देखि रसाल बिटप बर साखा बाल कान्ड
देखि रसाल बिटप बर साखा बाल कान्ड
देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा।।सुमन चाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने।।
छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छुटि समाधि संभु तब जागे।।
भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी।।
सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका।।
तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवत कामु भयउ जरि छारा।।
हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी।।
समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी।।
छं0-जोगि अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई।
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही।।
दो0-अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।
बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु।।87।।
प्रेम और कामना की उत्तेजना जब हृदय में उठती है, तब मन एक रसाल वृक्ष की सघन शाखाओं-सा डोलने लगता है। यह मन, कामदेव के प्रभाव में, सांसारिक सौंदर्य और आकर्षण की ओर खिंचता है, जैसे कोई मधुमक्खी फूलों के रस की तलाश में भटकती है। कामदेव अपने सुमन-बाणों को चढ़ाता है, जो मन को भेदकर गहरे तक व्याकुलता पैदा करते हैं। यह व्याकुलता इतनी प्रबल होती है कि ध्यान की गहरी समाधि भी टूट जाती है, और चेतना सांसारिक भोगों की ओर लौट आती है।
जैसे ही यह भटकाव हृदय में प्रवेश करता है, एक अशांति जन्म लेती है। मन चारों ओर देखता है, सौंदर्य और इंद्रिय सुखों में खो जाना चाहता है, परंतु यह सुख क्षणभंगुर है। क्रोध और अहंकार का उदय होता है, जो त्रिलोक तक को कंपा देता है। परंतु सच्चा ज्ञान उस तीसरे नेत्र के खुलने में है, जो कामना की आग को भस्म कर देता है। यह ज्ञान अज्ञानता को जलाकर राख कर देता है, और तब हृदय में शांति लौटती है।
संसार में हाहाकार मचता है, क्योंकि कामना का नाश सभी को भयभीत करता है। देवता डरते हैं, क्योंकि उनकी सुख-सुविधाएँ खतरे में पड़ती हैं, जबकि असुर इस अवसर पर सुख पाते हैं। भोगीजन काम-सुख के नष्ट होने का शोक मनाते हैं, किंतु साधक और योगी इस अवसर को मुक्ति का द्वार मानते हैं। उनकी राह अब बाधाहीन हो जाती है, क्योंकि कामना का कंटक हट चुका होता है।
रति का करुण क्रंदन प्रेम की गहराई को दर्शाता है। वह संकट में अपने प्रभु के समक्ष विनती करती है, और उसका प्रेम ही कृपा का कारण बनता है। प्रभु की करुणा असीम है; वह अबला के दुख को देखकर द्रवित होते हैं। प्रेम और करुणा के इस मिलन से एक नया संतुलन जन्म लेता है। कामना अब अनंग रूप में व्याप्त होगी—शरीररहित, पर सर्वत्र। यह मिलन आत्मा और परमात्मा के बीच के बंधन को दर्शाता है, जो प्रेम और समर्पण से ही संभव है।
जैसे ही यह भटकाव हृदय में प्रवेश करता है, एक अशांति जन्म लेती है। मन चारों ओर देखता है, सौंदर्य और इंद्रिय सुखों में खो जाना चाहता है, परंतु यह सुख क्षणभंगुर है। क्रोध और अहंकार का उदय होता है, जो त्रिलोक तक को कंपा देता है। परंतु सच्चा ज्ञान उस तीसरे नेत्र के खुलने में है, जो कामना की आग को भस्म कर देता है। यह ज्ञान अज्ञानता को जलाकर राख कर देता है, और तब हृदय में शांति लौटती है।
संसार में हाहाकार मचता है, क्योंकि कामना का नाश सभी को भयभीत करता है। देवता डरते हैं, क्योंकि उनकी सुख-सुविधाएँ खतरे में पड़ती हैं, जबकि असुर इस अवसर पर सुख पाते हैं। भोगीजन काम-सुख के नष्ट होने का शोक मनाते हैं, किंतु साधक और योगी इस अवसर को मुक्ति का द्वार मानते हैं। उनकी राह अब बाधाहीन हो जाती है, क्योंकि कामना का कंटक हट चुका होता है।
रति का करुण क्रंदन प्रेम की गहराई को दर्शाता है। वह संकट में अपने प्रभु के समक्ष विनती करती है, और उसका प्रेम ही कृपा का कारण बनता है। प्रभु की करुणा असीम है; वह अबला के दुख को देखकर द्रवित होते हैं। प्रेम और करुणा के इस मिलन से एक नया संतुलन जन्म लेता है। कामना अब अनंग रूप में व्याप्त होगी—शरीररहित, पर सर्वत्र। यह मिलन आत्मा और परमात्मा के बीच के बंधन को दर्शाता है, जो प्रेम और समर्पण से ही संभव है।
जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा।।
कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा।।
रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी।।
देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए।।
सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता।।
पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा।।
बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू।।
कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी।।
दो0-सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु।।88।।
यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन।
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा।।
सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ।।
पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा।।
सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी।।
तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साई।।
अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए।।
प्रथम गए जहँ रही भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी।।
दो0-कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस।
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस।।89।।
मासपारायण,तीसरा विश्राम
–*–*–
सुनि बोलीं मुसकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी।।
तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा।।
हमरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी।।
जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी।।
तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा।।
तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा।।
तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ।।
गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई।।
दो0-हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास।।
चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास।।90।।
–*–*–
सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा।।
बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना।।
हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई।।
सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई।।
पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही।।
जाइ बिधिहि दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती।।
लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई।।
सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे।।
दो0- लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
होहि सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान।।91।।
कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा।।
रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी।।
देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए।।
सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता।।
पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा।।
बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू।।
कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी।।
दो0-सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु।।88।।
यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन।
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा।।
सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ।।
पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा।।
सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी।।
तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साई।।
अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए।।
प्रथम गए जहँ रही भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी।।
दो0-कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस।
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस।।89।।
मासपारायण,तीसरा विश्राम
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सुनि बोलीं मुसकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी।।
तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा।।
हमरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी।।
जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी।।
तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा।।
तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा।।
तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ।।
गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई।।
दो0-हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास।।
चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास।।90।।
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सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा।।
बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना।।
हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई।।
सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई।।
पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही।।
जाइ बिधिहि दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती।।
लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई।।
सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे।।
दो0- लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
होहि सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान।।91।।