भगवान श्री अजितनाथ जैन धर्म के द्वितीय तीर्थंकर थे। भगवान श्री अजितनाथ जी का जन्म अयोध्या के राज परिवार में हुआ था। भगवान श्री अजितनाथ जी का जन्म माघ माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को हुआ था। भगवान श्री अजितनाथ जी के पिता का नाम जितशत्रु और माता का नाम विजया देवी था। भगवान श्री अजितनाथ जी का प्रतीक चिन्ह हाथी है। भगवान श्री अजितनाथ जी ने माघ माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को दीक्षा प्राप्त की। दीक्षा प्राप्ति के पश्चात 12 वर्षों तक कठोर परिश्रम कर भगवान श्री अजित नाथ जी ने कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति की। जैन धर्म के अनुसार चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि के दिन सम्मेद शिखर पर भगवान श्री अजितनाथ जी को निर्वाण प्राप्त हुआ। भगवान श्री अजितनाथ जी का चालीसा पाठ करने से सभी सुखों की प्राप्ति होती है और रोग दोष दूर होते हैं। भगवान श्री अजितनाथ चालीसा का पाठ करने से सभी कार्य सफल होते हैं और हर क्षेत्र में विजय प्राप्त होती है।
दोहा अष्टकर्म को नाशकर, बने सिद्ध भगवान, उनके चरणों मे करू, शत-शत बार प्रणाम। पुन: सरस्वति मात को, ज्ञानप्राप्ति के हेतु, नमन करू सिर नाय के, श्रद्धा भक्ति समेत। अजितनाथ भगवान ने, जीते विषय-कषाय, उनकी गुणगाथा कहू, पद अजेय मिल जाय। चौपाई जीत लिया इन्द्रिय विषयों को, नमन करू उन अजितप्रभू को। गर्भ में आने के छह महिने, पहले से ही रत्न बरसते। श्री-ह्री आदि देवियां आती, सेवा करती जिनमाता की। तीर्थ अयोध्या की महारानी, माता विजया धन्य कहाई। उनने देखे सोलह सपने, ज्येष्ठ कृष्ण मावस की तिथि मे। प्रात: पति श्री जितशत्रू से, उन स्वप्नों के फल पूछे थे। वे बोले-तुम त्रिभुवनपति की, जननी होकर पूज्य बनोगी। माता विजया अति प्रसन्न थी, जीवन सार्थक समझ रही थी। नौ महिने के बाद भव्यजन, माघ शुक्ल दशमी तिथि उत्तम। अजितनाथ तीर्थंकर जन्मे, स्वर्ण सदृश वे चमक रहे थे। प्रभु के लिए वस्त्र-आभूषण, स्वर्ग से ही आते हैं प्रतिदिन। भोजन भी स्वर्गों से आता, इन्द्र सदा सेवा में रहता। प्रभु अनेक सुख भोग रहे थे, राज्यकार्य को देख रहे थे। इक दिन उल्कापात देखकर, हो गए वैरागी वे प्रभुवर। वह तिथि माघ शुक्ल नवमी थी, नम: सिद्ध कह दीक्षा ले ली। इक हजार राजा भी संग में, नग्न दिगम्बर मुनी बन गए। वे मुनि घोर तपस्या करते, जंगल-पर्वत-वन-उपवन में। दीक्षा के पश्चात् सुनो तुम, मौन ही रहते तीर्थंकर प्रभु। दिव्यध्वनि में खिरती वाणी, जो जन-जन की है कल्याणी। अजितनाथ तीर्थंकर प्रभु जी, शुद्धात्मा में पूर्ण लीन थे। ध्यान अग्नि के द्वारा तब ही, जला दिया कर्मों को झट ही। पौष शुक्ल ग्यारस तिथि आई, प्रभु ने ज्ञानज्योति प्रगटाई। उस आनन्द का क्या ही कहना, जहां नष्ट है कर्मघातिया। वे प्रभु अन्तर्यामी बन गए, ज्ञानानन्द स्वभावी हो गए। धर्मामृत वर्षा के द्वारा, प्रभु ने किया जगत उद्धारा। बहुत काल तक समवसरण मे, भव्यों को सम्बोधित करते। पुन: चैत्र शुक्ला पंचमि को, प्रभु ने पाया पंचमगति को। पंचकल्याणक के स्वामी वे, पंचभ्रमण से छूट गए अब। हाथी चिन्ह सहित प्रभुवर की, ऊँचाई अठरह सौ कर है। इन प्रभुवर को हम नित वंदे, पाप नष्ट हो जाए जिससे। अजितनाथ की टोंक अयोध्या में, निर्मित है मंदिर भैया। उसमें प्रतिमा अति मनहारी, शोभ रही हैं प्यारी-प्यारी। गणिनी ज्ञानमती माता की, प्रबल प्रेरणा प्राप्त हुई है। वर्षो से इच्छा थी उनकी, इच्छा पूरी हुई मात की। अजितनाथ तीर्थंकर प्रभु की,
जितनी भक्ति करें कम ही है। हे प्रभु मुझको ऐसा वर दो, तन में कोई रोग नहीं हो। क्योंकी नीरोगी तन से ही, अधिक साधना हो संयम की। संयम इक अनमोल रतन है, मिलता है बहुतेक जतन से। इससे कभी न डरना तुम भी, इसको धारण करना इक दिन। यही भाव निशदिन करने से, तिरे 'सारिका' भवसमुद्र से। सोरठा जो अजितनाथ तीर्थंकर का, चालीसा चालिस बार पढ़े। वे हर कार्यों में सदा-सदा ही, शीघ्र विजयश्री प्राप्त करे। चारित्रचन्द्रिका गणिनी, ज्ञानमती माता की शिष्या है। प्रज्ञाश्रमणी चन्दनामती, माता की मिली प्रेरणा है। यद्यपि अति अल्पबुद्धि फिर भी, गुरु आज्ञा शिरोधार्य करके। लिख दिया समझ में जो आया, विद्वज्जन त्रुटि सुधार कर ले। इस चालीसा को पढ़ने से, इक दिन कर्मों को जीत सके। शाश्वत सुख की हो प्राप्ती, भव्यों को ऐसा पुण्य मिले।
भगवान श्री अजितनाथ जी
श्री आदिनाथ को शीश नवाकर, माता सरस्वती को ध्याय। शुरु करुँ श्री अजितनाथ का, चालीसा स्व-पर सुखदाय॥
जय श्री अजितनाथ जिनराज। पावन चिह्न धरें ‘गजराज’॥ नगर अयोध्या करते राज। जितशत्रु नामक महाराज॥
विजयसेना उनकी महारानी। देखें सोलह स्वप्न ललामी॥ दिव्य विमान विजय से चयकर। जननी उदर बसे प्रभु आकर॥
शुक्ला दशमी माघ मास की। जन्म जयन्ती अजित नाथ की॥ इन्द्र प्रभु को शीशधार कर। गए सुमेरु हर्षित होकर॥
नीर क्षीर सागर से लाकर। न्हवन करें भक्ति में भरकर॥ वस्त्राभूषण दिव्य पहनाए। वापस लौट अयोध्या आए॥
अजितनाथ की शोभा न्यारी। वर्ण स्वर्ण सम कान्तिधारी॥ बीता बचपन जब हितकारी। हुआ ब्याह तब मंगलकारी॥
कर्मबन्ध नहीं हो भोगों में। अन्तर्दृष्टि थी योगों में॥ चंचल चपला देवी नभ में। हुआ वैराग्य निरन्तर मन में॥
राजपाट निज सुत को देकर। हुए दिगम्बर दीक्षा लेकर॥ छ: दिन बाद हुआ आहार। करें श्रेष्ठि ब्रह्मा सत्कार॥
किये पंच अचरज देवों ने। पुण्योपार्जन किया सभी ने॥ बारह वर्ष तपस्या कीनी। दिव्यज्ञान की सिद्धि नवीनी॥
धनपति ने इन्द्राज्ञा पाकर। रच दिया समोशरण हर्षाकर॥ सभा विशाल लगी जिनवर की। दिव्यध्वनि खिरती प्रभुवर की॥
वाद – विवाद मिटाने हेतु। अनेकान्त का बाँधा सेतु॥ हैं सापेक्ष यहाँ सब तत्व। अन्योन्याश्रित है उन सत्व॥
Chalisa Lyrics in Hindi,Jain Bhajan Lyrics Hindi
सब जीवों में हैं जो आतम। वे भी हो सकते शुद्धात्म॥ ध्यान अग्नि का ताप मिले जब। केवल ज्ञान की ज्योति जले तब॥
मोक्ष मार्ग तो बहुत सरल है। लेकिन राही हुए विरल हैं॥ हीरा तो सब ले नहीं पावें। सब्जी-भाजी भीड़ धरावें॥
दिव्यध्वनि सुन कर जिनवर की। खिली कली जन-जन के मन की॥ प्राप्ति कर सम्यग्दर्शन की। बगिया महकी भव्य जनों की॥
हिंसक पशु भी समता धारें। जन्म-जन्म का बैर निवारें॥ पूर्ण प्रभावना हुई धर्म की। भावना शुद्ध हुई भविजन की॥
दूर-दूर तक हुआ विहार। सदाचार का हुआ प्रचार॥ एक माह की उम्र रही जब। गए शिखर सम्मेद प्रभु तब॥
अखण्ड मौन मुद्रा की धारण। कर्म अघाति हेतु निवारण॥ शुक्ल ध्यान का हुआ प्रताप। लोक शिखर पर पहुँचे आप॥
‘सिद्धवर कूट’ की भारी महिमा। गाते सब प्रभु की गुण-गरिमा॥
विजित किए श्री अजित ने, अष्ट कर्म बलवान। निहित आत्मगुण अमित हैं, ‘अरुणा’ सुख की खान॥
Bhagwan Shri Ajitnath Mantra/Jaap Hindi
ॐ ह्रीं अर्हं श्री अजितनाथाय नमः
श्री अजितनाथ आरती
श्री अजितनाथ तीर्थंकर जिन की आरति करो रे। श्री अजितनाथ तीर्थंकर जिन की आरति करो रे। आरति करो, आरति करो, आरति करो रे, श्री अजितनाथ तीर्थंकर जिन की आरति करो रे।।टेक.।।
नगरि अयोध्या धन्य हो गयी, जहाँ प्रभू ने जन्म लिया, माघ सुदी दशमी तिथि थी, इन्द्रों ने जन्मकल्याण किया। आरति करो, आरति करो, आरति करो रे, जितशत्रु पिता, विजयानन्दन की आरति करो रे।। श्री अजितनाथ तीर्थंकर जिन की आरति करो रे।
हाथी चिन्ह सहित तीर्थंकर, स्वर्ण वर्ण के धारी हैं, माघ सुदी नवमी को प्रभु ने, जिनदीक्षा स्वीकारी है। आरति करो, आरति करो, आरति करो रे, केवलज्ञानी तीर्थंकर प्रभु की आरति करो रे।। श्री अजितनाथ तीर्थंकर जिन की आरति करो रे।
चैत्र सुदी पंचमी तिथी थी, गिरि सम्मेद से मुक्त हुए, पाई शाश्वत् सिद्धगती, उन परम जिनेश्वर को प्रणमें। आरति करो, आरति करो, आरति करो रे, उन सिद्धशिला के स्वामी प्रभु की आरति करो रे।। श्री अजितनाथ तीर्थंकर जिन की आरति करो रे।
सुर नर मुनिगण भक्ति-भाव से, निशदिन ध्यान लगाते हैं, कर्म शृंखला अपनी काटें, परम श्रेष्ठ पद पाते हैं। आरति करो, आरति करो, आरति करो रे, चंदनामती शिवपद आशा ले, आरति करो रे।। श्री अजितनाथ तीर्थंकर जिन की आरति करो रे।
श्री अजित प्रभु आरती
जय श्री अजित प्रभु, स्वामी जय श्री अजित प्रभु । कष्ट निवारक जिनवर, तारनहार प्रभु ॥
पिता तुम्हारे जितशत्रू और, माँ विजया रानी । स्वामी माँ विजया रानी, माघ शुक्ल दशमी को जन्मे, त्रिभुवन के स्वामी स्वामी जय श्री अजित प्रभु, स्वामी जय श्री अजित प्रभु । कष्ट निवारक जिनवर, तारनहार प्रभु ॥
उल्कापात देख कर प्रभु जी, धार वैराग्य लिया । स्वामी धार वैराग्य लिया । गिरी सम्मेद शिखर पर, प्रभु ने पद निर्वाण लिया ॥
स्वामी जय श्री अजित प्रभु, स्वामी जय श्री अजित प्रभु । कष्ट निवारक जिनवर, तारनहार प्रभु ॥
यमुना नदी के तीर बटेश्वर, अतिशय अति भारी । स्वामी अतिशय अति भारी । दिव्य शक्ति से आई प्रतिमा, दर्शन सुखकारी ॥ स्वामी जय श्री अजित प्रभु, स्वामी जय श्री अजित प्रभु । कष्ट निवारक जिनवर, तारनहार प्रभु ॥
प्रतिमा खंडित करने को जब, शत्रु प्रहार किया । स्वामी शत्रु प्रहार किया । बही ढूध की धार प्रभु ने, अतिशय दिखलाया ॥ स्वामी जय श्री अजित प्रभु, स्वामी जय श्री अजित प्रभु । कष्ट निवारक जिनवर, तारनहार प्रभु ॥
बड़ी ही मन भावन हैं प्रतिमा, अजित जिनेश्वर की । स्वामी अजित जिनेश्वर की । मंवांचित फल पाया जाता, दर्शन करे जो भी ॥ स्वामी जय श्री अजित प्रभु, स्वामी जय श्री अजित प्रभु । कष्ट निवारक जिनवर, तारनहार प्रभु ॥
जगमग दीप जलाओ सब मिल, प्रभु के चरनन में । स्वामी प्रभु के चरनन में । पाप कटेंगे जनम जनम के, मुक्ति मिले क्षण में ॥ स्वामी जय श्री अजित प्रभु, स्वामी जय श्री अजित प्रभु । कष्ट निवारक जिनवर, तारनहार प्रभु ॥
जल फल सब सज्जे बाजत बज्जे, गुन गन रज्जे मन मज्जे, तुअ पद जुग मज्जे सज्जन जज्जे, ते भव भज्जे निजकज्जे. श्री अजित जिनेशं नुत नाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं, मनवाँछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजूँ ख्याता जग्गेशं. ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
जेठ असेत अमावसि सोहे, गर्भ दिना नंद सो मन मोहे, इंद फनिंद जजें मन लार्इ, हम पद पूजत अर्घ चढ़ार्इ. ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्ण अमावस्यायां गर्भमंगल प्राप्ताय श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
माघ सुदी दशमी दिन जाये, त्रिभुवन में अति हरष बढ़ाये, इंद फनिंद जजें तित आर्इ, हम इत सेवत हैं हुलसार्इ. ॐ ह्रीं माघशुक्ल दशमीदिने जन्मंगल प्राप्ताय श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
पुनि वंदि इंद्र सुनुति करंत, तुम हो जग में जयवंत संत, फिर तुम विहार करि धर्मवृष्टि, सब जोग निरोध्यो परम इष्ट,१४|
जय अजित कृपाला, गुणमणिमाला, संजमशाला बोधपति, वर सुजस उजाला, हीर हिमाला, ते अधिकाला स्वच्छ अती,
जो जन अजित जिनेश, जजें हैं मन वच कार्इ। ताको होय अनन्द, ज्ञान सम्पति सुखदार्इ।। पुत्र मित्र धन धान्य, सुजस त्रिभुवनमहँ छावे। सकल शत्रु छय जाय, अनुक्रम सों शिव पावे।।१७ || इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।