मत ले रे जीवड़ा नींद हरामी लिरिक्स Mat Le Re Jeevada Nind Harami Nind Aalasi Lyrics
सत श्री साहेब। यह निर्गुणी /चेतावनी भजन कबीर साहेब की वाणी से प्रभावित राजस्थानी भजन है जिसमे यह बताने/समझाने का जतन है की यह संसार चार दिनों का सराय है, यह स्थाई घर नहीं है। माया के भ्रम के कारण जीव इसे ही अपना घर समझने लग पड़ता है और अनेकों प्रकार के फंद रचकर अधिक से अधिक माया कमाने के चक्कर में हरी सुमिरण को विस्मृत कर देता है।
सोने से अभिप्राय अज्ञान की नींद से है। ज्ञान का अभाव ही नींद है। खुद के घट में अँधेरा है, असत्य का। इस अँधेरे के कारण वह पुरुष जो आत्मा में रहता है दिखाई ही नहीं देता है इसलिए यदि प्रकाश पैदा करना है, उजाला करना है तो अपने हृदय में करो बाहर दिखावटी प्रकाश से कुछ भी लाभ नहीं होने वाला है। हृदय में ही ईश्वर है तो बाहर किसे ढूंढना। हरी सुमिरन हीरा है वहीँ माया कंकर है।
साहेब की वाणी है की हृदय में हीरा रखा है, चन्दन है जो की गुणवान है माया के भ्रम के कारण इतनी मूलयवान वस्तु को छोड़कर तुम कहाँ व्यर्थ में माया के चक्कर में फंस कर रह गए हो क्योंकि यह संसार तो झूठा है, एक भुलावा है। अंत समय में तुम पछतावोगे की तुमने जीवन रहते कुछ भी नहीं कमाया (हरी नाम रस ), इसलिए अपने जीवन का अमूल्य समय हरी सुमिरण में ही व्यतीत करना चाहिए।
चार दिनों री चाँदणी, ओ झूँटो संसार,
सूरता तू पीहर बसी, भूल गई भरतार।
मत ले रे जीवड़ा नींद हरामी, नींद आलसी,
थोड़ा जीवना के ख़ातिर क्यों सोवे,
थोड़ा जीवना के ख़ातिर क्यों सोवे,
मिनख जमारो ने ऐड़ो खोवे,
मत ले रे जीवड़ा नींद हरामी, नींद आलसी
थोड़ा जीवना के ख़ातिर क्यों सोवे।
खुद रा तो घर में घोर अंधेरो,
पर घर दिवळा काई जोवे,
मत ले रे जीवड़ा नींद हरामी, नींद आलसी,
थोड़ा जीवना के ख़ातिर क्यों सोवे।
थारा घट में तो खान हीरा की,
करम कातरी ने काई रोवे,
मत ले रे जीवड़ा नींद हरामी, नींद आलसी,
थोड़ा जीवना के ख़ातिर क्यों सोवे।
थारा घट माई ने तो बाग़ चन्दन को,
बीज़ बावलिया रो काई बोवे,
मत ले रे जीवड़ा नींद हरामी, नींद आलसी,
थोड़ा जीवना के ख़ातिर क्यों सोवे।
थारा घट में तो खान हीरा की,
कर्म काकरी ने काई रोवे,
मत ले रे जीवड़ा नींद हरामी, नींद आलसी,
थोड़ा जीवना के ख़ातिर क्यों सोवे।
थारा घट में तो समुद्र भरा है,
कादा में कपड़ा काई धोवे,
मत ले रे जीवड़ा नींद हरामी, नींद आलसी,
थोड़ा जीवना के ख़ातिर क्यों सोवे।
कहत कबीर साहेब ने तो रट ले,
अंत समय पड़ियो रोवे,
मत ले रे जीवड़ा नींद हरामी, नींद आलसी,
थोड़ा जीवना के ख़ातिर क्यों सोवे।
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