श्री हित हरिवंश महाप्रभु जी का चरित्र Shri Hit Harivansh Mahaprabhu Lyrics
परिचय
राधावल्लभ संप्रदाय के गोस्वामी,
श्री हित रूपलाल जी ने,
अपने सहचरी वपु से,
श्री श्यामा श्याम की,
एक लीला का दर्शन किया,
जिसे वे स्वयं वर्णन कर रहे है।
व्यासनंदन व्यासनंदन,
व्यासनंदन गाइये,
जाको हित नाम लेत,
दम्पति रति पाइये।
रास मध्य ललितादिक,
प्रार्थना जू किन्हीं,
कर ते सुकुमारी प्यारी,
वंशी तब दीन्हीं।
सोइ कलि प्रगट रूप,
वंशी वपु धार्यौ,
कुञ्ज भवन रास रवन,
त्रिभुवन विस्तार्यौ।
गोकुल रावल सु ठाम,
बाद निकट राजे,
विदित प्रेमरासि जनम,
रसिकन हित काजे।
तिनको पिय नाम सहित,
मन्त्र दियौ श्री राधे,
सत-चित-आनंद रूप,
निगम अगम साधे।
श्री वृन्दावन धाम तरणि,
जासु तीर वासी,
श्री राधापति रति अनन्य,
करत नित खवासी।
अद्भुत हरि जू को वंश,
भनत नाम श्यामा,
जय श्री रूपलाल हित चित,
दै पायौ विश्रामा।
श्री हित रूपलाल जी
श्री श्यामाश्याम की नित्य निभृत,
निकुंज लीला का रस,
अनवरत बरस रहा है।
एक समय श्री श्यामा जू की,
प्रधान सखी श्री ललिता जू ने,
विचार किया की यह दिव्य मधुर रस,
धरा धाम पर मनुष्य मात्र के,
लिए कैसे सुलभ हो।
ऐसा विचार कर श्री ललिता जू ने,
महारास के मध्य श्री स्वामिनी जू की,
ओर प्रार्थनामयि दृष्टि से देखा।
श्री श्यामा जू ने श्री श्यामसुंदर की ओर,
मधुर चितवन भरी दृष्टि से देखा,
तो श्री श्यामसुंदर श्री श्यामा जू के,
ह्रदय की बात समझ गए,
और प्रेमरस रसास्वादन कराने वाली,
अपनी वंशी को श्री श्यामा जू के कर,
कमलों के दे दिया।
प्यारी जू ने वंशी को ललिता जू को दिया,
और कहा हे ललिते आप और ये वंशी,
दोनों मिलकर हमारे नित्य विहार रस,
को प्रकाशित करो।
प्यारी जू की वह वंशी,
श्री हित हरिवंश महाप्रभु के रूप में,
ब्रज मंडल में श्री राधारानी के ग्राम,
रावल के निकट बाद ग्राम में प्रकट हुई,
और तीनो लोकों में इस,
दिव्य मधुर नित्य विहार रस का,
विस्तार किया।
श्री ललिता जू श्री स्वामी हरिदास जू के,
रूप में वृन्दावन के राजपुर,
ग्राम में प्रकट हुए।
भूमिका
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में,
एक ग्राम है देववन,
जहाँ श्री तपन मिश्र के पुत्र,
ज्योतिष के परम विद्वान्,
यजुर्वेदीय कश्यप गोत्रीय,
गौड़ ब्राह्मण श्री व्यास मिश्र जी,
निवास करते थे।
व्यास मिश्र उस समय के प्रसिद्ध,
ज्योतिषी थे और इस विद्या के द्वारा,
उन्होंने प्रचुर संपत्ति प्राप्ति की थी।
धीरे-धीरे उनकी ख्याति तत्कालीन,
पृथ्वीपति के कानों तक पहुँची,
और उसने बहुत आदर सहित,
व्यास मिश्र को बुला भेजा।
व्यास मिश्र बादशाह से,
चार श्रीफल लेकर मिले।
बादशाह उनसे बातचीत करके,
उनके गुणों पर मुग्ध हो गया,
और उनको चार हजारी की निधि,
देकर सदैव अपने साथ रखने लगा।
व्यास मिश्र की समृद्धि का,
अब कोई ठिकाना नहीं रहा,
और वे राजसी ठाठ बाठ से रहने लगे।
व्यास मिश्र के पूर्ण सुखी जीवन में,
एक ही प्रबल अभाव था।
वे निस्संतान थे।
इस अभाव के कारण वे एवं,
उनकी पत्नी तारारानी सदैव,
उदास रहते थे।
व्यास मिश्र वृंदावन जी बारह भाई थे,
जिनमें एक नृसिंहाश्रम जी विरक्त थे।
नृसिंहाश्रम जी उच्चकोटि के भक्त थे,
एवं लोक में उनकी सिद्धता की,
अनेक कथायें प्रचलित थीं।
विरक्त होते हुए भी इनका व्यास जी,
से स्नेह था और कभी कभी यह उनसे,
मिलने आया करते थे।
एक बार मिश्र दंपति को समृद्धि में भी,
उदास देख कर उन्होंने,
इसका कारण पूछा।
व्यास मिश्र ने अपनी संतान,
हीनता को उदासी का कारण बताया,
और नृसिंहाश्रम जी के सामने,
परम भागवत रसिक अनन्य,
पुत्र प्राप्त करने की अपनी तीव्र,
अभिलाषा प्रगट की।
नृसिंहाश्रम जी ने उत्तर दिया,
भाई तुम तो स्वयं ज्योतिषी हो,
तुमको अपने जन्माक्षरों से अपने,
भाग्य की गति को,
समझ लेना चाहिये,
और संतोष पूर्ण,
जीवनयापन करना चाहिये।
यह सुनकर व्यास मित्र तो चुप हो गए,
किन्तु उनकी पत्नी ने दृढ़ता पूर्वक पूछा,
यदि सब कुछ भाग्य का ही किया होता है,
यदि विधि का बनाया विधान ही सत्य है,
तो इसमें आपकी महिमा क्या रही।
इस बार नृसिंहाश्रम जी उत्तर न दे सके,
और विचारमग्न होकर वहां से चले गये।
एकान्त वन में जाकर उन्होंने,
अपने इष्ट का आराधन किया,
और उनसे व्यास मिश्र की,
मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना की,
रात्रि को स्वप्न में प्रभु ने,
उनको सन्देश दिया कि,
तुम्हारे सत्संकल्प को पूर्ण करने के लिये,
स्वयं हरि अपनी वंशी सहित व्यास मिश्र,
के घर में प्रगट होंगे।
नृसिंहाश्रम जी ने यह सन्देश व्यास,
मिश्र को सुना दिया और,
इसको सुनकर मिश्र दम्पति के,
आनन्द का ठिकाना नही रहा।
जन्म
बादशाह व्यास मिश्र जी को,
सर्वत्र अपने साथ तो रखता ही था।
श्री हित हरिवंश के जन्म के समय,
भी व्यास मिश्र अपनी पत्नी सहित,
बादशाह के साथ थे,
और ब्रजभूमि में ठहरे थे।
वहीं मथुरा से 5 मील दूर बाद,
नामक ग्राम में वैशाख शुक्ला एकादशी,
सोमवार सम्वत 1559 में,
अरुणोदय काल में,
श्री हित हरिवंश का जन्म हुआ।
महापुरुषों के साथ साधारणतया,
जो मांगलिकता संसार में प्रगट होती है,
वह श्री हित हरिवंश के जन्म,
के साथ भी हुई और सब लोगों में,
अनायास धार्मिक रुचि,
पारस्परिक प्रीति एवं सुख-शान्ति,
का संचार हो गया।
बृज के वन हरे भरे हो गए,
लताओं में पुष्प खिलने लगे,
सूखे सरोवर जल से भर गए,
वातावरण में सुगन्धि व्याप्त हो गयी,
आकाश में बिजली चमकने लगी,
हल्की हल्की बारिश की बूंदे गिरने लगी,
वातावरण सुहावना हो गया,
बृजवासियों के हृदय,
अकस्मात ही प्रेम एवं हर्ष से भर गए,
पक्षीगण मधुर कलरव करने लगे,
मोर नृत्य करने लगे।
राधावल्लभ संप्रदाय के गोस्वामी,
श्री हित रूपलाल जी ने,
अपने सहचरी वपु से,
श्री श्यामा श्याम की,
एक लीला का दर्शन किया,
जिसे वे स्वयं वर्णन कर रहे है।
व्यासनंदन व्यासनंदन,
व्यासनंदन गाइये,
जाको हित नाम लेत,
दम्पति रति पाइये।
रास मध्य ललितादिक,
प्रार्थना जू किन्हीं,
कर ते सुकुमारी प्यारी,
वंशी तब दीन्हीं।
सोइ कलि प्रगट रूप,
वंशी वपु धार्यौ,
कुञ्ज भवन रास रवन,
त्रिभुवन विस्तार्यौ।
गोकुल रावल सु ठाम,
बाद निकट राजे,
विदित प्रेमरासि जनम,
रसिकन हित काजे।
तिनको पिय नाम सहित,
मन्त्र दियौ श्री राधे,
सत-चित-आनंद रूप,
निगम अगम साधे।
श्री वृन्दावन धाम तरणि,
जासु तीर वासी,
श्री राधापति रति अनन्य,
करत नित खवासी।
अद्भुत हरि जू को वंश,
भनत नाम श्यामा,
जय श्री रूपलाल हित चित,
दै पायौ विश्रामा।
श्री हित रूपलाल जी
श्री श्यामाश्याम की नित्य निभृत,
निकुंज लीला का रस,
अनवरत बरस रहा है।
एक समय श्री श्यामा जू की,
प्रधान सखी श्री ललिता जू ने,
विचार किया की यह दिव्य मधुर रस,
धरा धाम पर मनुष्य मात्र के,
लिए कैसे सुलभ हो।
ऐसा विचार कर श्री ललिता जू ने,
महारास के मध्य श्री स्वामिनी जू की,
ओर प्रार्थनामयि दृष्टि से देखा।
श्री श्यामा जू ने श्री श्यामसुंदर की ओर,
मधुर चितवन भरी दृष्टि से देखा,
तो श्री श्यामसुंदर श्री श्यामा जू के,
ह्रदय की बात समझ गए,
और प्रेमरस रसास्वादन कराने वाली,
अपनी वंशी को श्री श्यामा जू के कर,
कमलों के दे दिया।
प्यारी जू ने वंशी को ललिता जू को दिया,
और कहा हे ललिते आप और ये वंशी,
दोनों मिलकर हमारे नित्य विहार रस,
को प्रकाशित करो।
प्यारी जू की वह वंशी,
श्री हित हरिवंश महाप्रभु के रूप में,
ब्रज मंडल में श्री राधारानी के ग्राम,
रावल के निकट बाद ग्राम में प्रकट हुई,
और तीनो लोकों में इस,
दिव्य मधुर नित्य विहार रस का,
विस्तार किया।
श्री ललिता जू श्री स्वामी हरिदास जू के,
रूप में वृन्दावन के राजपुर,
ग्राम में प्रकट हुए।
भूमिका
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में,
एक ग्राम है देववन,
जहाँ श्री तपन मिश्र के पुत्र,
ज्योतिष के परम विद्वान्,
यजुर्वेदीय कश्यप गोत्रीय,
गौड़ ब्राह्मण श्री व्यास मिश्र जी,
निवास करते थे।
व्यास मिश्र उस समय के प्रसिद्ध,
ज्योतिषी थे और इस विद्या के द्वारा,
उन्होंने प्रचुर संपत्ति प्राप्ति की थी।
धीरे-धीरे उनकी ख्याति तत्कालीन,
पृथ्वीपति के कानों तक पहुँची,
और उसने बहुत आदर सहित,
व्यास मिश्र को बुला भेजा।
व्यास मिश्र बादशाह से,
चार श्रीफल लेकर मिले।
बादशाह उनसे बातचीत करके,
उनके गुणों पर मुग्ध हो गया,
और उनको चार हजारी की निधि,
देकर सदैव अपने साथ रखने लगा।
व्यास मिश्र की समृद्धि का,
अब कोई ठिकाना नहीं रहा,
और वे राजसी ठाठ बाठ से रहने लगे।
व्यास मिश्र के पूर्ण सुखी जीवन में,
एक ही प्रबल अभाव था।
वे निस्संतान थे।
इस अभाव के कारण वे एवं,
उनकी पत्नी तारारानी सदैव,
उदास रहते थे।
व्यास मिश्र वृंदावन जी बारह भाई थे,
जिनमें एक नृसिंहाश्रम जी विरक्त थे।
नृसिंहाश्रम जी उच्चकोटि के भक्त थे,
एवं लोक में उनकी सिद्धता की,
अनेक कथायें प्रचलित थीं।
विरक्त होते हुए भी इनका व्यास जी,
से स्नेह था और कभी कभी यह उनसे,
मिलने आया करते थे।
एक बार मिश्र दंपति को समृद्धि में भी,
उदास देख कर उन्होंने,
इसका कारण पूछा।
व्यास मिश्र ने अपनी संतान,
हीनता को उदासी का कारण बताया,
और नृसिंहाश्रम जी के सामने,
परम भागवत रसिक अनन्य,
पुत्र प्राप्त करने की अपनी तीव्र,
अभिलाषा प्रगट की।
नृसिंहाश्रम जी ने उत्तर दिया,
भाई तुम तो स्वयं ज्योतिषी हो,
तुमको अपने जन्माक्षरों से अपने,
भाग्य की गति को,
समझ लेना चाहिये,
और संतोष पूर्ण,
जीवनयापन करना चाहिये।
यह सुनकर व्यास मित्र तो चुप हो गए,
किन्तु उनकी पत्नी ने दृढ़ता पूर्वक पूछा,
यदि सब कुछ भाग्य का ही किया होता है,
यदि विधि का बनाया विधान ही सत्य है,
तो इसमें आपकी महिमा क्या रही।
इस बार नृसिंहाश्रम जी उत्तर न दे सके,
और विचारमग्न होकर वहां से चले गये।
एकान्त वन में जाकर उन्होंने,
अपने इष्ट का आराधन किया,
और उनसे व्यास मिश्र की,
मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना की,
रात्रि को स्वप्न में प्रभु ने,
उनको सन्देश दिया कि,
तुम्हारे सत्संकल्प को पूर्ण करने के लिये,
स्वयं हरि अपनी वंशी सहित व्यास मिश्र,
के घर में प्रगट होंगे।
नृसिंहाश्रम जी ने यह सन्देश व्यास,
मिश्र को सुना दिया और,
इसको सुनकर मिश्र दम्पति के,
आनन्द का ठिकाना नही रहा।
जन्म
बादशाह व्यास मिश्र जी को,
सर्वत्र अपने साथ तो रखता ही था।
श्री हित हरिवंश के जन्म के समय,
भी व्यास मिश्र अपनी पत्नी सहित,
बादशाह के साथ थे,
और ब्रजभूमि में ठहरे थे।
वहीं मथुरा से 5 मील दूर बाद,
नामक ग्राम में वैशाख शुक्ला एकादशी,
सोमवार सम्वत 1559 में,
अरुणोदय काल में,
श्री हित हरिवंश का जन्म हुआ।
महापुरुषों के साथ साधारणतया,
जो मांगलिकता संसार में प्रगट होती है,
वह श्री हित हरिवंश के जन्म,
के साथ भी हुई और सब लोगों में,
अनायास धार्मिक रुचि,
पारस्परिक प्रीति एवं सुख-शान्ति,
का संचार हो गया।
बृज के वन हरे भरे हो गए,
लताओं में पुष्प खिलने लगे,
सूखे सरोवर जल से भर गए,
वातावरण में सुगन्धि व्याप्त हो गयी,
आकाश में बिजली चमकने लगी,
हल्की हल्की बारिश की बूंदे गिरने लगी,
वातावरण सुहावना हो गया,
बृजवासियों के हृदय,
अकस्मात ही प्रेम एवं हर्ष से भर गए,
पक्षीगण मधुर कलरव करने लगे,
मोर नृत्य करने लगे।
।। श्री हित हरिवंश जी का श्री राधावल्लभ लाल से मिलन ।। श्री राजेन्द्र दास जी ।। बाद ग्राम ।।
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