बिहारी के दोहे हिंदी अर्थ सहित Bihari Ke Dohe Hindi Arth Sahit
अजौ तरौना ही रह्यो सुति सेवत इक अंग ।
नाक बास बेसर लहयो बसि मुकुतन के संग॥
नाक बास बेसर लहयो बसि मुकुतन के संग॥
हिंदी अर्थ / भावार्थ : इस दोहे में कवि बिहारी लाल कानों में पहने जाने वाले आभूषण तयौना और नाक में पहने जाने वाले आभूषण बेसरि की तुलना करते हैं। तयौना एक साधारण आभूषण है जो केवल सोने का बना होता है। बेसरि एक अधिक मूल्यवान आभूषण है जो मोतियों से जड़ा होता है। कवि कहता है कि तयौना एक ही रंग में रहने के कारण कोई प्रगति नहीं कर पाया। आज भी वह कानों में ही पहना जाता है। जबकि बेसरि ने मोतियों को साथ में लेने के कारण व्यक्ति के सम्मान की प्रतीक नाक पर स्थान पा लिया है। इसका अर्थ यह है कि केवल ज्ञान प्राप्त करना ही पर्याप्त नहीं है। ज्ञान के साथ-साथ सत्संग और अच्छे लोगों की संगति भी आवश्यक है। सत्संग और अच्छे लोगों की संगति में रहने से व्यक्ति का विकास होता है और वह उच्च स्थान प्राप्त करता है।
दोहे के दूसरे चरण में कवि कहता है कि बेसरि अर्थात पुण्यात्मा लोगों की संगति में रहने वाला व्यक्ति नाक पर अर्थात उच्च स्थान पर विराजमान हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति अच्छे लोगों की संगति में रहता है, वह समाज में सम्मानित होता है। कवि ने इस चरण के माध्यम से राजदरबारों में व्याप्त गुटबंदियों और चुगली की प्रवृत्ति पर व्यंग्य किया है। दरबारों में अक्सर यह देखा जाता है कि लोग अपने स्वार्थ के लिए एक-दूसरे के खिलाफ बातें करते हैं। ऐसे लोग तयौना की तरह ही होते हैं, जो केवल एक ही रंग में रहते हैं। जबकि बेसरि की तरह ही लोग होते हैं, जो मोतियों की तरह एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर रहते हैं।
- अजौ - अभी तक, अब भी, आज तक
- तयौना - कानों का एक पुराना सोने का आभूषण, जो केवल एक ही रंग का होता है।
- श्रुति - वेद, ज्ञान का स्रोत, ईश्वरीय वाणी
- सेवत - सेवा करना, आदर करना, सम्मान करना
- इक रंग - एक ही रंग में, निरंतर, एक जैसा
- नाक बास - नाक पर निवास या पहनी जाना, सम्मान प्राप्त करना, स्वर्ग प्राप्ति
- बेसरि - नाक का एक आभूषण, जो मोतियों से जड़ा होता है।
- लयौ - प्राप्त कर लिया, प्राप्त हो गया, समायोजित हो गया
- बसि - रहकर, निवास करके, उपस्थित होकर
- मुक्तन - मोतियों, मुक्त पुरुषों, निष्पक्ष लोगों का समूह
श्लेष अलंकार
इस दोहे में श्लेष अलंकार का प्रयोग किया गया है। तयौना का अर्थ केवल आभूषण ही नहीं, बल्कि वेद-शास्त्रों का अध्ययन करने वाला व्यक्ति भी है। बेसरि का अर्थ केवल आभूषण ही नहीं, बल्कि पुण्यात्मा लोगों की संगति भी है।
इस दोहे में श्लेष अलंकार का प्रयोग किया गया है। तयौना का अर्थ केवल आभूषण ही नहीं, बल्कि वेद-शास्त्रों का अध्ययन करने वाला व्यक्ति भी है। बेसरि का अर्थ केवल आभूषण ही नहीं, बल्कि पुण्यात्मा लोगों की संगति भी है।
अजौं न आए सहज रंग, बिरह दूबरे गात ।
अब ही कहा चलायति ललन चलन की बात॥
अति अगाधा अति ऊथरो; नदी कूप सर बाय।
सो ताको सागर जहाँ जाकी प्यास बुझाय॥
अधर धरत हरि के परत, ओंठ, दीठ, पट जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इंद्र धनुष दुति होति॥
अंग-अंग नग जगमगैं, दीपसिखा-सी देह।
दियो बढाएँ ही रहै, बढो उजेरो गेह॥
आजु सबारे हौं गयी , नंदलाल हित ताल।
कुमुद कुमुदिनी के भटू , निरखे औरै हाल॥
आड़े दै आले बसन जाड़े हूँ की राति।
साहसु ककै सनेहबस, सखी सबै ढिग जाति॥
इक भींजे चहले परे बूड़े बहे हजार।
किते न औगुन जग करत नै बै चढ़ती बार॥
इत आवति चलि जाति उत, चली छसातक हाथ।
चढ़ी हिडोरैं सी रहै, लगी उसाँसनु साथ॥
इन दुखिया अँखियान कौं, सुख सिरजोई नाहिं।
देखत बनै न देखते, बिन देखे अकुलाहिं॥
उड़ि गुलाल घूँघर भई तनि रह्यो लाल बितान।
चौरी चारु निकुंजनमें ब्याह फाग सुखदान॥
औंधाई सीसी सुलखि, बिरह विथा विलसात।
बीचहिं सूखि गुलाब गो, छीटों छुयो न गात॥
कच समेटि करि भुज उलटि, खए सीस पट डारि।
काको मन बाँधै न यह, जूडो बाँधनि हारि॥
कनक-कनक तें सौ गुनी मादकता अधिकाय।
वह खाए बौराय नर, यह पाए बौराय॥
कब को टेरत दीन ह्वै, होत न स्याम सहाय।
तुम हूँ लागी जगत गुरु, जगनायक जग बाय॥
कर-मुँदरी की आरसी, प्रतिबिम्बित प्यौ पाइ।
पीठि दिये निधरक लखै, इकटक डीठि लगाइ॥
कर लै चूमि चढाइ सिर, उर लगाइ भुज भेंटि।
लहि पाती पिय की लखति, बाँचति धरति समेटि॥
कर लै सूँघि, सराहि कै सबै रहे धरि मौन।
गंधी गंध गुलाब को गँवई गाहक कौन॥
करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि।
रे गंधी मतिमंद तू इतर दिखावत काँहि॥
करे चाह सों चुटकि कै खरे उड़ौहैं मैन।
लाज नवाए तरफरत करत खूँद सी नैन॥
करौ कुबत जग कुटिलता, तजौं न दीन दयाल।
दुखी होहुगे सरल चित; बसत त्रिभंगी लाल॥
कहत न देवर की कुबत, कुलतिय कलह डराति ।
पंजरगत मंजार ढिग, सुक लौं सूकति जाति॥
कहत सवै वेदीं दिये आंगु दस गुनो होतु।
तिय लिलार बेंदी दियैं अगिनतु बढत उदोतु॥
कहति नटति रीझति मिलति खिलति लजि जात।
भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात॥
कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।
जगतु तपोबन सौ कियौ दीरघ-दाघ निदाघ॥
कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात।
कहिहै सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात॥
कुटिल अलक छुटि परत मुख बढ़िगौ इतौ उदोत।
बंक बकारी देत ज्यौं दामु रुपैया होत॥
को कहि सकै बड़ेन सों लखे बड़ीयौ भूल।
दीन्हें दई गुलाब की इन डारन ये फूल॥
को छूटयो येहि जाल परि , कत कुरंग अकुलात।
ज्यों-ज्यों सरुझि भज्यो चहै , त्यों त्यों अरुझ्यो जात॥
कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच।
नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच॥
गोरे मुख पै तिल बन्यो, ताहि करौं परनाम।
मानो चंद बिछाइकै, पौढ़े सालीग्राम॥
घर घर तुरकिनि हिन्दुनी देतिं असीस सराहि।
पतिनु राति चादर चुरी तैं राखो जयसाहि॥
चित पित मारक जोग गनि, भयौ भयें सुत सोग ।
फिरि हुलस्यौ जिय जोयसी समुझैं जारज जोग॥
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न स्नेह गम्भीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥
छला छबीले लाल को, नवल नेह लहि नारि।
चूमति चाहति लाय उर, पहिरति धरति उतारि॥
छाले परिबे के डरनु सकै न हाथ छुवाइ।
झिझकति हियैं गुलाब कैं झवा झवावति पाइ॥
जगत जनायो जो सकल, सो हरि जान्यो नाहि।
जिमि ऑंखिनसब देखिए, ऑंखि न देखी जाहि॥
जनम ग्वालियर जानिये खंड बुंदेले बाल।
तरुनाई आई सुघर मथुरा बसि ससुराल॥
जपमाला, छापैं, तिलक सरै न एकौ कामु।
मन-काँचै नाचै बृथा, साँचै राँचै रामु॥
जो चाहै चटक न घटै; मैलो होय न मित्ता।
रज राजस न छुवाइये; नेह चीकने चित्ता॥
ढीठि परोसिनि ईठ ह्वै कहे जु गहे सयान।
सबै सँदेसे कहि कह्यो मुसुकाहट मैं मान॥
तच्यो ऑंच अति बिरह की रह्यो प्रेम रस भींजि।
नैनन के मग जल बहै हियो पसीजि पसीजि॥
तर झरसी, ऊपर गरी, कज्जल-जल छिरकाइ।
पिय पाती बिन ही लिखी, बाँची बिरह-बलाइ॥
तंत्रीनाद कबित्ता रस, सरस राग रति रंग।
अनबूड़े बूड़े, तिरे जे बूड़े सब अंग॥
तो पर वारौं उरबसी, सुनि राधिाके सुजान।
तू मोहन कैं उर बसी, ह्वै उरबसी समान॥
तौ लगि या मन-सदन में; हरि आवैं केहि बाट।
बिकट जटे जौ लौं निपट; खुले न कपट-कपाट॥
दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।
परति गाँठि दुरजन हिये, दई नई यह रीति॥
दीरघ सांस न लेहु दुख, सुख साईं हि न भूलि ।
दई दई क्यों करतु है, दई दई सु कबूलि ॥
दुसह दुराज प्रजान को क्यों न बड़े दुःख द्वंद ।
अधिक अंधेरो जग करत ,मिलि मावस रविचंद॥
नए बिरह बढ़ती बिथा खरी बिकल जिय बाल।
बिलखी देखि परोसिन्यौं हरषि हँसी तिहि काल॥
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
अली कली ही सा बिंध्यों, आगे कौन हवाल॥
नाक मोरि नाहीं करै नारि निहोरें लेइ ।
छुवत ओठ बिय आँगुरिन बिरी बदन पिदेई॥
नासा मोरि, नचाइ दृग, करी कका की सौंह।
काँटे सी कसकै हिए, गड़ी कँटीली भौंह॥
नाहिंन ये पावक प्रबल, लूऐं चलति चहुँ पास।
मानों बिरह बसंत के, ग्रीषम लेत उसांस॥
नीकी लागि अनाकनी, फीकी परी गोहारि,
तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारनि तारि॥
पति आयो परदेस ते , ऋतु बसंत की मानि।
झमकि झमकि निज महल में , टहलैं करैं सुरानि॥
प्रगट भए द्विजराज-कुल, सुबस बसे ब्रज आइ।
मेरे हरौ कलेस सब, केसव केसवराइ॥
परतिय दोष पुरान सुनि, लखि मुलकी सुख दानि ।
कस करि रानी मिश्रहू, मुँह आई मुसकानि॥
पलनु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरु भाल।
आजु मिले सु भली करी, भले बने हौ लाल॥
पत्रा ही तिथी पाइये, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौ ही रहे, आनन-ओप उजास॥
फूलनके सिर सेहरा, फाग रंग रँगे बेस।
भाँवरहीमें दौड़ते, लै गति सुलभ सुदेस॥
बढ़त बढ़त संपति सलिल मन सरोज बढ़ि जाय।
घटत घटत पुनि ना घटै बरु समूल कुम्हिलाय॥
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सोह करे, भौंहनु हंसे दैन कहे, नटि जाय॥
बहकि न इहिं बहनापने जब तब बीर विनास ।
बचै न बडी सबील हूँ, चील घोसुवा माँस॥
बहु धन लै अहसान कै, पारो देत सराहि ।
बैद बधू, हँसि भेद सौं, रही नाह मुँह चाहि॥
बंधु भए का दीन के, को तरयो रघुराइ ।
तूठे-तूठे फिरत हो झूठे बिरद कहाइ ॥
बामा भामा कामिनी, कहि बोले प्रानेस।
प्यारी कहत लजात नहीं, पावस चलत बिदेस॥
बेसरि मोती दुति-झलक परी ओठ पर आइ।
चूनौ होइ न चतुर तीय क्यों पट पोंछयो जाइ॥
बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन-तन माँह।
देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह॥
भीण्यो केसर रंगसूँ लगे अरुन पट पीत।
डालै चाँचा चौकमें गहि बहियाँ दोउ मीत॥
भूषन भार सँभारिहै, क्यौं इहि तन सुकुमार।
सूधे पाइ न धर परैं, सोभा ही कैं भार॥
मति न नीति गलीत यह, जो धन धरिये ज़ोर।
खाये खर्चे जो बचे तो ज़ोरिये करोर॥
मानहुँ विधि तन अच्छ छबि स्वच्छ राखिबे काज।
दृग पग पोंछन को कियो भूखन पायंदाज॥
मूड चढाऐऊ रहै फरयौ पीठि कच-भारु।
रहै गिरैं परि, राखिबौ तऊ हियैं पर हारु॥
मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तनु की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय॥
मैं समुझ्यो निराधार, यह जग काचो काँच सो।
एकै रूप अपार, प्रतिबिम्बित लखिए तहाँ॥
मैं ही बौरी विरह बस, कै बौरो सब गाँव।
कहा जानि ये कहत हैं, ससिहिं सीतकर नाँव॥
मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल॥
मोहनि मूरत स्याम की अति अद्भुत गति जोय।
बसति सुचित अन्तर तऊ प्रतिबिम्बित जग होय॥
यद्यपि सुंदर सुघर पुनि सगुणौ दीपक देह।
तऊ प्रकास करै तितो भरिए जितो सनेह॥
या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ॥
रच्यौ रँगीली रैनमें, होरीके बिच ब्याह।
बनी बिहारन रसमयी रसिक बिहारी नाह॥
रूप सुधा-आसव छक्यो, आसव पियत बनै न।
प्यालैं ओठ, प्रिया बदन, रह्मो लगाए नैन॥
ललन चलनु सुनि पलनु में अंसुवा झलके आइ।
भई लखाइ न सखिनु हँ, झूठैं ही जमुहाइ॥
लिखन बैठि जाकी सबिह, गहि-गहि गरब गरूर।
भये न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर॥
लोचनचपल कटाच्छ सर , अनियारे विष पूरि।
मन मृग बेधौं मुनिन के , जगजन सहित विसूरि॥
वे न इहाँ नागर भले जिन आदर तौं आब।
फूल्यो अनफूल्यो भलो गँवई गाँव गुलाब॥
सतसइया के दोहरा ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर॥
स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा देखु विहंग विचारि।
बाज पराये पानि पर तू पच्छीनु न मारि॥
स्वेद सलिल रोमांच कुस गहि दुलही अरु नाथ।
हियौ दियौ संग हाथ के हथलेवा ही हाथ॥
सघन कुंज घन, घन तिमिर, अधिक ऍंधेरी राति।
तऊ न दुरिहै स्याम यह, दीप-सिखा सी जाति॥
सघन कुंज छाया सुखद सीतल सुरभि समीर।
मन ह्वै जात अजौं वहै उहि जमुना के तीर॥
सीरैं जतननि सिसिर ऋतु सहि बिरहिनि तनताप।
बसिबे कौं ग्रीषम दिनन परयो परोसिनि पाप॥
सुनी पथिक मुँह माह निसि लुवैं चलैं वहि ग्राम।
बिनु पूँछे, बिनु ही कहे, जरति बिचारी बाम॥
सोनजुही सी जगमगी, अँग-अँग जोवनु जोति।
सुरँग कुसुंभी चूनरी, दुरँगु देहदुति होति॥
सोहत ओढ़ैं पीतु पटु स्याम, सलौनैं गात।
मनौ नीलमनि-सैल पर आतपु परयो प्रभात॥
अब ही कहा चलायति ललन चलन की बात॥
अति अगाधा अति ऊथरो; नदी कूप सर बाय।
सो ताको सागर जहाँ जाकी प्यास बुझाय॥
अधर धरत हरि के परत, ओंठ, दीठ, पट जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इंद्र धनुष दुति होति॥
अंग-अंग नग जगमगैं, दीपसिखा-सी देह।
दियो बढाएँ ही रहै, बढो उजेरो गेह॥
आजु सबारे हौं गयी , नंदलाल हित ताल।
कुमुद कुमुदिनी के भटू , निरखे औरै हाल॥
आड़े दै आले बसन जाड़े हूँ की राति।
साहसु ककै सनेहबस, सखी सबै ढिग जाति॥
इक भींजे चहले परे बूड़े बहे हजार।
किते न औगुन जग करत नै बै चढ़ती बार॥
इत आवति चलि जाति उत, चली छसातक हाथ।
चढ़ी हिडोरैं सी रहै, लगी उसाँसनु साथ॥
इन दुखिया अँखियान कौं, सुख सिरजोई नाहिं।
देखत बनै न देखते, बिन देखे अकुलाहिं॥
उड़ि गुलाल घूँघर भई तनि रह्यो लाल बितान।
चौरी चारु निकुंजनमें ब्याह फाग सुखदान॥
औंधाई सीसी सुलखि, बिरह विथा विलसात।
बीचहिं सूखि गुलाब गो, छीटों छुयो न गात॥
कच समेटि करि भुज उलटि, खए सीस पट डारि।
काको मन बाँधै न यह, जूडो बाँधनि हारि॥
कनक-कनक तें सौ गुनी मादकता अधिकाय।
वह खाए बौराय नर, यह पाए बौराय॥
कब को टेरत दीन ह्वै, होत न स्याम सहाय।
तुम हूँ लागी जगत गुरु, जगनायक जग बाय॥
कर-मुँदरी की आरसी, प्रतिबिम्बित प्यौ पाइ।
पीठि दिये निधरक लखै, इकटक डीठि लगाइ॥
कर लै चूमि चढाइ सिर, उर लगाइ भुज भेंटि।
लहि पाती पिय की लखति, बाँचति धरति समेटि॥
कर लै सूँघि, सराहि कै सबै रहे धरि मौन।
गंधी गंध गुलाब को गँवई गाहक कौन॥
करि फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि।
रे गंधी मतिमंद तू इतर दिखावत काँहि॥
करे चाह सों चुटकि कै खरे उड़ौहैं मैन।
लाज नवाए तरफरत करत खूँद सी नैन॥
करौ कुबत जग कुटिलता, तजौं न दीन दयाल।
दुखी होहुगे सरल चित; बसत त्रिभंगी लाल॥
कहत न देवर की कुबत, कुलतिय कलह डराति ।
पंजरगत मंजार ढिग, सुक लौं सूकति जाति॥
कहत सवै वेदीं दिये आंगु दस गुनो होतु।
तिय लिलार बेंदी दियैं अगिनतु बढत उदोतु॥
कहति नटति रीझति मिलति खिलति लजि जात।
भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात॥
कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।
जगतु तपोबन सौ कियौ दीरघ-दाघ निदाघ॥
कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात।
कहिहै सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात॥
कुटिल अलक छुटि परत मुख बढ़िगौ इतौ उदोत।
बंक बकारी देत ज्यौं दामु रुपैया होत॥
को कहि सकै बड़ेन सों लखे बड़ीयौ भूल।
दीन्हें दई गुलाब की इन डारन ये फूल॥
को छूटयो येहि जाल परि , कत कुरंग अकुलात।
ज्यों-ज्यों सरुझि भज्यो चहै , त्यों त्यों अरुझ्यो जात॥
कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच।
नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच॥
गोरे मुख पै तिल बन्यो, ताहि करौं परनाम।
मानो चंद बिछाइकै, पौढ़े सालीग्राम॥
घर घर तुरकिनि हिन्दुनी देतिं असीस सराहि।
पतिनु राति चादर चुरी तैं राखो जयसाहि॥
चित पित मारक जोग गनि, भयौ भयें सुत सोग ।
फिरि हुलस्यौ जिय जोयसी समुझैं जारज जोग॥
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न स्नेह गम्भीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥
छला छबीले लाल को, नवल नेह लहि नारि।
चूमति चाहति लाय उर, पहिरति धरति उतारि॥
छाले परिबे के डरनु सकै न हाथ छुवाइ।
झिझकति हियैं गुलाब कैं झवा झवावति पाइ॥
जगत जनायो जो सकल, सो हरि जान्यो नाहि।
जिमि ऑंखिनसब देखिए, ऑंखि न देखी जाहि॥
जनम ग्वालियर जानिये खंड बुंदेले बाल।
तरुनाई आई सुघर मथुरा बसि ससुराल॥
जपमाला, छापैं, तिलक सरै न एकौ कामु।
मन-काँचै नाचै बृथा, साँचै राँचै रामु॥
जो चाहै चटक न घटै; मैलो होय न मित्ता।
रज राजस न छुवाइये; नेह चीकने चित्ता॥
ढीठि परोसिनि ईठ ह्वै कहे जु गहे सयान।
सबै सँदेसे कहि कह्यो मुसुकाहट मैं मान॥
तच्यो ऑंच अति बिरह की रह्यो प्रेम रस भींजि।
नैनन के मग जल बहै हियो पसीजि पसीजि॥
तर झरसी, ऊपर गरी, कज्जल-जल छिरकाइ।
पिय पाती बिन ही लिखी, बाँची बिरह-बलाइ॥
तंत्रीनाद कबित्ता रस, सरस राग रति रंग।
अनबूड़े बूड़े, तिरे जे बूड़े सब अंग॥
तो पर वारौं उरबसी, सुनि राधिाके सुजान।
तू मोहन कैं उर बसी, ह्वै उरबसी समान॥
तौ लगि या मन-सदन में; हरि आवैं केहि बाट।
बिकट जटे जौ लौं निपट; खुले न कपट-कपाट॥
दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।
परति गाँठि दुरजन हिये, दई नई यह रीति॥
दीरघ सांस न लेहु दुख, सुख साईं हि न भूलि ।
दई दई क्यों करतु है, दई दई सु कबूलि ॥
दुसह दुराज प्रजान को क्यों न बड़े दुःख द्वंद ।
अधिक अंधेरो जग करत ,मिलि मावस रविचंद॥
नए बिरह बढ़ती बिथा खरी बिकल जिय बाल।
बिलखी देखि परोसिन्यौं हरषि हँसी तिहि काल॥
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
अली कली ही सा बिंध्यों, आगे कौन हवाल॥
नाक मोरि नाहीं करै नारि निहोरें लेइ ।
छुवत ओठ बिय आँगुरिन बिरी बदन पिदेई॥
नासा मोरि, नचाइ दृग, करी कका की सौंह।
काँटे सी कसकै हिए, गड़ी कँटीली भौंह॥
नाहिंन ये पावक प्रबल, लूऐं चलति चहुँ पास।
मानों बिरह बसंत के, ग्रीषम लेत उसांस॥
नीकी लागि अनाकनी, फीकी परी गोहारि,
तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारनि तारि॥
पति आयो परदेस ते , ऋतु बसंत की मानि।
झमकि झमकि निज महल में , टहलैं करैं सुरानि॥
प्रगट भए द्विजराज-कुल, सुबस बसे ब्रज आइ।
मेरे हरौ कलेस सब, केसव केसवराइ॥
परतिय दोष पुरान सुनि, लखि मुलकी सुख दानि ।
कस करि रानी मिश्रहू, मुँह आई मुसकानि॥
पलनु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरु भाल।
आजु मिले सु भली करी, भले बने हौ लाल॥
पत्रा ही तिथी पाइये, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौ ही रहे, आनन-ओप उजास॥
फूलनके सिर सेहरा, फाग रंग रँगे बेस।
भाँवरहीमें दौड़ते, लै गति सुलभ सुदेस॥
बढ़त बढ़त संपति सलिल मन सरोज बढ़ि जाय।
घटत घटत पुनि ना घटै बरु समूल कुम्हिलाय॥
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सोह करे, भौंहनु हंसे दैन कहे, नटि जाय॥
बहकि न इहिं बहनापने जब तब बीर विनास ।
बचै न बडी सबील हूँ, चील घोसुवा माँस॥
बहु धन लै अहसान कै, पारो देत सराहि ।
बैद बधू, हँसि भेद सौं, रही नाह मुँह चाहि॥
बंधु भए का दीन के, को तरयो रघुराइ ।
तूठे-तूठे फिरत हो झूठे बिरद कहाइ ॥
बामा भामा कामिनी, कहि बोले प्रानेस।
प्यारी कहत लजात नहीं, पावस चलत बिदेस॥
बेसरि मोती दुति-झलक परी ओठ पर आइ।
चूनौ होइ न चतुर तीय क्यों पट पोंछयो जाइ॥
बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन-तन माँह।
देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह॥
भीण्यो केसर रंगसूँ लगे अरुन पट पीत।
डालै चाँचा चौकमें गहि बहियाँ दोउ मीत॥
भूषन भार सँभारिहै, क्यौं इहि तन सुकुमार।
सूधे पाइ न धर परैं, सोभा ही कैं भार॥
मति न नीति गलीत यह, जो धन धरिये ज़ोर।
खाये खर्चे जो बचे तो ज़ोरिये करोर॥
मानहुँ विधि तन अच्छ छबि स्वच्छ राखिबे काज।
दृग पग पोंछन को कियो भूखन पायंदाज॥
मूड चढाऐऊ रहै फरयौ पीठि कच-भारु।
रहै गिरैं परि, राखिबौ तऊ हियैं पर हारु॥
मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तनु की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय॥
मैं समुझ्यो निराधार, यह जग काचो काँच सो।
एकै रूप अपार, प्रतिबिम्बित लखिए तहाँ॥
मैं ही बौरी विरह बस, कै बौरो सब गाँव।
कहा जानि ये कहत हैं, ससिहिं सीतकर नाँव॥
मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल॥
मोहनि मूरत स्याम की अति अद्भुत गति जोय।
बसति सुचित अन्तर तऊ प्रतिबिम्बित जग होय॥
यद्यपि सुंदर सुघर पुनि सगुणौ दीपक देह।
तऊ प्रकास करै तितो भरिए जितो सनेह॥
या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ॥
रच्यौ रँगीली रैनमें, होरीके बिच ब्याह।
बनी बिहारन रसमयी रसिक बिहारी नाह॥
रूप सुधा-आसव छक्यो, आसव पियत बनै न।
प्यालैं ओठ, प्रिया बदन, रह्मो लगाए नैन॥
ललन चलनु सुनि पलनु में अंसुवा झलके आइ।
भई लखाइ न सखिनु हँ, झूठैं ही जमुहाइ॥
लिखन बैठि जाकी सबिह, गहि-गहि गरब गरूर।
भये न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर॥
लोचनचपल कटाच्छ सर , अनियारे विष पूरि।
मन मृग बेधौं मुनिन के , जगजन सहित विसूरि॥
वे न इहाँ नागर भले जिन आदर तौं आब।
फूल्यो अनफूल्यो भलो गँवई गाँव गुलाब॥
सतसइया के दोहरा ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर॥
स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा देखु विहंग विचारि।
बाज पराये पानि पर तू पच्छीनु न मारि॥
स्वेद सलिल रोमांच कुस गहि दुलही अरु नाथ।
हियौ दियौ संग हाथ के हथलेवा ही हाथ॥
सघन कुंज घन, घन तिमिर, अधिक ऍंधेरी राति।
तऊ न दुरिहै स्याम यह, दीप-सिखा सी जाति॥
सघन कुंज छाया सुखद सीतल सुरभि समीर।
मन ह्वै जात अजौं वहै उहि जमुना के तीर॥
सीरैं जतननि सिसिर ऋतु सहि बिरहिनि तनताप।
बसिबे कौं ग्रीषम दिनन परयो परोसिनि पाप॥
सुनी पथिक मुँह माह निसि लुवैं चलैं वहि ग्राम।
बिनु पूँछे, बिनु ही कहे, जरति बिचारी बाम॥
सोनजुही सी जगमगी, अँग-अँग जोवनु जोति।
सुरँग कुसुंभी चूनरी, दुरँगु देहदुति होति॥
सोहत ओढ़ैं पीतु पटु स्याम, सलौनैं गात।
मनौ नीलमनि-सैल पर आतपु परयो प्रभात॥
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