बाल कान्ड-20 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Bal Kand in Hindi तुलसी दास राम चरित मानस

 राम चरित मानस बाल कान्ड
तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में |
Ram Charit Manas Bal Kank in Hindi

स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन।।
जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए।।
पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती।।
कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर।।
पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई।।
सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे।।
पिअर उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती।।
नयन कमल कल कुंडल काना। बदनु सकल सौंदर्ज निधाना।।
सुंदर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा।।
सोहत मौरु मनोहर माथे। मंगलमय मुकुता मनि गाथे।।
छं0-गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं।
पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं।।
मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहिं।
सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं।।1।।
कोहबरहिं आने कुँअर कुँअरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।
अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै।।
लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं।।2।।
निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।
चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी।।
कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।
बर कुअँरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं।।3।।
तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।
चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा।।
जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी।
चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी।।4।।
दो0-सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास।
सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास।।327।।
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पुनि जेवनार भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती।।
परत पाँवड़े बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा।।
सादर सबके पाय पखारे। जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे।।
धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना।।
बहुरि राम पद पंकज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए।।
तीनिउ भाई राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी।।
आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे।।
सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे।।
दो0-सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत।
छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत।।328।।
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पंच कवल करि जेवन लअगे। गारि गान सुनि अति अनुरागे।।
भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने।।
परुसन लगे सुआर सुजाना। बिंजन बिबिध नाम को जाना।।
चारि भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई।।
छरस रुचिर बिंजन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती।।
जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी।।
समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा।।
एहि बिधि सबहीं भौजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा।।
दो0-देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।
जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज।।329।।
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नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं।।
बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे।।
देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता।।
प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं।।
करि प्रनाम पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी।।
तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरनकाजा।।
अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाई।।
सुनि गुर करि महिपाल बड़ाई। पुनि पठए मुनि बृंद बोलाई।।
दो0-बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि।
आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि।।330।।
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दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे।।
चारि लच्छ बर धेनु मगाई। कामसुरभि सम सील सुहाई।।
सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं।।
करत बिनय बहु बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जग जीवन लाहू।।
पाइ असीस महीसु अनंदा। लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा।।
कनक बसन मनि हय गय स्यंदन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन।।
चले पढ़त गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा।।
एहि बिधि राम बिआह उछाहू। सकइ न बरनि सहस मुख जाहू।।
दो0-बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।
यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ।।331।।
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जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती।।
दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा।।
नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई।।
नित नव नगर अनंद उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ न काहू।।
बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती।।
कौसिक सतानंद तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई।।
अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू।।
भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए।।
दो0-अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।
भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ।।332।।
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पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता।।
सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने।।
जहँ जहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती।।
बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना।।
भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठई जनक अनेक सुसारा।।
तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा।।
मत्त सहस दस सिंधुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे।।
कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना।।
दो0-दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।
जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि।।333।।
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सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई।।
चलिहि बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानीं।।
पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देइ असीस सिखावनु देहीं।।
होएहु संतत पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी।।
सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू।।
अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।
सादर सकल कुअँरि समुझाई। रानिन्ह बार बार उर लाई।।
बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं।।
दो0-तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु।
चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु।।334।।
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चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए।।
कोउ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू।।
लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी।।
को जानै केहि सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी।।
मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा।।
पाव नारकी हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे।।
निरखि राम सोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू।।
एहि बिधि सबहि नयन फलु देता। गए कुअँर सब राज निकेता।।
दो0-रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु।
करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु।।335।।
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देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं।।
रही न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई।।
भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए।।
बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी।।
राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए।।
मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू।।
सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू।।
हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही।।
छं0-करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै।
बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै।।
परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।
तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी।।
सो0-तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय।
जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन।।336।।
अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पंक जनु गिरा समानी।।
सुनि सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी।।
राम बिदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी।।
पाइ असीस बहुरि सिरु नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई।।
मंजु मधुर मूरति उर आनी। भई सनेह सिथिल सब रानी।।
पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारी। बार बार भेटहिं महतारीं।।
पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी।।
पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई।।
दो0-प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।
मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु।।337।।
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सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए।।
ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही।।
भए बिकल खग मृग एहि भाँति। मनुज दसा कैसें कहि जाती।।
बंधु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए।।
सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी।।
लीन्हि राँय उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की।।
समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने।।
बारहिं बार सुता उर लाई। सजि सुंदर पालकीं मगाई।।
दो0-प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।
कुँअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस।।338।।
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बहुबिधि भूप सुता समुझाई। नारिधरमु कुलरीति सिखाई।।
दासीं दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे।।
सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी।।
भूसुर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा।।
समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे।।
दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे।।
चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा।।
सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मंगलमूल सगुन भए नाना।।
दो0-सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान।
चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान।।339।।
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नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे।।
भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे।।
बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी।।
बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं।।
पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए।।
राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े।।
तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी।।
करौ कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई।।
दो0-कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।
मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति।।340।।
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मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा।।
सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता।।
जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए।।
राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा।।
करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी।।
ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी।।
मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी।।
महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई।।
दो0-नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।
सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल।।341।।
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