कवचं श्रोतुमिच्छामि तां च विद्यां दशाक्षरीम्। नाथ त्वत्तो हि सर्वज्ञ भद्रकाल्याश्च साम्प्रतम्॥
नारायण उवाच
श्रृणु नारद वक्ष्यामि महाविद्यां दशाक्षरीम्। गोपनीयं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम्॥
ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहेति च दशाक्षरीम्। दुर्वासा हि ददौ राज्ञे पुष्करे सूर्यपर्वणि॥
दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धि: कृता पुरा। पञ्चलक्षजपेनैव पठन् कवचमुत्तमम्॥
बभूव सिद्धकवचोऽप्ययोध्यामाजगाम स:। कृत्स्नां हि पृथिवीं जिग्ये कवचस्य प्रसादत:॥
नारद उवाच
श्रुता दशाक्षरी विद्या त्रिषु लोकेषु दुर्लभा। अधुना श्रोतुमिच्छामि कवचं ब्रूहि मे प्रभो॥
नारायण उवाच
श्रृणु वक्ष्यामि विपे्रन्द्र कवचं परमाद्भुतम्। नारायणेन यद् दत्तं कृपया शूलिने पुरा॥
त्रिपुरस्य वधे घोरे शिवस्य विजयाय च। तदेव शूलिना दत्तं पुरा दुर्वाससे मुने॥
दुर्वाससा च यद् दत्तं सुचन्द्राय महात्मने। अतिगुह्यतरं तत्त्वं सर्वमन्त्रौघविग्रहम्॥
\ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मे पातु मस्तकम्। क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं ह्रीमिति लोचने॥
\ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां मे सदावतु। क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा दन्तं सदावतु॥
ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा पातु मेऽधरयुग्मकम्। \ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा कण्ठं सदावतु॥
\ ह्रीं कालिकायै स्वाहा कर्णयुग्मं सदावतु। \ क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा स्कन्धं पातु सदा मम॥
\ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्ष: सदावतु। \ क्रीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं सदावतु॥
\ ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पष्ठं सदावतु। रक्त बीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तौ सदावतु॥
\ ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा पादौ सदावतु। \ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सर्वाङ्गं मे सदावतु॥
प्राच्यां पातु महाकाली आगन्ेय्यां रक्त दन्तिका। दक्षिणे पातु चामुण्डा नैर्ऋत्यां पातु कालिका॥
श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु चण्डिका। उत्तरे विकटास्या च ऐशान्यां साट्टहासिनी॥
ऊध्र्व पातु लोलजिह्वा मायाद्या पात्वध: सदा। जले स्थले चान्तरिक्षे पातु विश्वप्रसू: सदा॥
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम्। सर्वेषां कवचानां च सारभूतं परात्परम्॥
सप्तद्वीपेश्वरो राजा सुचन्द्रोऽस्य प्रसादत:। कवचस्य प्रसादेन मान्धाता पृथिवीपति:॥
प्रचेता लोमशश्चैव यत: सिद्धो बभूव ह। यतो हि योगिनां श्रेष्ठ: सौभरि: पिप्पलायन:॥
यदि स्यात् सिद्धकवच: सर्वसिद्धीश्वरो भवेत्। महादानानि सर्वाणि तपांसि च व्रतानि च॥
निश्चितं कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥
इदं कवचमज्ञात्वा भजेत् कलीं जगत्प्रसूम्। शतलक्षप्रप्तोऽपि न मन्त्र: सिद्धिदायक:॥
श्रृणु नारद वक्ष्यामि महाविद्यां दशाक्षरीम्। गोपनीयं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम्॥
ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहेति च दशाक्षरीम्। दुर्वासा हि ददौ राज्ञे पुष्करे सूर्यपर्वणि॥
दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धि: कृता पुरा। पञ्चलक्षजपेनैव पठन् कवचमुत्तमम्॥
बभूव सिद्धकवचोऽप्ययोध्यामाजगाम स:। कृत्स्नां हि पृथिवीं जिग्ये कवचस्य प्रसादत:॥
नारद उवाच
श्रुता दशाक्षरी विद्या त्रिषु लोकेषु दुर्लभा। अधुना श्रोतुमिच्छामि कवचं ब्रूहि मे प्रभो॥
नारायण उवाच
श्रृणु वक्ष्यामि विपे्रन्द्र कवचं परमाद्भुतम्। नारायणेन यद् दत्तं कृपया शूलिने पुरा॥
त्रिपुरस्य वधे घोरे शिवस्य विजयाय च। तदेव शूलिना दत्तं पुरा दुर्वाससे मुने॥
दुर्वाससा च यद् दत्तं सुचन्द्राय महात्मने। अतिगुह्यतरं तत्त्वं सर्वमन्त्रौघविग्रहम्॥
\ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मे पातु मस्तकम्। क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं ह्रीमिति लोचने॥
\ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां मे सदावतु। क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा दन्तं सदावतु॥
ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा पातु मेऽधरयुग्मकम्। \ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा कण्ठं सदावतु॥
\ ह्रीं कालिकायै स्वाहा कर्णयुग्मं सदावतु। \ क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा स्कन्धं पातु सदा मम॥
\ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्ष: सदावतु। \ क्रीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं सदावतु॥
\ ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पष्ठं सदावतु। रक्त बीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तौ सदावतु॥
\ ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा पादौ सदावतु। \ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सर्वाङ्गं मे सदावतु॥
प्राच्यां पातु महाकाली आगन्ेय्यां रक्त दन्तिका। दक्षिणे पातु चामुण्डा नैर्ऋत्यां पातु कालिका॥
श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु चण्डिका। उत्तरे विकटास्या च ऐशान्यां साट्टहासिनी॥
ऊध्र्व पातु लोलजिह्वा मायाद्या पात्वध: सदा। जले स्थले चान्तरिक्षे पातु विश्वप्रसू: सदा॥
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम्। सर्वेषां कवचानां च सारभूतं परात्परम्॥
सप्तद्वीपेश्वरो राजा सुचन्द्रोऽस्य प्रसादत:। कवचस्य प्रसादेन मान्धाता पृथिवीपति:॥
प्रचेता लोमशश्चैव यत: सिद्धो बभूव ह। यतो हि योगिनां श्रेष्ठ: सौभरि: पिप्पलायन:॥
यदि स्यात् सिद्धकवच: सर्वसिद्धीश्वरो भवेत्। महादानानि सर्वाणि तपांसि च व्रतानि च॥
निश्चितं कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥
इदं कवचमज्ञात्वा भजेत् कलीं जगत्प्रसूम्। शतलक्षप्रप्तोऽपि न मन्त्र: सिद्धिदायक:॥
दशाक्षरी विद्या और काली कवच का महत्व और लाभ
दशाक्षरी विद्या और काली कवच का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणपति खंड में मिलता है। यह अद्भुत और दुर्लभ कवच भगवान शिव, नारायण, और दुर्वासा ऋषि द्वारा प्रदान किया गया था। इसकी शक्ति और प्रभाव अद्वितीय मानी जाती है। यह न केवल भौतिक सुख-सुविधाओं को प्रदान करता है, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति और सभी प्रकार की बाधाओं को दूर करने में सहायक है। काली कवच त्रिपुर वध के समय भगवान नारायण द्वारा शिवजी को प्रदान किया गया था। इस कवच को पढ़ने और अपनाने से व्यक्ति अपने जीवन में सभी प्रकार की परेशानियों से मुक्ति पा सकता है। यह सभी मंत्रों का सार है और इसे गोपनीय और अद्वितीय माना गया है।
दशाक्षरी विद्या और काली कवच का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणपति खंड में मिलता है। यह अद्भुत और दुर्लभ कवच भगवान शिव, नारायण, और दुर्वासा ऋषि द्वारा प्रदान किया गया था। इसकी शक्ति और प्रभाव अद्वितीय मानी जाती है। यह न केवल भौतिक सुख-सुविधाओं को प्रदान करता है, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति और सभी प्रकार की बाधाओं को दूर करने में सहायक है। काली कवच त्रिपुर वध के समय भगवान नारायण द्वारा शिवजी को प्रदान किया गया था। इस कवच को पढ़ने और अपनाने से व्यक्ति अपने जीवन में सभी प्रकार की परेशानियों से मुक्ति पा सकता है। यह सभी मंत्रों का सार है और इसे गोपनीय और अद्वितीय माना गया है।
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Author - Saroj Jangir
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