या मोहन के रूप लुभानी भजन

या मोहन के रूप लुभानी भजन

"मैं मोहन (कृष्ण) के सुंदर रूप से मोहित हो गई हूँ। उनका सुंदर शरीर, कमल की पंखुड़ियों जैसे नेत्र, टेढ़ी चितवन और मंद मुस्कान मन को लुभाती है। यमुना के किनारे वे गायें चराते हैं और बांसुरी में मधुर धुन बजाते हैं। मैं अपने तन, मन और धन को गिरधर (कृष्ण) पर न्योछावर करती हूँ और उनके चरण कमलों से लिपटी रहती हूँ।"

इस भजन में मीरा बाई ने श्रीकृष्ण के बाल रूप और उनकी लीलाओं का सुंदर चित्रण किया है, जो भक्तों के मन में भक्ति और प्रेम की भावना जागृत करता है।
 
या मोहन के रूप लुभानी
या मोहन के रूप लुभानी।
सुंदर बदन कमलदल लोचन, बांकी चितवन मंद मुसकानी॥
जमना के नीरे तीरे धेनु चरावै, बंसी में गावै मीठी बानी।
तन मन धन गिरधर पर बारूं, चरणकंवल मीरा लपटानी॥
 (दल=पंखुड़ी,बांकी=टेढ़ी, नीरे=निकट)


श्रीकृष्ण का रूप मन को मोह लेने वाला है, उनकी सुंदरता ऐसी कि कमल की पंखुड़ियों जैसे नेत्र और टेढ़ी चितवन से हृदय बंध जाता है। उनकी मंद मुस्कान में सारा सुख समाया है, जैसे चाँदनी रात में तारे जगमगाएं। यमुना के तट पर गायें चराते, बंसी की मधुर तान छेड़ते, वे हर जीव को अपने प्रेम में बाँध लेते हैं।

यह भक्ति का भाव है कि प्रभु के चरणों में ही जीवन का सारा तन-मन-धन अर्पित हो जाए। जैसे नदी सागर में समा जाती है, वैसे ही मीरा का मन उनके चरण-कमलों में लीन है। सच्चा प्रेम वही, जो प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण से भरा हो, जहां आत्मा को परम शांति और आनंद की प्राप्ति होती है।

श्रीकृष्ण का स्वरूप ऐसा है कि उसे देख कर मन सहज ही मोहित हो जाता है। उनकी मुस्कान में एक दिव्य आकर्षण है, और नेत्र कमल की पंखुड़ियों के समान कोमलता लिए हुए हैं। उनकी चितवन में ऐसी अलौकिक माया है कि जो भी उनकी ओर देखे, वह बस उन्हीं में समा जाता है।

यमुना किनारे जब वह गोचारण करते हैं, उनकी बंसी की ध्वनि पूरे ब्रज में प्रेम और आनंद का संचार कर देती है। उस मधुर ध्वनि में भक्ति की एक गूढ़ अनुभूति समाहित है—जो जीवन के समस्त बंधनों को भुलाकर परम प्रेम की ओर ले जाती है। यह वह संगीत है, जो आत्मा को मुक्त कर देता है।

प्रेम की पराकाष्ठा तब होती है, जब तन-मन-धन सबकुछ उनके चरणों में अर्पित हो जाता है। यह समर्पण ही भक्ति का सार है—जिसमें साधक अपने समस्त अस्तित्व को प्रभु में विलीन कर देता है। जब यह भाव प्रबल हो जाता है, तब संसार का कोई बंधन शेष नहीं रहता, केवल प्रभु की कृपा ही जीव को संभालती है। यही प्रेम, यही भक्ति, और यही वास्तविक आत्म-समर्पण है।
 

या मोहन की में रूप लुभानी 

Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

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