बाल कान्ड-21 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Bal Kand in Hindi तुलसी दास राम चरित मानस

 राम चरित मानस बाल कान्ड
तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में |
Ram Charit Manas Bal Kank in Hindi

सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई।।
होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा।।
मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा।।
मै कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें।।
बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें।।
सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे।।
करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने।।
बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही।।
दो0-मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।
भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस।।342।।
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बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई।।
जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई।।
सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें।।
जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं।।
सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी।।
कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई।।
चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई।।
रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी।।
दो0-बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।
अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत।।343।।û




हने निसान पनव बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे।।
झाँझि बिरव डिंडमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई।।
पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता।।
निज निज सुंदर सदन सँवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे।।
गलीं सकल अरगजाँ सिंचाई। जहँ तहँ चौकें चारु पुराई।।
बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना।।
सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला।।
लगे सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी।।
दो0-बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि।
सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि।।344।।
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भूप भवन तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा।।
मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई।।
जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ दसरथ गृहँ छाए।।
देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही।।
जुथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासनि।।
सकल सुमंगल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती।।
भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई।।
कौसल्यादि राम महतारीं। प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं।।
दो0-दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारी।
प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि।।345।।
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मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता।।
राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं।।
बिबिध बिधान बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्राँ साजे।।
हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला।।
अच्छत अंकुर लोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा।।
छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए।।
सगुन सुंगध न जाहिं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी।।
रचीं आरतीं बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना।।
दो0-कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।
चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात।।346।।
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धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ।।
सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं।।
मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे।।
प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि।।
दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा।।
सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी।।
समउ जानी गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा।।
सुमिरि संभु गिरजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा।।
दो0-होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदुभीं बजाइ।
बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ।।347।।




मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर।।
जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी।।
बिपुल बाजने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे।।
बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं।।
पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे।।
करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा।।
आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुँअर बर चारी।।
सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी।।
दो0-एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर।
मुदित मातु परुछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार।।348।।
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करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा।।
भूषन मनि पट नाना जाती।।करही निछावरि अगनित भाँती।।
बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानंद मगन महतारी।।
पुनि पुनि सीय राम छबि देखी।।मुदित सफल जग जीवन लेखी।।
सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही।।
बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा।।
देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीं।।
देत न बनहिं निपट लघु लागी। एकटक रहीं रूप अनुरागीं।।
दो0-निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत।
बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत।।349।।
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चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए।।
तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनित पखारे।।
धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि।।
बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं।।
बस्तु अनेक निछावर होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं।।
पावा परम तत्व जनु जोगीं। अमृत लहेउ जनु संतत रोगीं।।
जनम रंक जनु पारस पावा। अंधहि लोचन लाभु सुहावा।।
मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई।।
दो0-एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु।।
भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु।।350(क)।।
लोक रीत जननी करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।
मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसकाहिं।।350(ख)।।
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देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की।।
सबहिं बंदि मागहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना।।
अंतरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेंहीं।।
भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे।।
आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब निज निज धामहि।।
पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए।।
जाचक जन जाचहि जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई।।
सेवक सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना।।
दो0-देंहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।
तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ।।351।।
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जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही।।
भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी।।
पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए।।
आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे।।
बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा।।
कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी।।
भीतर भवन दीन्ह बर बासु। मन जोगवत रह नृप रनिवासू।।
पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी।।
दो0-बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।
पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु।।352।।




बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत संपदा राखि सब आगें।।
नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा।।
उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता।।
बिप्रबधू सब भूप बोलाई। चैल चारु भूषन पहिराई।।
बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं।।
नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरुप भूपमनि देहीं।।
प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने।।
देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू।।
दो0-चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ।
कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ।।353।।
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सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू।।
जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे।।
लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता।।
बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीं।।
देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें उर अनंद कियो बासू।।
कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि हरषु होत सब काहू।।
जनक राज गुन सीलु बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई।।
बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी।।
दो0-सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।
भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति।।354।।
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मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि।।
अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्त्रग सुगंध भूषित छबि छाए।।
रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई।।
प्रेम प्रमोद बिनोदु बढ़ाई। समउ समाजु मनोहरताई।।
कहि न सकहि सत सारद सेसू। बेद बिरंचि महेस गनेसू।।
सो मै कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी।।
नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाई रानी।।
बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई।।
दो0-लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।
अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ।।355।।
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भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए।।
सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना।।
उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्त्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं।।
रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा।।
सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए।।
अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही।।
देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता।।
मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी।।
दो0-घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु।।
मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु।।356।।
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मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी।।
मख रखवारी करि दुहुँ भाई। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाई।।
मुनितय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी।।
कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा।।
बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई।।
सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे।।
आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा।।
जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें।।
दो0-राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।
सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन।।357।।
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नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना।।
घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मंगल गारीं।।
पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी।।
सुंदर बधुन्ह सासु लै सोई। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोई।।
प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे।।
बंदि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए।।
बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता।।
जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति संग द्वार पगु धारे।।
दो0-कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।
प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ।।358।।
नवान्हपारायण,तीसरा विश्राम
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भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठै हरषि रजायसु पाई।।
देखि रामु सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी।।
पुनि बसिष्टु मुनि कौसिक आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए।।
सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे।।
कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा।।
मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी।।
बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची।।
सुनि आनंदु भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू।।
दो0-मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।
उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति।।359।।
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सुदिन सोधि कल कंकन छौरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे।।
नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं।।
बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं।।
दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ।।
मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे।।
नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी।।
करब सदा लरिकनः पर छोहू। दरसन देत रहब मुनि मोहू।।
अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी।।
दीन्ह असीस बिप्र बहु भाँती। चले न प्रीति रीति कहि जाती।।
रामु सप्रेम संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई।।
दो0-राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनंदु।
जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु।।360।।
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बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी।।
सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ।।
बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ।।
जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा।।
आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें।।
प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू।।
कबिकुल जीवनु पावन जानी।।राम सीय जसु मंगल खानी।।
तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी।।
छं0-निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसी कह्यो।
रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो।।
उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।
बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं।।
सो0-सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।361।।
मासपारायण, बारहवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषबिध्वंसने
प्रथमः सोपानः समाप्तः।
( बालकाण्ड समाप्त )
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