कबीर मन फूल्या फिरै करता हूँ मैं ध्रंम मीनिंग Kabir Man Phulya Pheere Meaning Kabir Dohe Hindi Meaning, Kabir Ke Dohe Hindi Meaning (Hindi Arth/Hindi Bhavarth)
कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं ध्रंम।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रंम॥
Kabir Man Phulya Phire, Karata Hu Main Dhram.
Koti Kram Sire Le Chalya, Chet Na Dekhe Bhram.
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रंम॥
Kabir Man Phulya Phire, Karata Hu Main Dhram.
Koti Kram Sire Le Chalya, Chet Na Dekhe Bhram.
कबीर मन फूल्या फिरै : कबीर साहेब कहते हैं की मन गर्व में फुला फिरता है.
करता हूँ मैं ध्रंम : की मैं धर्म, दान पुन्य करता हूँ.
कोटि क्रम सिरि ले चल्या : करोड़ों करम, दुष्कर्म का फल अपने सर पर ले चला.
चेत न देखै भ्रंम : चेत कर ज्ञान प्राप्त को और देखो की तुम किस भ्रम में हो.
मन फूल्या फिरै : मन में विचार कर, गर्व के कारण फुला फिरता है.
करता हूँ : मैं करता हूँ.
मैं ध्रंम : मैं धर्म करता हूँ.
कोटि क्रम : करोड़ों कर्म.
सिरि ले चल्या : सर पर लादकर ले जाता है.
चेत न देखै : चेतकर यह नहीं देखता है.
भ्रंम : भ्रम और शंका का पात्र बनता है.
करता हूँ मैं ध्रंम : की मैं धर्म, दान पुन्य करता हूँ.
कोटि क्रम सिरि ले चल्या : करोड़ों करम, दुष्कर्म का फल अपने सर पर ले चला.
चेत न देखै भ्रंम : चेत कर ज्ञान प्राप्त को और देखो की तुम किस भ्रम में हो.
मन फूल्या फिरै : मन में विचार कर, गर्व के कारण फुला फिरता है.
करता हूँ : मैं करता हूँ.
मैं ध्रंम : मैं धर्म करता हूँ.
कोटि क्रम : करोड़ों कर्म.
सिरि ले चल्या : सर पर लादकर ले जाता है.
चेत न देखै : चेतकर यह नहीं देखता है.
भ्रंम : भ्रम और शंका का पात्र बनता है.
कबीर साहेब की वाणी है की जीवात्मा व्यर्थ ही मन में गर्व करती है और अभिमान में चूर होकर फिरती है की उसने कितने धर्म कर दिए हैं, उसने कितने धार्मिक कार्य किए हैं. लेकिन कबीर साहेब यह स्पष्ट कर चुके हैं की कर्मकांड और बाह्य भक्ति से जीव का कल्याण नहीं होने वाला है. यह सब मिथ्या है. इस प्रकार से वह अज्ञान में रहकर, इसी भ्रम में पड़ा रहता है और अंत समय में अपने सर पर करोंड़ों पाप कर्मों का फल लादकर ले जाता है.
बाह्य और कर्मकांड रूपी भक्ति को कबीर साहेब ने स्वीकार नहीं किया है और इसे आडम्बर और दिखावे की भक्ति कहा है. यह हृदय से नहीं की जाती है. कबीर साहेब के अनुसार भक्ति सहज होती है जिसमें किसी बाह्य आडम्बर की कोई आवश्यकता नहीं होती है.
बाह्य और कर्मकांड रूपी भक्ति को कबीर साहेब ने स्वीकार नहीं किया है और इसे आडम्बर और दिखावे की भक्ति कहा है. यह हृदय से नहीं की जाती है. कबीर साहेब के अनुसार भक्ति सहज होती है जिसमें किसी बाह्य आडम्बर की कोई आवश्यकता नहीं होती है.
Kabir Doha/ Kabir Sakhiश्रेणी : कबीर के दोहे हिंदी मीनिंग