थारे घट में विराजे भगवान
थारे घट में विराजे भगवान राजस्थानी भजन
थारा घट में विराजे भगवान
मंदिर में काई ढूंढती डोले
कोरी मूरत धरी मंदिर में
वो ना मुख से बोले
दरवाजे दरबान खड़ा है
हुकुम करे जद खोले रे
मंदिर में काई ढूंढती डोले
थारा घट में विराजे भगवान्
मंदिर में काई ढूंढती डोले
गगन मंडल से गंगा उतरी
पांचू कपड़ा धो ले
बिन साबन थारो मैल कटे
काया तू निर्मल हो ले रे
मंदिर में काई ढूंढती डोले
थारा घट में विराजे भगवान्
मंदिर में काई ढूंढती डोले
नाथ गुलाब मिल्या गुरु पूरा
घट का पर्दा खोले
भानी नाथ शरण सत गुरु की
राई सूं पर्वत ओले रे
मंदिर में काई ढूंढती डोले
थारा घट में विराजे भगवान्
मंदिर में काई ढूंढती डोले
मंदिर में काई ढूंढती डोले
कोरी मूरत धरी मंदिर में
वो ना मुख से बोले
दरवाजे दरबान खड़ा है
हुकुम करे जद खोले रे
मंदिर में काई ढूंढती डोले
थारा घट में विराजे भगवान्
मंदिर में काई ढूंढती डोले
गगन मंडल से गंगा उतरी
पांचू कपड़ा धो ले
बिन साबन थारो मैल कटे
काया तू निर्मल हो ले रे
मंदिर में काई ढूंढती डोले
थारा घट में विराजे भगवान्
मंदिर में काई ढूंढती डोले
नाथ गुलाब मिल्या गुरु पूरा
घट का पर्दा खोले
भानी नाथ शरण सत गुरु की
राई सूं पर्वत ओले रे
मंदिर में काई ढूंढती डोले
थारा घट में विराजे भगवान्
मंदिर में काई ढूंढती डोले
!! Anil Nagori !! थारे घट में बिराजे भगवान बाहर काई ढूंढती फिरे !! अनिल नागौरी !!
दादू दुनिया बावरी , पूजे भोमिया भुत।
वे तो मरिया मोत सु ,भाई वासु मांगे पूत।
थारे घट में बिराजे भगवान।
थारे घट में बिराजे भगवान ,
बहार काई ढूंढती फिरे।
ढूंढती फिरे बहार ढूंढती फिरे ,
थारे घट में बिराजे भगवान।
बहार काई ढूंढती फिरे
नो नायी रे नोरता ,
दस वे नाई काती।
राम नाम की सार नी जाणे ,
फिरे गलियों रे माई नाटी।
पीपल रे डोरा बाँधती फिरे।
थारे घट में बिराजे भगवान।
मूरत कोर मंदिर में मेली ,
वा काई मुंडे बोले।
माई बैठो मस्त पुजारी ,
बिना हुकम नहीं खोले।
चन्दन का टिका काढ़ती फिरे।
थारे घट में बिराजे भगवान।
जीवत बाप री सार नी जाणे ,
मरिया गंगा ले जावे।
आसोजा में करे रे सरादा ,
कागा ने बाप बनावे।
आका रा पत्ता तोड़ती फिरे।
थारे घट में बिराजे भगवान।
उत्तर खंडा सु चाली नदिया ,
पांचो कपडा धोले।
राम नाम की साबुन लगाले ,
हरी भजना रे माई ओले।
नखराली सुरता नावती फिरे।
थारे घट में बिराजे भगवान।
रामानंद मिल्या गुरु पूरा ,
भरम जीव रा खोले।
कहत कबीर सुणो भाई साधो ,
पर्वत राई रे ओले।
पर्वत री छाया ढूंढती फिरे।
थारे घट में बिराजे भगवान ,
बहार काई ढूंढती फिरे।
ढूंढती फिरे बहार ढूंढती फिरे ,
थारे घट में बिराजे भगवान।
बहार काई ढूंढती फिरे,
वे तो मरिया मोत सु ,भाई वासु मांगे पूत।
थारे घट में बिराजे भगवान।
थारे घट में बिराजे भगवान ,
बहार काई ढूंढती फिरे।
ढूंढती फिरे बहार ढूंढती फिरे ,
थारे घट में बिराजे भगवान।
बहार काई ढूंढती फिरे
नो नायी रे नोरता ,
दस वे नाई काती।
राम नाम की सार नी जाणे ,
फिरे गलियों रे माई नाटी।
पीपल रे डोरा बाँधती फिरे।
थारे घट में बिराजे भगवान।
मूरत कोर मंदिर में मेली ,
वा काई मुंडे बोले।
माई बैठो मस्त पुजारी ,
बिना हुकम नहीं खोले।
चन्दन का टिका काढ़ती फिरे।
थारे घट में बिराजे भगवान।
जीवत बाप री सार नी जाणे ,
मरिया गंगा ले जावे।
आसोजा में करे रे सरादा ,
कागा ने बाप बनावे।
आका रा पत्ता तोड़ती फिरे।
थारे घट में बिराजे भगवान।
उत्तर खंडा सु चाली नदिया ,
पांचो कपडा धोले।
राम नाम की साबुन लगाले ,
हरी भजना रे माई ओले।
नखराली सुरता नावती फिरे।
थारे घट में बिराजे भगवान।
रामानंद मिल्या गुरु पूरा ,
भरम जीव रा खोले।
कहत कबीर सुणो भाई साधो ,
पर्वत राई रे ओले।
पर्वत री छाया ढूंढती फिरे।
थारे घट में बिराजे भगवान ,
बहार काई ढूंढती फिरे।
ढूंढती फिरे बहार ढूंढती फिरे ,
थारे घट में बिराजे भगवान।
बहार काई ढूंढती फिरे,
थारे घट में बिराजे भगवान।
प्रभु का वास हृदय में है, फिर भी मन मंदिरों की राह भटकता है। पत्थर की मूर्ति में उसे खोजता है, जो न बोलती है, न सुनती। मंदिर के द्वार पर नियमों का पहरा है, पर सच्चा मंदिर तो भीतर है, जहां प्रभु सदा विराजते हैं। यह भटकाव उस यात्री-सा है, जो प्यासा होकर भी अपने पास के जल को न देखे।
गंगा का पवित्र जल आत्मा को शुद्ध करता है। न साबुन चाहिए, न कोई विधि—केवल भक्ति का स्पर्श मन के मैल को धो देता है। जैसे धुले वस्त्र स्वच्छ हो जाते हैं, वैसे ही प्रेम और विश्वास से आत्मा निर्मल हो उठती है। यह शुद्धता बाहरी नहीं, हृदय की गहराई में पनपती है।
सच्चा गुरु वह दीपक है, जो हृदय के अंधेरे को मिटाता है। उनकी कृपा से मन का पर्दा हटता है, और प्रभु का दर्शन होता है। गुरु की शरण में राई-सा विश्वास भी पर्वत-सा चमत्कार करता है। यह प्रभु का प्रेम है, जो बाहर के मंदिरों से निकालकर आत्मा को अपने भीतर की यात्रा पर ले जाता है—जहां केवल प्रभु का आलिंगन है, और मन उनकी उपस्थिति में ठहर जाता है।
गंगा का पवित्र जल आत्मा को शुद्ध करता है। न साबुन चाहिए, न कोई विधि—केवल भक्ति का स्पर्श मन के मैल को धो देता है। जैसे धुले वस्त्र स्वच्छ हो जाते हैं, वैसे ही प्रेम और विश्वास से आत्मा निर्मल हो उठती है। यह शुद्धता बाहरी नहीं, हृदय की गहराई में पनपती है।
सच्चा गुरु वह दीपक है, जो हृदय के अंधेरे को मिटाता है। उनकी कृपा से मन का पर्दा हटता है, और प्रभु का दर्शन होता है। गुरु की शरण में राई-सा विश्वास भी पर्वत-सा चमत्कार करता है। यह प्रभु का प्रेम है, जो बाहर के मंदिरों से निकालकर आत्मा को अपने भीतर की यात्रा पर ले जाता है—जहां केवल प्रभु का आलिंगन है, और मन उनकी उपस्थिति में ठहर जाता है।
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