मदनाष्टक संत रहीम हिंदी Madnashtak Sant Raheem
रहीम की मधुराष्टक एक प्रसिद्ध भक्ति कविता है। यह भगवान कृष्ण की रासलीला का वर्णन करती है। यह कविता संस्कृत और हिंदी खड़ी बोली की मिश्रित शैली में रचित है। इसमें मालिनी छंद का प्रयोग किया गया है। मधुराष्टक में रहीम कृष्ण की रासलीला के माध्यम से प्रेम, सौंदर्य और आनंद की महिमा का वर्णन करते हैं। वे कृष्ण को मधुरता का साक्षात्कार मानते हैं। उनकी मधुरता से सभी प्राणी आकर्षित होते हैं। मधुराष्टक के कई पाठ प्रकाशित हुए हैं। 'सम्मेलन पत्रिका' में प्रकाशित पाठ अधिक प्रामाणिक माना जाता है।
हिंदी अर्थ / भावार्थ : कविता के पहले छंद में कृष्ण की मोहिनी से गोपियों पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन किया गया है। शरद पूर्णिमा की रात में कृष्ण ने शरद निकुंजों में जाकर वंशी बजाई। वंशी की मधुर ध्वनि सुनकर गोपियाँ अपने रतिजनित सुख, पति, पुत्र और नींद तक छोड़कर कृष्ण की ओर दौड़ पड़ीं। कवि को स्वयं आश्चर्य है कि यह काम-प्रभाव था या कोई बला उनके पीछे पड़ गयी थी। कविता के दूसरे छंद में कृष्ण के रूप का वर्णन किया गया है। कृष्ण ने कलित ललित माला पहन रखी थी, जो जवाहिरों से जड़ी हुई थी। वे चपल चखन वाले थे और चांदनी में खड़े थे। उनकी कमर के पास पीतांबर और सेला नवेला लहरा रहा था। कृष्ण का रूप अलबेला और मोहक था।
कविता के तीसरे छंद में कृष्ण के हाथों का वर्णन किया गया है। कृष्ण के हाथ छबीली छैलरा की छरी जैसे थे। उनके हाथों में मणि जटित माधुरी मूँदरी थी। कृष्ण के हाथ इतने सुंदर थे कि उन्हें देखकर गोपियाँ मोहित हो जाती थीं।
कविता के चौथे छंद में कृष्ण की जुल्फों का वर्णन किया गया है। कृष्ण की जुल्फें कठिन कुटिल कारी से बनी हुई थीं। वे अलि कलित बिहारी लगती थीं। कृष्ण की जुल्फें इतनी सुंदर थीं कि उन्हें देखकर गोपियाँ मोहित हो जाती थीं।
कविता के पांचवें छंद में कृष्ण की आँखों का वर्णन किया गया है। कृष्ण की आँखें ज़रद बसन-वाली गुल चमन देखती थीं। वे झुक झुक मतवाला गावता रेखता था। कृष्ण की आँखें इतनी सुंदर थीं कि उन्हें देखकर गोपियाँ मोहित हो जाती थीं।
कविता के छठे छंद में कृष्ण की बाँहों का वर्णन किया गया है। कृष्ण की बाँहें तरल तरनि सी हैं तीर सी नोकदार हैं। वे अमल कमल सी हैं दीर्घ हैं और दिल बिदारती हैं। कृष्ण की बाँहें इतनी सुंदर थीं कि उन्हें देखकर गोपियाँ मोहित हो जाती थीं।
कविता के सातवें छंद में कृष्ण की भौहों का वर्णन किया गया है। कृष्ण की भौहें भुजंग जुग किधौं हैं काम कमनैत सोहैं। वे नटवर की मान भौंहें हैं। कृष्ण की भौहें इतनी सुंदर थीं कि उन्हें देखकर गोपियाँ मोहित हो जाती थीं।
कविता के आठवें छंद में एक पठानी स्त्री की बातचीत का वर्णन किया गया है। पठानी स्त्री कहती है कि भगवान कृष्ण की मृदु बानी बेदुरुस्ती अकिल में और सरल सरल सानी कै गई सार दिल में। पठानी स्त्री भी कृष्ण की मोहिनी से आकर्षित हो गयी है।
कविता के नौवें छंद में फिर से कृष्ण के रूप का वर्णन किया गया है। कृष्ण फलित ललित माला वा जवाहिर जड़ा था। वे चपल चखन वाला चान्दनी में खड़ा था। उनकी कमर के पास पीतांबर और सेला नवेला लहरा रहा था। कृष्ण का रूप अलबेला और मोहक था।
कविता के अंत में कवि फिर से आश्चर्य व्यक्त करता है कि यह काम-प्रभाव था या कोई बला उनके पीछे पड़ गयी थी।
कविता के तीसरे छंद में कृष्ण के हाथों का वर्णन किया गया है। कृष्ण के हाथ छबीली छैलरा की छरी जैसे थे। उनके हाथों में मणि जटित माधुरी मूँदरी थी। कृष्ण के हाथ इतने सुंदर थे कि उन्हें देखकर गोपियाँ मोहित हो जाती थीं।
कविता के चौथे छंद में कृष्ण की जुल्फों का वर्णन किया गया है। कृष्ण की जुल्फें कठिन कुटिल कारी से बनी हुई थीं। वे अलि कलित बिहारी लगती थीं। कृष्ण की जुल्फें इतनी सुंदर थीं कि उन्हें देखकर गोपियाँ मोहित हो जाती थीं।
कविता के पांचवें छंद में कृष्ण की आँखों का वर्णन किया गया है। कृष्ण की आँखें ज़रद बसन-वाली गुल चमन देखती थीं। वे झुक झुक मतवाला गावता रेखता था। कृष्ण की आँखें इतनी सुंदर थीं कि उन्हें देखकर गोपियाँ मोहित हो जाती थीं।
कविता के छठे छंद में कृष्ण की बाँहों का वर्णन किया गया है। कृष्ण की बाँहें तरल तरनि सी हैं तीर सी नोकदार हैं। वे अमल कमल सी हैं दीर्घ हैं और दिल बिदारती हैं। कृष्ण की बाँहें इतनी सुंदर थीं कि उन्हें देखकर गोपियाँ मोहित हो जाती थीं।
कविता के सातवें छंद में कृष्ण की भौहों का वर्णन किया गया है। कृष्ण की भौहें भुजंग जुग किधौं हैं काम कमनैत सोहैं। वे नटवर की मान भौंहें हैं। कृष्ण की भौहें इतनी सुंदर थीं कि उन्हें देखकर गोपियाँ मोहित हो जाती थीं।
कविता के आठवें छंद में एक पठानी स्त्री की बातचीत का वर्णन किया गया है। पठानी स्त्री कहती है कि भगवान कृष्ण की मृदु बानी बेदुरुस्ती अकिल में और सरल सरल सानी कै गई सार दिल में। पठानी स्त्री भी कृष्ण की मोहिनी से आकर्षित हो गयी है।
कविता के नौवें छंद में फिर से कृष्ण के रूप का वर्णन किया गया है। कृष्ण फलित ललित माला वा जवाहिर जड़ा था। वे चपल चखन वाला चान्दनी में खड़ा था। उनकी कमर के पास पीतांबर और सेला नवेला लहरा रहा था। कृष्ण का रूप अलबेला और मोहक था।
कविता के अंत में कवि फिर से आश्चर्य व्यक्त करता है कि यह काम-प्रभाव था या कोई बला उनके पीछे पड़ गयी थी।
शरद-निशि निशीथे चाँद की रोशनाई ।
सघन वन निकुंजे वंशी बजाई ।।
रति, पति, सुत, निद्रा, साइयाँ छोड़ भागी ।
मदन-शिरसि भूय: क्या बला आन लागी ।।1।।
कलित ललित माला या जवाहिर जड़ा था ।
चपल चखन वाला चाँदनी में खड़ा था ।।
कटि-तट बिच मेला पीत सेला नवेला ।
अलि बन अलबेला यार मेरा अकेला ।।2।।
दृग छकित छबीली छैलरा की छरी थी ।
मणि जटित रसीली माधुरी मूँदरी थी ।।
अमल कमल ऐसा खूब से खूब देखा ।
कहि सकत न जैसा श्याम का हस्त देखा ।।3।।
कठिन कुटिल कारी देख दिलदार जुलफे ।
अलि कलित बिहारी आपने जी की कुलफें ।।
सकल शशिकला को रोशनी-हीन लेखौं ।
अहह! ब्रजलला को किस तरह फेर देखौं ।।4।।
ज़रद बसन-वाला गुल चमन देखता था ।
झुक झुक मतवाला गावता रेखता था ।।
श्रुति युग चपला से कुण्डलें झूमते थे ।
नयन कर तमाशे मस्त ह्वै घूमते थे ।।5।।
तरल तरनि सी हैं तीर सी नोकदारैं ।
अमल कमल सी हैं दीर्घ हैं दिल बिदारैं ।।
मधुर मधुप हेरैं माल मस्ती न राखें ।
विलसति मन मेरे सुंदरी श्याम आँखें ।।6।।
भुजंग जुग किधौं हैं काम कमनैत सोहैं ।
नटवर! तव मोहैं बाँकुरी मान भौंहें ।।
सुनु सखि! मृदु बानी बेदुरुस्ती अकिल में ।
सरल सरल सानी कै गई सार दिल में ।।7।।
पकरि परम प्यारे साँवरे को मिलाओ ।
असल समृत प्याला क्यों न मुझको पिलाओ ।।
इति वदति पठानी मनमथांगी विरागी ।
मदन शिरसि भूय; क्या बला आन लागी ।।8।।
फलित ललित माला वा जवाहिर जड़ा था ।
चपल चखन वाला चान्दनी में खड़ा था ।।
कटि तट बिच मेला पीत सेला नवेला।
अली, बन अलबेला यार मेरा अकेला ।।9।।
सघन वन निकुंजे वंशी बजाई ।।
रति, पति, सुत, निद्रा, साइयाँ छोड़ भागी ।
मदन-शिरसि भूय: क्या बला आन लागी ।।1।।
कलित ललित माला या जवाहिर जड़ा था ।
चपल चखन वाला चाँदनी में खड़ा था ।।
कटि-तट बिच मेला पीत सेला नवेला ।
अलि बन अलबेला यार मेरा अकेला ।।2।।
दृग छकित छबीली छैलरा की छरी थी ।
मणि जटित रसीली माधुरी मूँदरी थी ।।
अमल कमल ऐसा खूब से खूब देखा ।
कहि सकत न जैसा श्याम का हस्त देखा ।।3।।
कठिन कुटिल कारी देख दिलदार जुलफे ।
अलि कलित बिहारी आपने जी की कुलफें ।।
सकल शशिकला को रोशनी-हीन लेखौं ।
अहह! ब्रजलला को किस तरह फेर देखौं ।।4।।
ज़रद बसन-वाला गुल चमन देखता था ।
झुक झुक मतवाला गावता रेखता था ।।
श्रुति युग चपला से कुण्डलें झूमते थे ।
नयन कर तमाशे मस्त ह्वै घूमते थे ।।5।।
तरल तरनि सी हैं तीर सी नोकदारैं ।
अमल कमल सी हैं दीर्घ हैं दिल बिदारैं ।।
मधुर मधुप हेरैं माल मस्ती न राखें ।
विलसति मन मेरे सुंदरी श्याम आँखें ।।6।।
भुजंग जुग किधौं हैं काम कमनैत सोहैं ।
नटवर! तव मोहैं बाँकुरी मान भौंहें ।।
सुनु सखि! मृदु बानी बेदुरुस्ती अकिल में ।
सरल सरल सानी कै गई सार दिल में ।।7।।
पकरि परम प्यारे साँवरे को मिलाओ ।
असल समृत प्याला क्यों न मुझको पिलाओ ।।
इति वदति पठानी मनमथांगी विरागी ।
मदन शिरसि भूय; क्या बला आन लागी ।।8।।
फलित ललित माला वा जवाहिर जड़ा था ।
चपल चखन वाला चान्दनी में खड़ा था ।।
कटि तट बिच मेला पीत सेला नवेला।
अली, बन अलबेला यार मेरा अकेला ।।9।।
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