कासी काँठै घर करैं पीवैं निर्मल नीर मीनिंग Kasi Kathe Ghar Kare Meaning Kabir Ke Dohe Hindi Meaning, Kabir Ke Dohe Hindi Arth/Hindi Bhavarth Sahit.
कासी काँठै घर करैं, पीवैं निर्मल नीर।मुकति नहीं हरि नाँव बिन, यों कहें दास कबीर
Kasi Kathe Ghar Kare, Peeve Nirmal Neer,
Mukati Nahi Hari Naav Bin, Yo Kahe Das Kabir.
Kasi Kathe Ghar Kare, Peeve Nirmal Neer,
Mukati Nahi Hari Naav Bin, Yo Kahe Das Kabir.
कासी काँठै घर करैं : काशी (धर्म नगरी) के समीप जो रहते हैं, निवास करते हैं.
पीवैं निर्मल नीर : गंगा का निर्मल जल पीते हैं.
मुकति नहीं हरि नाँव बिन : हरी नाम के सुमिरन के अभाव में मुक्ति संभव नहीं हो पाती है.
यों कहें दास कबीर : ऐसा कबीर दास जी कहते हैं.
कासी काँठै : काशी किनारे पर.
घर करैं : घर बनाते हैं, रहते हैं.
पीवैं : पीते हैं.
निर्मल नीर : स्वच्छ जल पीते हैं (गंगा जल)
मुकति : मुक्ति (जन्म मरन से मुक्ति, आवागमन से मुक्ति)
हरि नाँव बिन : हरी के नाम के बिना.
यों कहें : ऐसा कहना है, ऐसा कथन है.
दास कबीर : कबीर साहेब जो परमात्मा के दास हैं.
पीवैं निर्मल नीर : गंगा का निर्मल जल पीते हैं.
मुकति नहीं हरि नाँव बिन : हरी नाम के सुमिरन के अभाव में मुक्ति संभव नहीं हो पाती है.
यों कहें दास कबीर : ऐसा कबीर दास जी कहते हैं.
कासी काँठै : काशी किनारे पर.
घर करैं : घर बनाते हैं, रहते हैं.
पीवैं : पीते हैं.
निर्मल नीर : स्वच्छ जल पीते हैं (गंगा जल)
मुकति : मुक्ति (जन्म मरन से मुक्ति, आवागमन से मुक्ति)
हरि नाँव बिन : हरी के नाम के बिना.
यों कहें : ऐसा कहना है, ऐसा कथन है.
दास कबीर : कबीर साहेब जो परमात्मा के दास हैं.
कबीर साहेब की इस साखी में वे वाणी देते हैं की भले ही कोई धर्म नगरी काशी में रहे, शिव नगरी काशी में जो अपना घर बना ले और पवित्र गंगा, पाप नाशिनी गंगा जल को ग्रहण करते हैं. लेकिन फिर भी ऐसे व्यक्ति की मुक्ति संभव नहीं होती है.
भाव है हृदय से भक्ति करने पर ही मुक्ति संभव हो पाती है.अतः स्पष्ट है की हृदय से भक्ति के अभाव में मुक्ति मार्ग प्रशस्त नहीं होता है. जीवात्मा को आत्मिक रूप से भक्ति करनी चाहिए. यदि वह कर्मकांड, तीर्थ और दिखावे की ही भक्ति में यकीन रखता है तो भले ही वह स्वंय को खुश कर ले लेकिन भक्ति मार्ग पर आगे बढना संभव नहीं होता है.
भले ही कोई काशी में रहे और पाप नाशिनी गंगा में रोज स्नान करे लेकिन उसे इश्वर की प्राप्ति संभव नहीं होती है. इश्वर की प्राप्ति आंतरिक है, बाह्य नहीं होती है. अतः हृदय से इश्वर की भक्ति करने पर ही मुक्ति संभव होती है.
भाव है हृदय से भक्ति करने पर ही मुक्ति संभव हो पाती है.अतः स्पष्ट है की हृदय से भक्ति के अभाव में मुक्ति मार्ग प्रशस्त नहीं होता है. जीवात्मा को आत्मिक रूप से भक्ति करनी चाहिए. यदि वह कर्मकांड, तीर्थ और दिखावे की ही भक्ति में यकीन रखता है तो भले ही वह स्वंय को खुश कर ले लेकिन भक्ति मार्ग पर आगे बढना संभव नहीं होता है.
भले ही कोई काशी में रहे और पाप नाशिनी गंगा में रोज स्नान करे लेकिन उसे इश्वर की प्राप्ति संभव नहीं होती है. इश्वर की प्राप्ति आंतरिक है, बाह्य नहीं होती है. अतः हृदय से इश्वर की भक्ति करने पर ही मुक्ति संभव होती है.
दोहा/साखी श्रेणी : कबीर के दोहे हिंदी मीनिंग