बाबा मत संख बजावै पुजू तेरे पाँव रे
बाबा मत संख बजावै,
पुजू तेरे पाँव रे,
पालना में सोवे मेरो,
जग जायगो लाल रै,
पालना में सोवे मेरो,
जग जायगो लाल रै।
धन और दौलत हमें ना चाहिए,
एक लालसा लाया हूँ,
तेरे लाला के दर्शन करने,
बड़ी दूर से आया हूँ,
बड़ी दूर से आया हूँ,
मैं बड़ी दूर से आया हूँ,
भिक्षा माँगे सन्यासी,
मैं हूँ पर्वत कैलाशी,
ये गोकुल सौ गाँव रै।
पालना में सोवे तेरो,
जग जायगो लाल रै,
पालना में सोवे तेरो,
जग जायगो लाल रै।
तू तो बाबा दर्शन करके,
अपनी गैल पकड़ जायेगो,
तेरे रूप को देखकर के,
मेरो कन्हैया डर जायेगो,
बातन को फंदा डारे,
डरपे गो देख तुम्हारे,
ये कारे कारे नाग रे।
पालना में सोवे मेरो,
जग जायगो लाल रै,
पालना में सोवे मेरो,
जग जायगो लाल रै।
धरनो देउँ रमा देउँ धूणी,
पूरण कर दे आशा को,
बिन दर्शन किये लाला के,
ना जाऊँ कैलाशा को,
बाबा ने धरनों दीनों,
मोहन ने नाटक कीन्हों,
दर्शन जी भर कर लीन्हों,
ये सोच मैं तमाम रै।
पालना में सोवे मेरो,
जग जायगो लाल रै,
पालना में सोवे मेरो,
जग जायगो लाल रै।
पुजू तेरे पाँव रे,
पालना में सोवे मेरो,
जग जायगो लाल रै,
पालना में सोवे मेरो,
जग जायगो लाल रै।
धन और दौलत हमें ना चाहिए,
एक लालसा लाया हूँ,
तेरे लाला के दर्शन करने,
बड़ी दूर से आया हूँ,
बड़ी दूर से आया हूँ,
मैं बड़ी दूर से आया हूँ,
भिक्षा माँगे सन्यासी,
मैं हूँ पर्वत कैलाशी,
ये गोकुल सौ गाँव रै।
पालना में सोवे तेरो,
जग जायगो लाल रै,
पालना में सोवे तेरो,
जग जायगो लाल रै।
तू तो बाबा दर्शन करके,
अपनी गैल पकड़ जायेगो,
तेरे रूप को देखकर के,
मेरो कन्हैया डर जायेगो,
बातन को फंदा डारे,
डरपे गो देख तुम्हारे,
ये कारे कारे नाग रे।
पालना में सोवे मेरो,
जग जायगो लाल रै,
पालना में सोवे मेरो,
जग जायगो लाल रै।
धरनो देउँ रमा देउँ धूणी,
पूरण कर दे आशा को,
बिन दर्शन किये लाला के,
ना जाऊँ कैलाशा को,
बाबा ने धरनों दीनों,
मोहन ने नाटक कीन्हों,
दर्शन जी भर कर लीन्हों,
ये सोच मैं तमाम रै।
पालना में सोवे मेरो,
जग जायगो लाल रै,
पालना में सोवे मेरो,
जग जायगो लाल रै।
बाबा मत शंख बजावै पूजू तेरे पाँव रे // आचार्य राजकृष्ण जी महाराज
श्रीकृष्णजी के प्रति भक्ति का ऐसा गहरा रंग है कि भक्त का मन उनकी एक झलक के लिए बेकरार रहता है। माँ यशोदा की तरह भक्त भी उनके लाल को पालने में सुलाकर, उनके जागने की चिंता करता है। ये प्रेम इतना निश्छल है कि दुनिया की दौलत इसके सामने फीकी पड़ जाती है। दूर-दूर से भक्त उनके दर्शन को आता है, जैसे कोई तीर्थयात्री पवित्र स्थान की ओर खिंचा चला जाए। न धन चाहिए, न दौलत, बस उनके लाला की एक झलक की लालसा ही सारी थकान मिटा देती है।
ये भक्ति का वो जज्बा है, जो कैलाश के सन्यासी को भी गोकुल खींच लाता है। भक्त की आंखें श्रीकृष्णजी के रूप में खो जाना चाहती हैं, पर साथ ही डर भी है कि कहीं उनका नन्हा लाल उसकी सूरत से घबरा न जाए। ये प्रेम और भय का मिश्रण उस माँ जैसे मन को दिखाता है, जो अपने बच्चे की हर छोटी बात की फिक्र करती है। बिना दर्शन के भक्त का मन अधूरा रहता है, जैसे कोई प्यासा बिना पानी के रह जाए। वो धरना दे, प्रार्थना करे, बस यही चाहता है कि उसकी आशा पूरी हो। और जब श्रीकृष्णजी की कृपा बरसती है, तो भक्त का मन जी भरकर उनकी छवि में डूब जाता है, जैसे कोई तमाम रातों की प्रतीक्षा के बाद सुबह का उजाला पा ले।
श्री कृष्ण, जिन्हें भगवान विष्णु के अवतार के रूप में पूजा जाता है, का जीवन और चरित्र अनेक शिक्षाओं से भरा है। उनके स्वरूप में सबसे महत्वपूर्ण प्रतीकों में से एक उनकी बांसुरी है। यह बांसुरी केवल एक वाद्य यंत्र नहीं है, बल्कि यह गहन आध्यात्मिक अर्थों से भरी हुई है।
एक साधक की दृष्टि से, यह बांसुरी हमें बहुत कुछ सिखाती है। जब कृष्ण अपनी बांसुरी बजाते थे, तो गोपियाँ, पशु-पक्षी, और पूरा ब्रज मंडल मंत्रमुग्ध हो जाता था। यह इस बात का प्रतीक है कि जब हम अपने अहंकार को खाली कर देते हैं, ठीक वैसे ही जैसे एक बांसुरी अंदर से खोखली होती है, तभी हममें से दिव्य संगीत प्रवाहित हो सकता है। बांसुरी में कोई गांठ नहीं होती, वह बिल्कुल सीधी और खाली होती है। यही अवस्था साधक की होती है—जब वह अपनी इच्छाओं और वासनाओं से मुक्त होकर, ईश्वर के हाथ में एक उपकरण बन जाता है।
बांसुरी का संगीत प्रेम, माधुर्य, और आनंद का प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि जीवन में सच्चा आनंद बाहरी वस्तुओं में नहीं, बल्कि आंतरिक शांति और ईश्वर के साथ हमारे संबंध में है। कृष्ण की बांसुरी की धुन हमें सांसारिक मोह से ऊपर उठकर, प्रेम और भक्ति के मार्ग पर चलने का आह्वान करती है। यह बताती है कि जिस तरह बांसुरी की धुन सुनने के लिए सब कुछ रुक जाता था, उसी तरह हमें भी अपने मन को शांत करके, ईश्वर की पुकार को सुनना चाहिए।
यह बांसुरी हमें एक और गहरा संदेश देती है: समर्पण का। कृष्ण अपनी बांसुरी को हमेशा अपने होठों से लगाए रखते थे। यह दर्शाता है कि हमें भी अपनी सारी चेतना और ऊर्जा को ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए। जिस क्षण हम पूर्ण समर्पण करते हैं, तभी हम अपने जीवन के संगीत को उसकी मधुरता के साथ सुन सकते हैं।
एक साधक की दृष्टि से, यह बांसुरी हमें बहुत कुछ सिखाती है। जब कृष्ण अपनी बांसुरी बजाते थे, तो गोपियाँ, पशु-पक्षी, और पूरा ब्रज मंडल मंत्रमुग्ध हो जाता था। यह इस बात का प्रतीक है कि जब हम अपने अहंकार को खाली कर देते हैं, ठीक वैसे ही जैसे एक बांसुरी अंदर से खोखली होती है, तभी हममें से दिव्य संगीत प्रवाहित हो सकता है। बांसुरी में कोई गांठ नहीं होती, वह बिल्कुल सीधी और खाली होती है। यही अवस्था साधक की होती है—जब वह अपनी इच्छाओं और वासनाओं से मुक्त होकर, ईश्वर के हाथ में एक उपकरण बन जाता है।
बांसुरी का संगीत प्रेम, माधुर्य, और आनंद का प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि जीवन में सच्चा आनंद बाहरी वस्तुओं में नहीं, बल्कि आंतरिक शांति और ईश्वर के साथ हमारे संबंध में है। कृष्ण की बांसुरी की धुन हमें सांसारिक मोह से ऊपर उठकर, प्रेम और भक्ति के मार्ग पर चलने का आह्वान करती है। यह बताती है कि जिस तरह बांसुरी की धुन सुनने के लिए सब कुछ रुक जाता था, उसी तरह हमें भी अपने मन को शांत करके, ईश्वर की पुकार को सुनना चाहिए।
यह बांसुरी हमें एक और गहरा संदेश देती है: समर्पण का। कृष्ण अपनी बांसुरी को हमेशा अपने होठों से लगाए रखते थे। यह दर्शाता है कि हमें भी अपनी सारी चेतना और ऊर्जा को ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए। जिस क्षण हम पूर्ण समर्पण करते हैं, तभी हम अपने जीवन के संगीत को उसकी मधुरता के साथ सुन सकते हैं।
