माखन चुराता था वो, अब मन चुराता है, हर लेता मन जिसका, वो ही तर जाता है।।
जब अष्टमी की रात, जग जनम मनाता है, तब मथुरा दुल्हन सा, पूरा सज जाता है।।
और तन जब गोवर्धन में, चलता जाता है, मन गोकुल-वृंदावन ही, घूम आता है।। माखन चुराता था वो, अब मन चुराता है, हर लेता मन जिसका, वो ही तर जाता है।।
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दीखता नहीं उसको, जो अकल लगाता है, उससे मन से जो ढूंढे, वो ही पाता है।। उसके लिए ही वो, मुरली बजाता है, और मोर मुकुट से ही, शीश सजाता है।। माखन चुराता था वो, अब मन चुराता है,
हर लेता मन जिसका, वो ही तर जाता है।।
दुनिया में तो उसका, सबसे ही नाता है, समझ में लेकिन ये, मुश्किल से आता है।। मानो तो सब कुछ है, मानो तो दाता है, मानो तो पत्थर भी, भगवान कहलाता है।। माखन चुराता था वो, अब मन चुराता है, हर लेता मन जिसका, वो ही तर जाता है।।
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