शीश गंग अर्धांग पार्वती भजन लिरिक्स Sheesh Gang Ardhang Parwati Lyrics
यह भजन शिवजी की महिमा और महात्म्य को व्यक्त करता है। इसमें शिवजी को शीश गंग अर्धांग पार्वती के रूप में स्तुति की गई है, जो सदा कैलास पर विराजमान हैं। भजन में उनकी महानता, पवित्रता और देवताओं के द्वारा उनकी सेवा का वर्णन किया गया है। इसके अलावा यह भजन शिवजी के ध्यान की महत्वपूर्णता, उनकी कृपा के बारे में और उनकी उपास्यता के लिए प्रेरित करता है। इस भजन के माध्यम से भक्त शिवजी की भक्ति को अनुभव करते हैं और उनकी शरण में आने की प्रार्थना करते हैं।
सदा विराजते कैलासी।
नंदी भृंगी नृत्य करते हैं,
धरती ध्यान सुर सुखरासी॥
शीतल, मंद, सुगंधित पवन,
बह बैठे हैं शिव अविनाशी।
करते गान-गंधर्व सप्त स्वर,
राग रागिनी मधुरासी॥
यक्ष-रक्ष-भैरव जहाँ डोलते,
बोलते हैं वनके वासी।
कोयल शब्द सुनावते सुंदर,
भ्रमर करते हैं गुंजासी॥
कल्पद्रुम और पारिजात तरु,
लग रहे हैं लक्षासी।
कामधेनु कोटि जहाँ डोलते,
करते दूध की वर्षा-सी॥
सूर्यकांत सम पर्वत शोभित,
चंद्रकांत सम हिमराशी।
नित्य छहों ऋतु रहते सुशोभित,
सेवते सदा प्रकृति दासी॥
ऋषि, मुनि, देव, दानव नित सेवते,
गान करते श्रुति गुणराशी।
ब्रह्मा, विष्णु निहारते निसदिन,
कोई शिव हमकूँ फरमासी॥
ऋद्धि-सिद्धि के दाता शंकर,
नित सत् चित् आनंदराशी।
जिनके सुमिरति ही कट जाती,
कठिन काल यमकी फाँसी॥
त्रिशूलधारी का नाम निरंतर,
प्रेम सहित जो नर गासी।
दूर होय विपदा उस नर की,
जन्म-जन्म शिवपद पासी॥
कैलासी, काशी के वासी,
विनाशी मेरी सुध लीजो।
सेवक जान सदा चरनन को,
अपनो जान कृपा कीजो॥
तुम तो प्रभुजी सदा दयामय,
अवगुण मेरे सब ढकियो।
सब अपराध क्षमाकर शंकर,
किंकर की विनती सुनियो॥
शीश गंग, अर्धांग पार्वती,
सदा विराजते कैलासी।
नंदी भृंगी नृत्य करते हैं,
धरती ध्यान सुर सुखरासी॥
शीश गंग अर्धांग पार्वती भजन लिरिक्स Sheesh Gang Ardhang Parwati Lyrics
शीश गंग, अर्धांग पार्वती,सदा विराजते कैलासी।
नंदी भृंगी नृत्य करते हैं,
धरती ध्यान सुर सुखरासी॥
शीतल, मंद, सुगंधित पवन,
बह बैठे हैं शिव अविनाशी।
करते गान-गंधर्व सप्त स्वर,
राग रागिनी मधुरासी॥
यक्ष-रक्ष-भैरव जहाँ डोलते,
बोलते हैं वनके वासी।
कोयल शब्द सुनावते सुंदर,
भ्रमर करते हैं गुंजासी॥
कल्पद्रुम और पारिजात तरु,
लग रहे हैं लक्षासी।
कामधेनु कोटि जहाँ डोलते,
करते दूध की वर्षा-सी॥
सूर्यकांत सम पर्वत शोभित,
चंद्रकांत सम हिमराशी।
नित्य छहों ऋतु रहते सुशोभित,
सेवते सदा प्रकृति दासी॥
ऋषि, मुनि, देव, दानव नित सेवते,
गान करते श्रुति गुणराशी।
ब्रह्मा, विष्णु निहारते निसदिन,
कोई शिव हमकूँ फरमासी॥
ऋद्धि-सिद्धि के दाता शंकर,
नित सत् चित् आनंदराशी।
जिनके सुमिरति ही कट जाती,
कठिन काल यमकी फाँसी॥
त्रिशूलधारी का नाम निरंतर,
प्रेम सहित जो नर गासी।
दूर होय विपदा उस नर की,
जन्म-जन्म शिवपद पासी॥
कैलासी, काशी के वासी,
विनाशी मेरी सुध लीजो।
सेवक जान सदा चरनन को,
अपनो जान कृपा कीजो॥
तुम तो प्रभुजी सदा दयामय,
अवगुण मेरे सब ढकियो।
सब अपराध क्षमाकर शंकर,
किंकर की विनती सुनियो॥
शीश गंग, अर्धांग पार्वती,
सदा विराजते कैलासी।
नंदी भृंगी नृत्य करते हैं,
धरती ध्यान सुर सुखरासी॥