजीव से लेकर मानव भी ईश्वर का वास है। राई से लेकर पहाड़ तक सब इस्वर के रंग में निहित हैं। भावार्थ है की ईश्वर कण कण में व्याप्त है। ईश्वर किसी स्थान विशेष का मोहताज नहीं है। सबके हृदय में उसका वास है। जरुरत है तो उसे पहचानने की। लोग आडम्बर करके तीर्थ जाते हैं दुर्गम स्थानों पर ईश्वर को ढूंढते हैं लेकिन वो तो घर पर आये भिकारी में भी है और प्रभावशाली लोगों में भी है। ये तो साधक पर है की वो ईश्वर को कहाँ ढूंढता है। अन्यत्र कबीर ने कहा है "मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे में तो तेरे पास रे। "
आए हैं तो जायेंगे राजा रंक फ़कीर।
एक सिंघासन चढ़ चले एक बंधे जंजीर।।
जिसने जन्म लिया है उसे एक रोज मृत्यु आनी है। कोई राजा हो या फकीर मृत्यु खालिस सत्य है। राजा सिंघासन पर बैठता है और फकीर को भिक्षा का कार्य से यदि जंजीर से बाँध भी दिया जाता है तो दोनों को ही मृत्यु आनी है। इस दोहे में जीवन के उद्देश्य को स्पष्ट किया गया है की जीवन स्थायी नहीं है। जीवन के रहते मालिक का सुमिरन करना चाहिए। राजा होने पर यह गुमान नहीं होना चाहिए की मृत्यु नहीं आएगी। जीवन को सद्कार्यों में लगाना चाहिए। फकीर को किसी का भय नहीं होता है इसलिए वो सत्य बोलता है और बंदीगृह में डाल दिया जाता है लेकिन राजा और रंक दोनों को ही ईश्वर के घर जाना होगा। भावार्थ है की जीवन नश्वर है, एक रोज सभी को जाना है इसलिए सद्कार्य करते हुए ईश्वर का सुमिरन करना चाहिए जिससे यह जीवन सफल हो।
माला फेरत जुग भया , फिरा न मन का फेर।
करका मनका डार दे , मन का मनका फेर।।
इस दोहे में कबीर की वाणी है की आडम्बर और बाह्याचार से कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है। लोग माला फेरते हैं, तिलक लगाते हैं, गेरुआ धारण करते हैं लेकिन उन्होंने अपने मन को काबू में नहीं किया है और आडम्बर करते रहते हैं। माला फेरते फेरते एक युग बीत गया है लेकिन मन का मेल दूर नहीं हुआ तो ईश्वर की प्राप्ति कैसे होगी। हाथों के मनके को छोड़ कर मन के मनके को काबू में करना है, मन को केंद्रित करना है। मन के वश में होने से ही व्यक्ति सद्कार्यों की और अग्रसर होगा और ईश्वर का करीब जा सकेगा। ऐसी भक्ति उपयोगी नहीं है जहाँ हाथों में माला चलती रहती है और मन में मेल भरा हो। मैल है काम , वासना , लोभ और माया इनसे दूर होना है। भावार्थ है की सांसारिक और प्रतीकात्मक भक्ति से ईश्वर की प्राप्ति नहीं होने वाली उसके लिए को मन से भक्ति करनी होगी।
माया मुई न मन मुआ , मरी मरी गया सरीर।
आशा – तृष्णा ना मरी , कह गए संत कबीर।।
माया और तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती हैं। ये शरीर नश्वर है एक रोज समाप्त हो जाना है लेकिन मोह माया का चक्र समाप्त नहीं होता है। जीवन के अंतिम समय में भी व्यक्ति माया जोड़ने में लगा रहता है जबकि उसे पता है की मृत्यु सत्य है, इससे बचा नहीं जा सकता है। कोई राजा हो या रंक मृत्यु निश्चित है। कबीर की वाणी है की मोह माया को छोड़कर व्यक्ति को अपना जीवन सद्कार्यों में लगाना चाहिए। जीवन स्थायी नहीं है। माया और लोभ बंधन हैं, ये बांधते है और ये तो रहेंगे जब तक श्रष्टि है इनके पाश में व्यक्ति फंसता रहेगा लेकिन जीवन एक रोज नष्ट हो जाना है। साधना के माध्यम से मन को वश में करना है और इन्द्रियों पर काबू पाना है। व्यक्ति को कितनी भी माया मिल जाए उसका मन कभी भरता नहीं है और ज्यादा पाने की फिराक में लगा रहता है। भावार्थ है की मोह और माया का त्याग कर ईश्वर भक्ति की और अग्रसर होना चाहिए क्यों की यह जीवन निश्चित समय के लिए ही हमें मिला है।
कस्तूरी कुंडली मृग बसे , मृग फिरे वन माहि।
ऐसे घट घट राम है , दुनिया जानत नाही।।
कबीर वाणी है की मृग की नाभि में कस्तूरी है और वो उसकी तलाश में इधर उधर भटकता रहता है। इसी तरह से प्राणी मात्र भी राम की तलाश में मंदिर मंदिर भटकता है, तीरथ करता है माला फेरता है आडम्बर करता है, जबकि राम तो उसके घट में वाश करते है। यहाँ राम से अभिप्राय निर्गुण और निराकार ईश्वर है।
ये ढूंढने की प्रवत्ति आयी कहाँ से ? ये आयी है धर्म के नाम पर पैदा हुए धार्मिक ठेकेदारों के यहाँ से। उन्होंने अपनी दुकाने चमकाने के लिए स्थान विशेष पर बल दिया की अमुक स्थान पर ही ईश्वर की विशेष कृपा होगी। लेकिन कबीर ने इसका खंडन किया है और बताया की राम तो हर जगह है, कण कण में है, चींटी में है हाथी में है, सर्वत्र व्याप्त है। भावार्थ है की ईश्वर कहाँ है वो ना तो जप में है , ना तप में है और ना ही उपवास में है। मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे में तो तेरे पास में......... जय सत साहेब की।
बुरा जो देखन मैं चला , बुरा ना मिलया कोय
जो दिल खोजा आपना , मुझसे बुरा न कोय।।
बाह्याचार और चारित्रिक निर्माण पर बल देते हुए कबीर की वाणी है की जब व्यक्ति बुराई बाहर ढूंढता है तो उसे हर स्थान पर बुराई मिलती है। व्यक्ति आनंदित होता है की बुराई तो हर स्थान पर है लेकिन जब वह स्वंय का विश्लेषण करता है तो उसे ज्ञात होता है की सबसे बड़ी बुराई तो उसके अंदर ही है। जब व्यक्ति स्वंय को श्रेष्ठ मानकर दूसरों का मूल्याङ्कन करता है तो उसे दूसरों में ढेरों बुराईयां नजर आने लगती हैं। दूसरों के हर कार्य में उसे बुराई नजर आने लगती है। आवश्यकता है स्वंय के विश्लेषण करने के जब स्वंय का विश्लेषण करता है तो ज्ञात होता है की उससे बुरा तो कोई दूसरा है ही नहीं।
जब हम स्वंय की बुराई के लिए अपना विश्लेषण करते है तब दूसरों की बुराई कम जान पड़ती हैं। भावार्थ है की दूसरों की बुराई ढूढ़ने से कोई लाभ होने वाला नहीं है। स्वंय का मूल्यांडन आवश्यक है। स्वंय के मूल्यांकन के उपरांत ही चारित्रिक विकारों को दूर किया जा सकता है। गड़बड़ तो खुद के अंदर है इसलिए बुराई खुद में ढूढ़नी है और उसका दमन करना है।
साधु ऐसा चाहिए , जैसा सूप सुभाय।
सार सार को गहि रहै , थोथा देई उड़ाय।।
चारित्रिक विकास और उत्थान के लिए कबीर साहेब की वाणी है की संतजन की क्या पहचान है, संतजन की पहचान है की वो लोगों के गुणों को अपना लेता है और व्यर्थ के विकार को सूप के भांति किनारे करके अलग कर देता है। सार सार गहि लेही, थोथा देई उड़ाय। गुणों का ग्रहण करो, व्यर्थ बाते जाने दो। चारित्रिक निर्माण का यह दोहा मनुष्य को सीख देता है की बुराई अवगुण हर जगह व्याप्त हैं और अच्छाई भी। बुद्धिमत्ता इसी में हैं की हम चुन चुन कर अच्छाई को ग्रहण कर ले। भावार्थ है की हर व्यक्ति में गुण और अवगुण होते हैं। हमें चाहिए की हम गुणों को ग्रहण कर लें और व्यर्थ के बातों कर उसी तरह से अलग करके छांट लें जैसे सूप कचरे को अलग कर देता है।
दोस पराए देखि करि , चला हसंत हसंत।
अपने याद न आवई , जिनका आदि न अंत।।
पराये दोष का विश्लेषण करके व्यक्ति हर्षित होता रहता है। सोचता है की वो कितना अच्छा है। उसे स्वंय की याद ही नहीं आती जो अनेकों बुराईयों से भरा पड़ा है। दूसरों के विश्लेषण से कुछ हासिल नहीं होता है। स्वंय का विश्लेषण करना ही होगा। दूसरों में बुराइयां हो सकती हैं, लेकिन हमें उन से शिक्षा लेनी चाहिए और स्वंय में सुधार करना चाहिए। मानव स्वभाव ही ऐसा है की वो पराये दोष देखकर प्रशन्न होता है और स्वंय के दोष को नजर अंदाज कर देता है जो एक चारित्रिक दोष है। कबीर सच्चे अर्थों में "पर्सनलटी डेवलपमेंट गुरु" थे और उन्होंने बारीक से बारीक़ विषय पर ध्यान दिया है जो जीवन में आमूलचूल परिवर्तन लाने में सक्षम है। वर्तमान में अगर इस दोहे को देखा जाय जो ज्यादातर झगड़े फसाद और मन मुटाव बस इसी कारन हैं की हम व्यक्तिगत विश्लेषण के बजाय दूसरों में मीन मेख निकालते रहते हैं। मेरा व्यक्तिगत मानना है की वैश्विक स्तर पर जो भी समस्याएं हैं उन सबका समाधान कबीर ने छह सौ साल पहले ही बता दिया था।
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