एहि कर होइ परम कल्याना उत्तर काण्ड
एहि कर होइ परम कल्याना। सोइ करहु अब कृपानिधाना।।
बिप्रगिरा सुनि परहित सानी। एवमस्तु इति भइ नभबानी।।
जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्ह कोप करि सापा।।
तदपि तुम्हार साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी।।
छमासील जे पर उपकारी। ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी।।
मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि। जन्म सहस अवस्य यह पाइहि।।
जनमत मरत दुसह दुख होई। अहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई।।
कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना। सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना।।
कागभुसुंडि से कहा गया कि इससे परम कल्याण होगा, अब वही करो, हे कृपानिधान। ब्राह्मण की बात सुनकर, जो दूसरों के हित में थी, आकाशवाणी हुई, "ऐसा ही हो।" हालाँकि इसने भयंकर पाप किया और मैंने क्रोध में शाप दिया, पर इसकी साधुता देखकर मैं इस पर विशेष कृपा करूँगा। जो क्षमाशील और परोपकारी हैं, वे ब्राह्मण मुझे राम की तरह प्रिय हैं। मेरा शाप व्यर्थ नहीं जाएगा, यह सहस्र जन्म तक कौआ का शरीर पाएगा। जन्म-मृत्यु में दुख होगा, पर उसे थोड़ा भी नहीं सताएगा। किसी जन्म में इसका ज्ञान नहीं मिटेगा, यह मेरा सत्य वचन सुन, हे शूद्र।
रघुपति पुरीं जन्म तब भयऊ। पुनि तैं मम सेवाँ मन दयऊ।।
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें। राम भगति उपजिहि उर तोरें।।
सुनु मम बचन सत्य अब भाई। हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई।।
अब जनि करहि बिप्र अपमाना। जानेहु संत अनंत समाना।।
इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला। कालदंड हरि चक्र कराला।।
जो इन्ह कर मारा नहिं मरई। बिप्रद्रोह पावक सो जरई।।
अस बिबेक राखेहु मन माहीं। तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं।।
औरउ एक आसिषा मोरी। अप्रतिहत गति होइहि तोरी।।
दो0-सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि।
मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि।।109(क)।।
प्रेरित काल बिधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल।
पुनि प्रयास बिनु सो तनु जजेउँ गएँ कछु काल।।109(ख)।।
जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान।
जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान।।109(ग)।।
सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस।
एहि बिधि धरेउँ बिबिध तनु ग्यान न गयउ खगेस।।109(घ)।।
तुम्हारा जन्म राम की नगरी में होगा और तुम्हारा मन मेरी सेवा में लगेगा। इस नगरी के प्रभाव और मेरी कृपा से तुम्हारे हृदय में राम भक्ति जगेगी। मेरे सत्य वचन सुनो—हरि की तुष्टि, व्रत और ब्राह्मण सेवा करो। अब ब्राह्मण का अपमान मत करना, उन्हें संतों के समान अनंत समझो। इंद्र का वज्र, मेरा त्रिशूल, काल का दंड और हरि का चक्र भी जिसे न मार सके, ब्राह्मण द्रोह का अग्नि उसे जला देता है। यह विवेक मन में रखो, तुम्हें संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा। एक और आशीर्वाद है कि तुम्हारी गति पर कोई रोक नहीं होगी। गुरु ने शिव के वचन सुनकर "ऐसा ही हो" कहा और मुझे समझाकर घर गए, मैंने शिव के चरण हृदय में रखे। काल और विधि की प्रेरणा से मैं साँप बना, फिर बिना प्रयास वह शरीर छूटा। जो शरीर धारण करता हूँ, उसे आसानी से छोड़ देता हूँ, जैसे पुराना कपड़ा छोड़कर नया पहनते हैं। शिव ने वेद की नीति रखी, मुझे क्लेश नहीं हुआ, इस तरह कई शरीर धरे, पर ज्ञान नहीं गया।
त्रिजग देव नर जोइ तनु धरउँ। तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ।।
एक सूल मोहि बिसर न काऊ। गुर कर कोमल सील सुभाऊ।।
चरम देह द्विज कै मैं पाई। सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई।।
खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला। करउँ सकल रघुनायक लीला।।
प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा। समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा।।
मन ते सकल बासना भागी। केवल राम चरन लय लागी।।
कहु खगेस अस कवन अभागी। खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी।।
प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई। हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई।।
भए कालबस जब पितु माता। मैं बन गयउँ भजन जनत्राता।।
जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ। आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ।।
बूझत तिन्हहि राम गुन गाहा। कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा।।
सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा। अब्याहत गति संभु प्रसादा।।
मैं तीनों लोकों में जो भी शरीर धारण करता हूँ, वहाँ राम भजन करता हूँ। एक बात कभी नहीं भूलती—गुरु का कोमल स्वभाव और शील। अंतिम शरीर में मुझे ब्राह्मण देह मिली, जो देवताओं को भी दुर्लभ है और वेद-पुराण गाते हैं। वहाँ बच्चों के साथ खेलता हूँ और रघुनाथ की सारी लीलाएँ करता हूँ। बड़ा होने पर पिता ने पढ़ाया, पर सुनता-समझता हूँ, फिर भी मन नहीं लगा। सारी इच्छाएँ मन से भाग गईं, केवल राम चरणों में मन रमा। ऐसा कौन अभागा होगा जो कामधेनु जैसी सेवा को छोड़े? प्रेम में डूबा हुआ कुछ अच्छा नहीं लगा, पिता हार गए और पढ़ाई छूट गई। जब माता-पिता काल के वश हुए, मैं वन में राम भजन करने लगा। जहाँ भी मुनियों को पाता, उनके आश्रम जाकर सिर झुकाता। उनसे राम के गुण पूछता, वे कहते, मैं सुनता और खुश होता। हरि के गुणों का बखान सुनते हुए फिरता हूँ, शिव के प्रसाद से मेरी गति अबाधित है।
छूटी त्रिबिध ईषना गाढ़ी। एक लालसा उर अति बाढ़ी।।
राम चरन बारिज जब देखौं। तब निज जन्म सफल करि लेखौं।।
जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई। ईस्वर सर्ब भूतमय अहई।।
निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई। सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई।।
दो0-गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग।
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग।।110(क)।।
मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन।।110(ख)।।
सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज।
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज।।110(ग)।।
तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान।
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान।।110(घ)।।
तीनों गहरी ईर्ष्याएँ (पुत्र, धन, यश) छूट गईं, पर हृदय में एक बड़ी लालसा बढ़ी कि राम के कमल चरण देखूँ तो अपना जन्म सफल मानूँ। जिस मुनि से पूछता हूँ, वह कहता है कि ईश्वर सबमें है। निर्गुण मत मुझे नहीं भाता, सगुण ब्रह्म के प्रति हृदय में प्रेम बढ़ता है। गुरु के वचन याद कर राम चरणों में मन लगाया, उनका यश गाता फिरता हूँ और हर पल नया प्रेम बढ़ता है। मेरु पर्वत की चोटी पर बट की छाया में मुनि लोमश बैठे थे, उनके चरण देखकर सिर झुकाया और बहुत विनम्रता से बोला। मेरे विनीत शब्द सुनकर कृपालु मुनि ने पूछा, हे ब्राह्मण, किस काम से आए? मैंने कहा, हे कृपानिधि, आप सर्वज्ञ हैं, मुझे सगुण ब्रह्म की भक्ति का उपाय बताएँ।
तब मुनिष रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा।।
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानि। मोहि परम अधिकारी जानी।।
लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वेत अगुन हृदयेसा।।
अकल अनीह अनाम अरुपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा।।
मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी।।
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहि बेदा।।
बिबिध भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा।।
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा।।
राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना।।
सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया।।
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा।।
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा।।
तब मैं निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी।।
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा।।
सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ।।
अति संघरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई।।
दो0–बारंबार सकोप मुनि करइ निरुपन ग्यान।
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिध अनुमान।।111(क)।।
क्रोध कि द्वेतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान।।111(ख)।।
कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें।।
परद्रोही की होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका।।
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें।।
काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी।।
भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक।।
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें।।
पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई।।
लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना।।
हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई।।
अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना।।
एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेस न सादर सुनऊँ।।
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा।।
मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि।।
सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही।।
सठ स्वपच्छ तब हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चंडाला।।
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई।।
दो0-तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ।
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ।।112(क)।।
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध।।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।।112(ख)।।
मुनि लोमश ने राम के गुण गाए, पर मुझे ज्ञान में अधिकारी मानकर निर्गुण ब्रह्म का उपदेश शुरू किया—वह अकल, अनाम, रूपहीन, अनुभव से जानने योग्य और सुख का भंडार है, जिसमें तुम और वह अलग नहीं, जैसे पानी में पानी। यह मुझे नहीं भाया, मैंने सिर झुकाकर सगुण भक्ति की बात कही। मेरा मन राम भक्ति रूपी जल में मछली है, उसे कैसे अलग करूँ? मैंने दया माँगते हुए कहा कि पहले राम को आँखों से देखूँ, फिर निर्गुण सुनूँ। मुनि ने हरि कथा कही, पर मैं सगुण पर अड़ा रहा। मेरे बार-बार जवाब से मुनि क्रोधित हुए। मैंने मन में सोचा—क्रोध बिना द्वैत के नहीं, द्वैत बिना अज्ञान के नहीं; क्या जीव और ईश्वर बराबर हैं? क्या दुख सबके हित के लिए है? क्या परद्रोही निश्चिंत रहते हैं? ऐसे कई सवाल उठे। मैंने मुनि का उपदेश ध्यान से नहीं सुना और सगुण पर जोर दिया। क्रोध में मुनि ने मुझे मूर्ख कहा और शाप दिया कि तू कौआ बन जा। मैंने शाप सिर पर लिया, बिना डर या दुख के। तुरंत कौआ बना, मुनि के चरणों में सिर झुकाया, राम को याद कर खुशी से उड़ चला। जो राम चरणों में रत हैं, वे क्रोध-मद से मुक्त होकर सबमें प्रभु देखते हैं, फिर विरोध किससे करें?