मोरे सतगुरू के दरबार भजन


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मोरे सतगुरू के दरबार भजन

साखी- गगन मंडल के बीच मे, और जहा सोहंगम डोर |
अरे शब्द अनहद होत है, जहा सुरती है  मोर।
भजन - मोरे सतगुरू के दरबार झूला अब बांधिया  रे मेरे भाई

अगम अपसरे झूला बंधियां निर्भे डोर लगाई संतो रे भाई।
सहेज सहेज सब झूलन लागा, झूला तो दिया रे चढ़ाई।

आवत झूला जावत झूला , झूला शब्द सुनावे संतो रे  भाई
सुन्न सहज में साहब पाया, रूप रेखा रे नही छाव ।

नाभी कमल से झूला चढ़िया आरा उराध के माई संतो रे भाई ।
 बाहर से तो देवे झकोला , अष्ट कमल दल माई

गुरु रामानंद जी झूलन लागा सुनसीखर गढ़ माई संतो रे भाई।
साहब कबीर यू करे विनती, मोहे भी ले वो रे चढ़ाई।
 



मोरे सतगुरू के दरबार || More satguru ke darbar ||Kabir Bhajan||Geeta Parag ||Sas Bahu ||
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