दरस बिन दूखण लागे नैन

दरस बिन दूखण लागे नैन

दरस बिन दूखण लागे नैन लिरिक्स Daras Bin Dukhan Lage Nain Lyrics
 
दरस बिन दूखण लागे नैन।
जबसे तुम बिछुड़े प्रभु मोरे, कबहुं न पायो चैन।
सबद सुणत मेरी छतियां, कांपै मीठे लागै बैन।
बिरह व्यथा कांसू कहूं सजनी, बह गई करवत ऐन।
कल न परत पल हरि मग जोवत, भई छमासी रैन।
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे, दुख मेटण सुख देन।

पद में मीरा बाई की प्रभु श्री कृष्ण के प्रति गहरे प्रेम और विरह का चित्रण है। "दरस बिन दूखण लागे नैन," यानी प्रभु के दर्शन के बिना उनकी आँखें दुखने लगी है। जब से वे अपने प्रिय प्रभु से बिछड़ी हैं, उन्हें कभी भी शांति नहीं मिली।

श्रीकृष्णजी के दर्शन की तड़प ऐसी है, जैसे कोई प्यासा सागर की तलाश में भटकता हो। मन की बेचैनी तब और बढ़ जाती है, जब उनकी याद में आँखें हर पल तरसती हैं। राधारानी का प्रेम इस तरह मन को बाँध लेता है कि हर धड़कन में बस उनकी ही बात गूँजती है। मीराबाई की तरह यह तड़प जीवन का आधार बन जाती है, जहाँ हर साँस में बस प्रभु का नाम बसता है। लेकिन जब मन डगमगाए, तो उनकी मधुर वाणी की याद उसे थाम लेती है, जैसे कोई लहर किनारे से टकराकर शांत हो जाए। यह बिछोह का दर्द ऐसा है, जो रातों को लंबा कर देता है, मानो समय ठहर सा गया हो। फिर भी, यह विश्वास कि श्रीकृष्णजी की कृपा सुख देगी और दुख मिटाएगी, मन को राह दिखाता है। भक्ति का यह रास्ता ही वह दीया है, जो अंधेरे में भी उजाला देता है।


Dookhan Laagai Nain Daras Bin - Mirabai Ji - RSSB Shabad बरजी मैं काहूकी नाहिं रहूं।
सुणो री सखी तुम चेतन होयकै मनकी बात कहूं॥
साध संगति कर हरि सुख लेऊं जगसूं दूर रहूं।
तन धन मेरो सबही जावो भल मेरो सीस लहूं॥
मन मेरो लागो सुमरण सेती सबका मैं बोल सहूं।
मीरा के प्रभु हरि अविनासी सतगुर सरण गहूं॥
राणाजी, म्हांरी प्रीति पुरबली मैं कांई करूं॥

राम नाम बिन नहीं आवड़े, हिबड़ो झोला खाय।
भोजनिया नहीं भावे म्हांने, नींदडलीं नहिं आय॥

विष को प्यालो भेजियो जी, `जाओ मीरा पास,'
कर चरणामृत पी गई, म्हारे गोविन्द रे बिसवास॥

बिषको प्यालो पीं गई जीं,भजन करो राठौर,
थांरी मीरा ना मरूं, म्हारो राखणवालो और॥

छापा तिलक लगाइया जीं, मन में निश्चै धार,
रामजी काज संवारियाजी, म्हांने भावै गरदन मार॥

पेट्यां बासक भेजियो जी, यो छै मोतींडारो हार,
नाग गले में पहिरियो, म्हारे महलां भयो उजियार॥

राठोडांरीं धीयड़ी दी, सींसाद्यो रे साथ।
ले जाती बैकुंठकूं म्हांरा नेक न मानी बात॥

मीरा दासी श्याम की जी, स्याम गरीबनिवाज।
जन मीरा की राखज्यो कोइ, बांह गहेकी लाज॥
राम नाम मेरे मन बसियो, रसियो राम रिझाऊं ए माय।
मैं मंदभागण परम अभागण, कीरत कैसे गाऊं ए माय॥

बिरह पिंजरकी बाड़ सखी रीं,उठकर जी हुलसाऊं ए माय।
मनकूं मार सजूं सतगुरसूं, दुरमत दूर गमाऊं ए माय॥

डंको नाम सुरतकी डोरी, कड़ियां प्रेम चढ़ाऊं ए माय।
प्रेम को ढोल बन्यो अति भारी, मगन होय गुण गाऊं ए माय॥

तन करूं ताल मन करूं ढफली, सोती सुरति जगाऊं ए माय।
निरत करूं मैं प्रीतम आगे, तो प्रीतम पद पाऊं ए माय॥

मो अबलापर किरपा कीज्यौ, गुण गोविन्दका गाऊं ए माय।
मीराके प्रभु गिरधर नागर, रज चरणनकी पाऊं ए माय॥ 

श्रीकृष्णजी के दर्शन की आस ऐसी है, जैसे कोई सूखी धरती बारिश की बूँदों को तरसती हो। उनके बिछड़ने का दर्द मन को हर पल बेकल करता है, जैसे कोई चैन खो गया हो। राधारानी का प्रेम मन में ऐसा समाया है कि उनका नाम सुनते ही दिल थरथराने लगता है, और उनकी याद में हर पुकार मीठी लगती है। आँखें उनकी एक झलक के लिए रास्ता निहारती हैं, मगर यह इंतज़ार रातों को और लंबा कर देता है, जैसे समय रुक सा गया हो। मीराबाई की तरह यह विरह का दर्द मन को काटता है, फिर भी यह भरोसा कि श्रीकृष्णजी की कृपा हर दुख मिटाकर सुख देगी, मन को संबल देता है। यह भक्ति ही वह रौशनी है, जो सबसे गहरे अंधेरे में भी रास्ता दिखाती है।
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