सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा।।
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा।।
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई।।
छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया।।
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई।।
कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा।।
होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।।
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी।।
इंद्रीं द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना।।
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देही कपाट उघारी।।
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई।।
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा।।
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई।।
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी।।
दो0-तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस।।118(क)।।
कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक।।118(ख)।।
–*–*–
ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा।।
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई।।
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद।।
राम भजत सोइ मुकुति गोसाई। अनइच्छित आवइ बरिआई।।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई।।
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई।।
अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने।।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा।।
भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी।।
असि हरिभगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई।।
दो0-सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि।।119(क)।।
जो चेतन कहँ ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य।।119(ख)।।
–*–*–
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई।।
राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर।।
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा।।
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई।।
खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं।।
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई।।
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी।।
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें।।
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं।।
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई।।
सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटमेरे।।
पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना।।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी।।
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी।।
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।।
राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा।।
सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई।।
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा।।
दो0-ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं।।120(क)।।
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि।।120(ख)।।
–*–*–
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ।।
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न कहहु बखानी।।
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा।।
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी।।
संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु।।
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला।।
मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई।।
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती।।
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।
नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर।।
काँच किरिच बदलें ते लेही। कर ते डारि परस मनि देहीं।।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया।।
संत सहहिं दुख परहित लागी। परदुख हेतु असंत अभागी।।
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। परहित निति सह बिपति बिसाला।।
सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई।।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी।।
पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं।।
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।।
संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी।।
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा।।
हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्त्र पाव तन सोई।।
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि।।
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी।।
होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत।।
सब के निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं।।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा।।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई।।
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना।।
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।
अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी।।
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका।।
दो0-एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि।।121(क)।।
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान।।121(ख)।।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा।।
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा।।
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई।।
छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया।।
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई।।
कल बल छल करि जाहिं समीपा। अंचल बात बुझावहिं दीपा।।
होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।।
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी।।
इंद्रीं द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना।।
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देही कपाट उघारी।।
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई।।
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा।।
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई।।
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी।।
दो0-तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस।।118(क)।।
कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक।।118(ख)।।
–*–*–
ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा।।
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई।।
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। संत पुरान निगम आगम बद।।
राम भजत सोइ मुकुति गोसाई। अनइच्छित आवइ बरिआई।।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कोउ करै उपाई।।
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई।।
अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने।।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा।।
भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी।।
असि हरिभगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई।।
दो0-सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि।।119(क)।।
जो चेतन कहँ ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य।।119(ख)।।
–*–*–
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई।।
राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर।।
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा।।
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई।।
खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं।।
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई।।
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी।।
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें।।
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं।।
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई।।
सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटमेरे।।
पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना।।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी।।
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी।।
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।।
राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा।।
सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई।।
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा।।
दो0-ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं।।120(क)।।
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि।।120(ख)।।
–*–*–
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ।।
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न कहहु बखानी।।
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा।।
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी।।
संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु।।
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला।।
मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई।।
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती।।
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।
नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर।।
काँच किरिच बदलें ते लेही। कर ते डारि परस मनि देहीं।।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया।।
संत सहहिं दुख परहित लागी। परदुख हेतु असंत अभागी।।
भूर्ज तरू सम संत कृपाला। परहित निति सह बिपति बिसाला।।
सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई।।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी।।
पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं।।
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।।
संत उदय संतत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी।।
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा।।
हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्त्र पाव तन सोई।।
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि।।
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी।।
होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत।।
सब के निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं।।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा।।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई।।
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना।।
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।
अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी।।
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका।।
दो0-एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि।।121(क)।।
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान।।121(ख)।।
उत्तर कांड : रामायण का अंतिम भाग यानि उत्तरकाण्ड में कुल एक सौ ग्यारह सर्ग तथा तीन हजार चार सौ बत्तीस श्लोकों से युक्त है । उत्तरकाण्ड में रावण के पितामह, रावण के पराक्रम की चर्चा, सीता का पूर्वजन्म, देवी वेदवती को रावण का श्राप, रावण-बालि का युद्ध, सीता का त्याग, सीता का वाल्मीकि आश्रम में आगमन, लवणासुर वध, अश्वमेध यज्ञ का वर्णन भी विस्तार से किया गया है।
उत्तरकाण्ड में ही शिव-पार्वती के बीच हुए एक सुन्दर संवाद का भी सुन्दर तरीके से वर्णन है। उत्तरकाण्ड की महिमा के बारे में बृहद्धर्मपुराण में वर्णित है की उत्तरकाण्ड का पाठ करने से आनंदमय जीवन व सुखद यात्रा के लिए किया जाता है। रामायण का सार है उत्तरकाण्ड। उत्तर कांड में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के सभी लक्षणों का वर्णन किया गया है। उत्तरकाण्ड राम कथा का उपसंहार है। इसमें वर्णित है की सीता, लक्ष्मण और समस्त वानर सेना के साथ राम अयोध्या वापस पहुँचे। राम का अयोध्या में भव्य स्वागत हुआ, भरत के साथ सर्वजनों में आनन्द व्याप्त हो गया। वेदों और शिव की स्तुति के साथ राम का राज्याभिषेक समारोह हुआ। वानरों की विदाई दी गई। राम ने प्रजा को उपदेश दिया और प्रजा ने कृतज्ञता प्रकट की। चारों भाइयों के दो दो पुत्र हुये तथा रामराज्य एक आदर्श बन गया। उत्तर कांड में निम्न घटनाओं का विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है।
- सर्वप्रथा मंगलाचरण।
- भरत विरह तथा भरत-हनुमान मिलन, अयोध्या में आनंद और उत्सव।
- अयोध्या में श्री राम का स्वागत, श्री राम का भरत से मिलाप।
- श्री राम का राज्याभिषेक, वेदस्तुति और शिवस्तुति
- अयोध्या से वानरों की और निषाद की विदाई
- अयोध्या में रामराज्य का वर्णन
- श्री राम को पुत्रोत्पति, अयोध्याजी की रमणीयता, सनकादिका आगमन और संवाद।
- हनुमान्जी के द्वारा भरत का प्रश्न और श्री रामजी का उनको उपदेश।
- श्री राम के द्वारा प्रजा को दिया गया उपदेश (श्री रामगीता), पुरवासियों की कृतज्ञता
- श्री राम-वशिष्ठ संवाद, श्री रामजी का भाइयों सहित अमराई में जाना
- नारदजी का आना और स्तुति करके ब्रह्मलोक को लौट जाना
- शिव-पार्वती संवाद, गरुड़ मोह, गरुड़जी का काकभुशुण्डि से रामकथा और राम महिमा सुनना
- काकभुशुण्डि का अपनी पूर्व जन्म कथा और कलि महिमा कहना
- गुरुजी का अपमान एवं शिवजी के शाप की बात सुनना
- रुद्राष्टक
- गुरुजी का शिवजी से अपराध क्षमापन, शापानुग्रह और काकभुशुण्डि की आगे की कथा
- काकभुशुण्डिजी का लोमशजी के पास जाना और शाप तथा अनुग्रह पाना
- ज्ञान-भक्ति-निरुपण, ज्ञान-दीपक और भक्ति की महान् महिमा
- गरुड़जी के सात प्रश्न तथा काकभुशुण्डि के उत्तर
- भजन महिमा
- रामायण माहात्म्य, तुलसी विनय और फलस्तुति
- रामायणजी की आरती
तुलसीदास का जीवन परिचय :
तुलसीदास ने रामचरितमानस के लिए जाने जाते हैं। तुलसीदास जी भक्ति काल के सगुण भक्ति धारा राम भक्ति खा के प्रमुख कवि थे। रामचरितमानस महाकवि तुलसीदास के द्वारा ही लिखा गया है। ऐसा माना जाता है कि तुलसीदास का जन्म 1532 मैं (अभुक्ता मूल नक्षत्र) हुआ था तुलसीदास का जन्म राजापुरा बांदा उत्तर प्रदेश में हुआ था और उस समय मुगलों का राज था। अकबर उस समय के शासक थे। तुलसी दास जी जन्म के समय पहला शब्द उनके मुँह से राम निकला था।
मूल रूप से तुलसीदास सूर्यपरिन ब्राह्मण थे तुलसीदास जी के माता का नाम हुलसी और पिता का नाम आत्माराम शुक्ला था।बचपन से ही तुलसीदास जी का मन में राम भक्ति में लगता था। कुछ लोग तुलसीदास जी को वाल्मीकि का पुनर्जन्म मानते है तुलसीदास को भक्तों समाज सुधारक और कभी तीनों रूपों में जाना जाता है
मान्यता है की तुलसीदास जी ने बचपन में ही घर त्याग दिया और नरहरि ने उन्हें गोद ले लिया जहाँ उनके सानिध्य में शुरुआती शिक्षा प्राप्त की। उनके गुरु का नाम नरहरि (नरहर्यानंद ) था जो की रामशैल के रहने वाले थे। नरहरि ने ही उनका नाम तुलसीदास रखा। अयोध्या में यज्ञोपती संस्कार के बाद उन्होंने तुलसीदास को शास्त्र और वेदों की विधिवत शिक्षा दी।
तुलसीदास बाल्य काल से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उन्होंने बचपन में ही संस्कृत सीख ली और चारों वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। तुलसीदास ने काशी में वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। तुलसीदास जी ने लगभग १५७४ के आस पास लेखन कार्य शुरू किया। उनकी बहुत सी रचनाये हैं जिनमे राम चरित मानस सर्वाधिक लोक प्रिय है। राम चरित मानस में चौपाई के माध्यम से भगवान् श्री राम की महिमा और चरित्र का विस्तार से वर्णन है। श्री राम चरित मानस तत्व ज्ञानियों के लिए ही नहीं अपितु आम जन तक अपनी पहुंच बना पाया।