अब बढ़ो बढ़ो मेरे सुभाष भजन
बर्मा के विप्लव से सहसा शासन का आसन डोल उठा,
उस बूढ़े शाह बहादुर का बूढ़ा मजार तब बोल उठा,
अब बढ़ो-बढ़ो ,हे मेरे सुभाष,
तुम हो मजबूर नहीं साथी,
अब देख रहा है लाल-किला,
दिल्ली है दूर नहीं साथी.
बोले नेताजी ,तुम्हे कभी हे शाह नहीं भूलेंगे हम,
चारों बेटों का खून और वह आह नहीं भूलेंगे हम,
तुम और तुम्हारी कुर्बानी,युग-युग तक होगी याद हमें,
कोई भी मूल्य चूका करके बस होना है आजाद हमें.
प्रण करता हूँ मैं ,तेरा मजार मैं,आजाद हिन्द लेकर जाऊं,
अन्यथा हिन्द के बहार ही मैं,
घुट-घुट करके मर जाऊं,
घुट-घुट करके मर जाऊं.आपको ये पोस्ट पसंद आ सकती हैं