अब बढ़ो बढ़ो मेरे सुभाष भजन

अब बढ़ो बढ़ो मेरे सुभाष भजन

बर्मा के विप्लव से सहसा शासन का आसन डोल उठा,
उस बूढ़े शाह बहादुर का बूढ़ा मजार तब बोल उठा,
अब बढ़ो-बढ़ो ,हे मेरे सुभाष,
तुम हो मजबूर नहीं साथी,
अब देख रहा है लाल-किला,
दिल्ली है दूर नहीं साथी.

बोले नेताजी ,तुम्हे कभी हे शाह नहीं भूलेंगे हम,
चारों बेटों का खून और वह आह नहीं भूलेंगे हम,
तुम और तुम्हारी कुर्बानी,युग-युग तक होगी याद हमें,
कोई भी मूल्य चूका करके बस होना है आजाद हमें.

प्रण करता हूँ मैं ,तेरा मजार मैं,आजाद हिन्द लेकर जाऊं,
अन्यथा हिन्द के बहार ही मैं,
घुट-घुट करके मर जाऊं,
घुट-घुट करके मर जाऊं.
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सुंदर कविता में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की देशभक्ति, उनके अटल संकल्प और स्वतंत्रता के लिए बलिदान की भावना का उद्गार झलकता है, जो हर भारतीय के मन में स्वाधीनता की ज्वाला और वीरता का गर्व प्रज्वलित करता है। यह भाव उस सत्य को प्रकट करता है कि नेताजी का जीवन और उनकी आजाद हिंद फौज का संघर्ष भारत की आजादी के लिए एक अमर गाथा है।

बर्मा के विप्लव से ब्रिटिश शासन का आसन डोलना और शाह बहादुर के मजार का बोल उठना नेताजी के क्रांतिकारी प्रभाव को दर्शाता है। यह उद्गार मन को उस अनुभूति से जोड़ता है, जैसे कोई वीर अपनी पुकार से इतिहास को जगा देता है। “अब बढ़ो-बढ़ो, हे मेरे सुभाष” का आह्वान नेताजी को उस साहस और दृढ़ता की याद दिलाता है, जो लाल किले की ओर दिल्ली तक पहुँचने के लिए अडिग रही।

नेताजी का शाह बहादुर और उनके बेटों की कुर्बानी को न भूलने का संकल्प उनकी कृतज्ञता और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण को रेखांकित करता है। यह भाव उस सत्य को उजागर करता है कि नेताजी के लिए आजादी से बढ़कर कोई मूल्य नहीं था, और वे हर कुर्बानी देने को तैयार थे। जैसे कोई विद्यार्थी अपने गुरु की सीख को जीवन का आधार बनाता है, वैसे ही नेताजी शहीदों की कुर्बानी को अपनी प्रेरणा बनाकर आगे बढ़े।

नेताजी का मजार के सामने प्रण कि वे या तो आजाद हिंद लेकर आएँगे या घुट-घुटकर मर जाएँगे, उनकी स्वतंत्रता के प्रति अपार निष्ठा और बलिदान की भावना को दर्शाता है। यह उद्गार हर उस व्यक्ति को प्रेरित करता है, जो देश के लिए अपने प्राणों को न्योछावर करने का जज़्बा रखता है। यह कविता सिखाता है कि सच्चा वीर वही है, जो मजबूरी को ठुकराकर, हर चुनौती का सामना करते हुए, अपने देश को स्वाधीनता का उपहार देता है।
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