श्री गणपति अथर्वशीर्षम् को प्रधान रूप से प्रत्येक शुभ कार्यों के आरम्भ होने से पूर्व श्री गणेश जी की स्तुति के रूप में गाया जाता है, जो किसी भी कार्य के फलदाई होने को सुनिश्चित करता है। यह भगवान श्री गणेश जी का वैदिक स्तवन है। श्री गणपति अथर्वशीर्षम् को सिद्ध पाठ माना जाता है जिसके नित्य उच्चारण से जीवन के समस्त विघ्न और संताप दूर होते हैं।
हिंदी मीनिंग : श्री गणेश जी हम पर कृपा करो और हमारे कानों में ऐसा सुनने को मिले जो हमें निंदा और दुराचार से दूर ही रखे। हमारे कान शुभ बातों को ही सुने। हमारी आखें शुभ को ही देखे। भद्र-शुभ, पवित्र। हम हमारे शरीर से स्थिर रहे और आपकी वंदना करें। शरीर के अंगों से हम भगवान की स्तुति करें। जो आयु हमें प्राप्त हुई है वह परमात्मा की आराधना में काम आ सके।
हिंदी मीनिंग : समस्त जगत में चारों तरफ फैले हुए सुयशवाले इन्द्र हमारा पोषण करे, कल्याण करें। सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान रखनेवाले पूषा हमारा कल्याण का पोषण करें, अरिष्टों को मिटाने के लिये चक्र के सदृश शक्तिशाली
गरुड़देव हमारा कल्याण और पोषण करे। बृहस्पति देव भी हमारा कल्याण करें।
हिंदी मीनिंग/हिंदी अर्थ : श्री गणदेव, गणपति को नमस्कार है, नमन है। आप ही प्रत्यक्ष तत्त्व हो, आप ही सजीव हैं, आप ही कर्ता हैं, आप ही केवल धारणकर्ता और आप ही केवल संहारकर्ता हैं। तुम्हीं केवल समस्त विश्वरूप ब्रह्म हो और तुम्हीं साक्षात् नित्य आत्मा हो। तुम ही धारण करने वाले तथा तुम ही हरण करने वाले संहारी हो | तुम समस्त ब्रह्माण व्याप्त हैं तुम्ही एक पवित्र साक्षी हो |
एतदथर्वशीर्षं योऽधीते । स ब्रह्मभूयाय कल्पते । स सर्वविघ्नैर्न बाध्यते । स सर्वतः सुखमेधते । स पञ्चमहापापात् प्रमुच्यते । सायमधीयानो दिवसकृतम् पापन् नाशयति । प्रातरधीयानो रात्रिकृतम् पापन् नाशयति । सायम् प्रातः प्रयुञ्जानोऽअपापो भवति । सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति । धर्मार्थकाममोक्षञ् च विन्दति । इदम् अथर्वशीर्षम् अशिष्याय न देयम् । यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयान् भवति । सहस्रावर्तनात् । यं यङ् काममधीते तन् तमनेन साधयेत् ।।
अनेन गणपतिमभिषिञ्चति । स वाग्मी भवति । चतुथ्र्यामनश्नन् जपति स विद्यावान् भवति । इत्यथर्वणवाक्यम् । ब्रह्माद्यावरणम् विद्यात् । न बिभेति कदाचनेति ।।
यो दूर्वाङ्कुरैर्यजति । स वैश्रवणोपमो भवति । यो लाजैर्यजति, स यशोवान् भवति । स मेधावान् भवति । यो मोदकसहस्रेण यजति । स वाञ्छितफलमवाप्नोति । यः साज्यसमिद्भिर्यजति स सर्वं लभते, स सर्वं लभते ।।
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