छोरत ग्रंथि जानि खगराया उत्तर काण्ड
छोरत ग्रंथि जानि खगराया उत्तर काण्ड
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा।।
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा।।
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई।।
छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया।।
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई।।
कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा।।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा।।
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा।।
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई।।
छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया।।
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई।।
कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा।।
"मैं वही हूँ" का अखंड भाव दीपक की लौ की तरह प्रचंड और प्रकाशमान है। आत्मा का अनुभव सुख और प्रकाश देता है, जिससे संसार का मूल भ्रम और भेद मिट जाता है। अज्ञान का परिवार—मोह और अंधेरा—नष्ट हो जाता है। तब बुद्धि को प्रकाश मिलता है और हृदय में बैठी अज्ञान की गांठ खुल जाती है। यदि यह गांठ छूट जाए, तो जीव कृतार्थ हो जाता है। पर जब गांठ खुलने लगती है, माया इसे जानकर कई बाधाएँ डालती है। वह धन-सिद्धि भेजकर लालच दिखाती है और छल-बल से बुद्धि को भटकाती है, जैसे हवा का झोंका दीपक को बुझाने की कोशिश करता है।
होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।।
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी।।
इंद्रीं द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना।।
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देही कपाट उघारी।।
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई।।
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा।।
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई।।
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी।।
दो0-तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस।।118(क)।।
कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक।।118(ख)।।
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी।।
इंद्रीं द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना।।
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देही कपाट उघारी।।
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई।।
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा।।
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई।।
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी।।
दो0-तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस।।118(क)।।
कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक।।118(ख)।।
यदि बुद्धि बहुत समझदार हो जाए, तो वह माया की हानिकारक चालों को देखती है। पर अगर माया की बाधाएँ बुद्धि को रोक न पाएँ, तो देवता (इंद्रियाँ) उपद्रव करते हैं। इंद्रियाँ शरीर के झरोखों पर पहरा देती हैं और विषयों की हवा आने पर दरवाजे खोल देती हैं। जब यह हवा हृदय में पहुँचती है, तो ज्ञान का दीपक बुझ जाता है। अज्ञान की गांठ नहीं खुलती, प्रकाश मिटता है और बुद्धि विषयों की हवा से भटक जाती है। इंद्रियों और देवताओं को ज्ञान पसंद नहीं, वे हमेशा विषय भोग में रमे रहते हैं। विषयों की हवा बुद्धि को भ्रमित करती है और ज्ञान का दीपक बार-बार बुझ जाता है। तब जीव फिर संसार के कष्टों में फँस जाता है। हरि की माया बहुत कठिन है, जिसे पार करना गरुड़ के लिए भी मुश्किल है। यह बात कहना, समझना और साधना करना कठिन है, खासकर जब बाधाएँ बहुत हों, जैसे घुन का छेद करना।
ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा।।
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई।।
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद।।
राम भजत सोइ मुकुति गोसाई। अनइच्छित आवइ बरिआई।।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई।।
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई।।
अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने।।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा।।
भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी।।
असि हरिभगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई।।
दो0-सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि।।119(क)।।
जो चेतन कहँ ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य।।119(ख)।।
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई।।
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद।।
राम भजत सोइ मुकुति गोसाई। अनइच्छित आवइ बरिआई।।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई।।
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई।।
अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने।।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा।।
भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी।।
असि हरिभगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई।।
दो0-सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि।।119(क)।।
जो चेतन कहँ ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य।।119(ख)।।
ज्ञान का रास्ता तलवार की धार जैसा है, जिस पर चलते हुए गरुड़ जैसे को भी देर नहीं लगती। जो बिना रुकावट इस मार्ग पर चलता है, वह कैवल्य, यानी परम मुक्ति पाता है। यह परम पद बहुत दुर्लभ है, जैसा संत, पुराण और वेद कहते हैं। राम को भजने से ही यह मुक्ति बिना इच्छा के मिल जाती है। जैसे जमीन बिना पानी के नहीं रह सकती, वैसे ही मोक्ष का सुख हरि भक्ति के बिना नहीं रह सकता। समझदार भक्त इसे जानकर मुक्ति को कम आँकते हैं और भक्ति में लीन रहते हैं। भक्ति से बिना मेहनत के संसार का मूल अज्ञान नष्ट हो जाता है। जैसे भोजन से तृप्ति के लिए जठराग्नि उसे पचाती है, वैसे ही हरि भक्ति आसान और सुखदायी है—ऐसा कौन मूर्ख है जिसे यह पसंद न हो? बिना सेवक और सेवा के भाव के संसार नहीं तरता, इसलिए राम के चरणों को भजो, यही सिद्धांत है। जो जड़ को चेतन और चेतन को जड़ कर सकता है, ऐसे समर्थ रघुनाथ को भजने वाले जीव धन्य हैं।
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई।।
राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर।।
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा।।
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई।।
खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं।।
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई।।
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी।।
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें।।
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं।।
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई।।
सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटमेरे।।
पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना।।
राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर।।
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा।।
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई।।
खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं।।
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई।।
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी।।
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें।।
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं।।
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई।।
सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटमेरे।।
पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना।।
मैंने ज्ञान का सिद्धांत समझाया, अब भक्ति रूपी मणि की महानता सुनो। राम भक्ति चिंतामणि की तरह सुंदर है, जो गरुड़ जैसे के हृदय में बसती है। यह दिन-रात प्रकाश देती है, इसे न दीपक चाहिए, न तेल, न बाती। मोह और दरिद्रता इसके पास नहीं आते, लोभ इसे बुझा नहीं सकता। यह प्रबल अज्ञान के अंधेरे को मिटाती है और पतंगों जैसे दोषों को हरा देती है। काम, क्रोध जैसे दुष्ट इसके पास नहीं फटकते, जहाँ यह भक्ति हृदय में बसती है। यह विष को अमृत और शत्रु को मित्र बना देती है, इसके बिना सुख नहीं मिलता। मानसिक रोग, जो जीवों को दुखी करते हैं, इसके प्रभाव से नहीं फैलते। जिसके हृदय में यह मणि है, उसे सपने में भी दुख नहीं छूता। वही लोग चतुर और श्रेष्ठ हैं, जो इस मणि के लिए अच्छे कर्म करते हैं। यह मणि संसार में मौजूद है, पर राम की कृपा बिना कोई इसे नहीं पाता। इसे पाने का रास्ता आसान है, पर अभागे लोग भटकते रहते हैं। पवित्र पर्वत, वेद, पुराण और राम की सुंदर कथाएँ इसका आधार हैं।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी।।
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी।।
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।।
राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा।।
सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई।।
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा।।
दो0-ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं।।120(क)।।
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि।।120(ख)।।
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी।।
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।।
राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा।।
सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई।।
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा।।
दो0-ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं।।120(क)।।
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि।।120(ख)।।
जो संत और समझदार लोग गहरे भाव से खोजते हैं, जिनके पास ज्ञान और वैराग्य रूपी आँखें हैं, वे भक्ति रूपी मणि पाते हैं, जो सारे सुखों की खान है। मेरे मन का विश्वास है कि राम से बढ़कर उनके दास हैं। राम सागर हैं, संत बादल हैं; राम चंदन के पेड़ हैं, संत हवा हैं। हरि भक्ति ही सारे फलों का सार है, जो संतों के बिना नहीं मिलती। जो यह समझकर संतों का संग करता है, उसे राम भक्ति आसानी से मिल जाती है। ब्रह्म रूपी समुद्र में ज्ञान मंदराचल है, संत देवता हैं, जो कथा रूपी अमृत मथकर भक्ति की मिठास निकालते हैं। वैराग्य ढाल है, ज्ञान तलवार है, जो लोभ-मोह जैसे शत्रुओं को मारकर हरि भक्ति की जीत दिलाती है—इसे विचार कर देखो, गरुड़।
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ।।
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न कहहु बखानी।।
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा।।
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी।।
संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु।।
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला।।
मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई।।
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती।।
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।
नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर।।
काँच किरिच बदलें ते लेही। कर ते डारि परस मनि देहीं।।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया।।
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न कहहु बखानी।।
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा।।
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी।।
संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु।।
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला।।
मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई।।
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती।।
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।
नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर।।
काँच किरिच बदलें ते लेही। कर ते डारि परस मनि देहीं।।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया।।
गरुड़ ने प्रेम से कहा कि यदि आपकी मुझ पर कृपा है और आप मुझे अपना सेवक मानते हैं, तो मेरे सात सवालों के जवाब दें। पहला, सबसे दुर्लभ शरीर कौन सा है? दूसरा, सबसे बड़ा दुख और सुख क्या है? तीसरा, संत और असंत का स्वभाव बताएँ। चौथा, सबसे बड़ा पुण्य और पाप कौन सा है? पाँचवाँ, मानसिक रोग क्या हैं? आप सर्वज्ञ हैं, कृपा करें। जवाब में कहा गया कि मनुष्य शरीर सबसे दुर्लभ है, जिसे सभी जीव चाहते हैं, क्योंकि यह स्वर्ग, मोक्ष, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति की सीढ़ी है। जो इस शरीर में हरि को नहीं भजते और विषयों में डूबे रहते हैं, वे काँच के बदले पारस मणि को ठुकराते हैं। संसार में दरिद्रता से बड़ा दुख और संतों के मिलन से बड़ा सुख कुछ नहीं। संतों का स्वभाव सहज रूप से मन, वचन और शरीर से दूसरों का भला करना है।
संत सहहिं दुख परहित लागी। परदुख हेतु असंत अभागी।।
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। परहित निति सह बिपति बिसाला।।
सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई।।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी।।
पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं।।
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।।
संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी।।
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा।।
हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्त्र पाव तन सोई।।
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि।।
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी।।
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। परहित निति सह बिपति बिसाला।।
सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई।।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी।।
पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं।।
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।।
संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी।।
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा।।
हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्त्र पाव तन सोई।।
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि।।
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी।।
संत दूसरों के हित के लिए दुख सहते हैं, जबकि असंत दूसरों को दुख देने के लिए अभागे हैं। संत भोजपत्र के पेड़ जैसे हैं, जो परहित के लिए बड़ी विपत्ति सहते हैं, पर असंत सन जैसे हैं, जो दूसरों को बाँधते हैं और खाल की तरह कष्ट सहकर मरते हैं। असंत बिना स्वार्थ के दूसरों का नुकसान करते हैं, जैसे साँप और चूहा। वे दूसरों की संपत्ति नष्ट करते हैं, जैसे चंद्रमा को हरने वाली ओस की बूँदें पिघल जाती हैं। दुष्ट का उदय दुनिया के लिए कष्ट देता है, जैसे नीच ग्रह केतु, पर संत का उदय सदा सुख देता है, जैसे चंद्रमा अंधेरे को हरता है। सबसे बड़ा धर्म अहिंसा है और दूसरों की निंदा सबसे बड़ा पाप। हरि और गुरु की निंदा करने वाला सहस्र जन्म तक मेंढक बनता है, ब्राह्मण निंदक नरक भोगकर कौआ बनता है, और देवता-वेद निंदक अभिमानी रौरव नरक में गिरते हैं।
होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत।।
सब के निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं।।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा।।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई।।
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना।।
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।
अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी।।
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका।।
दो0-एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि।।121(क)।।
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान।।121(ख)।।l
सब के निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं।।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा।।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई।।
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना।।
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।
अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी।।
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका।।
दो0-एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि।।121(क)।।
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान।।121(ख)।।l
Singer :- Bijender Chauhan
Music :- Bijender Chauhan
Lyricist: Traditional
यह भजन भी देखिये
Music :- Bijender Chauhan
Lyricist: Traditional
यह भजन भी देखिये
संतों की निंदा करने वाले उल्लू बनते हैं, जो अज्ञान की रात में रमते हैं और ज्ञान रूपी सूरज से दूर रहते हैं। जो सबकी निंदा करते हैं, वे चमगादड़ बनकर जन्म लेते हैं। अब मानसिक रोग सुनो, जो सबको दुख देते हैं। मोह सारे रोगों की जड़ है, जिससे कई कष्ट पैदा होते हैं। काम वात है, लोभ अपार कफ है, क्रोध पित्त है जो सीने को जलाता है। यदि ये तीनों मिल जाएँ, तो सन्निपात नामक भयंकर रोग होता है। विषयों की इच्छाएँ अनगिनत दुखदायी सूल हैं। ममता खुजली है, ईर्ष्या चर्म रोग है, दूसरों का सुख देखकर जलन कुष्ठ है, और दुष्टता मन की कुटिलता है। अहंकार दर्दनाक ढोल है, दंभ, कपट, मद और मान आलस्य हैं। तृष्णा पेट की सूजन है, तीनों ईर्ष्याएँ तेज बुखार हैं। मत्सर और अज्ञान दो तरह के ज्वर हैं। ऐसे अनगिनत बुरे रोग हैं। एक रोग से लोग मर जाते हैं, पर ये असाध्य रोग जीव को हमेशा पीड़ित करते हैं, तो वह शांति कैसे पाए? नियम, धर्म, तप, ज्ञान, जप, दान जैसे करोड़ों उपाय भी हरि के बिना इन रोगों को नहीं मिटाते।