ये ब्रिजराजकूं अर्ज मेरी मीरा बाई
ये ब्रिजराजकूं अर्ज मेरी मीरा बाई
"हे ब्रज के राजा (कृष्ण), यह मेरी विनती है, जैसे राम हमारे हैं। आपके सिर पर मोर मुकुट और छत्र सुशोभित हैं, और कुंडलों की छवि निराली है। आपके पैरों में घुंघरू हैं, केसरिया वस्त्र धारण किए हैं, और ऊपर हजारों फूलों की माला है। मीरा कहती हैं, हे गिरिधर नागर, मैं आपके चरण कमलों पर बलिहारी जाती हूँ।" इस भजन में मीरा बाई ने श्रीकृष्ण के दिव्य स्वरूप का वर्णन करते हुए अपने पूर्ण समर्पण और प्रेम को प्रकट किया है।
ये ब्रिजराजकूं अर्ज मेरी
ये ब्रिजराजकूं अर्ज मेरी। जैसी राम हमारी॥टेक॥
मोर मुगुट श्रीछत्र बिराजे। कुंडलकी छब न्यारी॥१॥
हारी हारी पगया केशरी जामा। उपर फुल हाजारी॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमल बलिहारी॥३॥
ये ब्रिजराजकूं अर्ज मेरी। जैसी राम हमारी॥टेक॥
मोर मुगुट श्रीछत्र बिराजे। कुंडलकी छब न्यारी॥१॥
हारी हारी पगया केशरी जामा। उपर फुल हाजारी॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमल बलिहारी॥३॥
Meera Bai Bhajan
मीरा बाई के काव्य में विरोध के स्वर : भक्ति कालीन काव्य में मीरा बाई का स्थान कवित्री के रूप में सर्वोच्च रहा है। जहाँ एक और श्री कृष्ण के प्रति उनका प्रेम अथाह और पूर्ण समर्पण को दर्शाता है वहीँ दूसरी और नारी की वेदना भी परिलक्षित होती है। मीरा बाई के व्यक्तित्व को जब हम जानने का प्रयत्न करते हैं तो पाते हैं की मीरा बाई कृष्ण भक्त ही नहीं उनका दृष्टिकोण पूर्णतया मानवतावाद पर भी आधारित है। मीरा श्री कृष्ण के की भक्ति में इतना डूब गयीं की उन्हें इस संसार से भी कोई विशेष लगाव नहीं रहा। वे मंदिर में बैठ कर पांवों में घुंघरू बाँध कर नाचने लग जाती। तात्कालिक समाज में नारी को विशेष अधिकार प्राप्त नहीं थे विशेषकर भक्ति में। एक नारी होकर भजन गाना, नाचना ये उच्च कुल की स्त्रियों के लिए तो मानों पूर्णतया वर्जित था। यही नहीं मीरा बाई ने सभी बंधनों को तोड़ते हुए साधुओं की संगत में रहना भी शुरू कर दिया था। उस समय की सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था इसके पक्ष में नहीं थी।
प्रभु के प्रति हृदय से निकली अर्ज एक ऐसी पुकार है जो भक्ति और प्रेम की गहराई को छूती है। यह पुकार केवल शब्दों की नहीं, बल्कि उस अनन्य श्रद्धा की है जो प्रभु की दिव्य छवि में डूबकर आत्मा को उनके चरणों तक ले जाती है। प्रभु का रूप—मोर मुकुट, कुंडल की झलक, केशरी वस्त्र और फूलों की माला—मन में एक ऐसी तस्वीर उकेरता है जो सांसारिक माया से परे, शुद्ध आनंद की अनुभूति देता है। जैसे कोई भक्त अपनी आँखों से प्रभु को सजाता है, वैसे ही हृदय उनकी छवि को प्रेम से सँवारता है।
यह भक्ति का भाव है कि प्रभु का हर रूप, हर साज-शृंगार हृदय को आल्हादित करता है। उनकी एक झलक ही मन के सारे दुख-दर्द को मिटा देती है, जैसे सूरज की किरणें अंधेरे को चीर देती हैं। प्रभु का यह अलौकिक सौंदर्य केवल बाहरी नहीं, बल्कि उस प्रेम का प्रतीक है जो भक्त को हर पल उनके करीब लाता है। उनकी माया में खोया मन यह भूल जाता है कि संसार में और कुछ भी है।
प्रभु के चरणों में समर्पण ही भक्ति का सच्चा स्वरूप है। यह समर्पण माँग नहीं, बल्कि एक बलिहार भाव है—जहाँ भक्त अपने आप को प्रभु को अर्पित कर देता है। जैसे मीरा अपने गिरधर के चरणों में सब कुछ न्योछावर कर देती है, वैसे ही सच्चा भक्त प्रभु की शरण में जाकर सारी चिंताओं से मुक्त हो जाता है। यह विश्वास कि प्रभु सदा साथ हैं, मन को एक ऐसी शांति देता है जो किसी और सुख में नहीं मिलती।
प्रभु की यह अर्ज केवल एक प्रार्थना नहीं, बल्कि उस प्रेम का गान है जो हृदय को प्रभु के रंग में रंग देता है। उनकी छवि, उनका नाम, और उनकी भक्ति ही वह धागा है जो भक्त को प्रभु से जोड़े रखता है। यह प्रेम ही जीवन का सच्चा आधार है, जो हर क्षण प्रभु की उपस्थिति का अहसास कराता है और मन को उनके चरणों में सदा लीन रखता है।
यह भक्ति का भाव है कि प्रभु का हर रूप, हर साज-शृंगार हृदय को आल्हादित करता है। उनकी एक झलक ही मन के सारे दुख-दर्द को मिटा देती है, जैसे सूरज की किरणें अंधेरे को चीर देती हैं। प्रभु का यह अलौकिक सौंदर्य केवल बाहरी नहीं, बल्कि उस प्रेम का प्रतीक है जो भक्त को हर पल उनके करीब लाता है। उनकी माया में खोया मन यह भूल जाता है कि संसार में और कुछ भी है।
प्रभु के चरणों में समर्पण ही भक्ति का सच्चा स्वरूप है। यह समर्पण माँग नहीं, बल्कि एक बलिहार भाव है—जहाँ भक्त अपने आप को प्रभु को अर्पित कर देता है। जैसे मीरा अपने गिरधर के चरणों में सब कुछ न्योछावर कर देती है, वैसे ही सच्चा भक्त प्रभु की शरण में जाकर सारी चिंताओं से मुक्त हो जाता है। यह विश्वास कि प्रभु सदा साथ हैं, मन को एक ऐसी शांति देता है जो किसी और सुख में नहीं मिलती।
प्रभु की यह अर्ज केवल एक प्रार्थना नहीं, बल्कि उस प्रेम का गान है जो हृदय को प्रभु के रंग में रंग देता है। उनकी छवि, उनका नाम, और उनकी भक्ति ही वह धागा है जो भक्त को प्रभु से जोड़े रखता है। यह प्रेम ही जीवन का सच्चा आधार है, जो हर क्षण प्रभु की उपस्थिति का अहसास कराता है और मन को उनके चरणों में सदा लीन रखता है।
हृदय से निकली पुकार श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति और समर्पण की भावना है। प्रभु का रूप अनुपम है—मोर मुकुट, चमकते कुंडल, और केशरी वस्त्रों में सजे, जैसे सूरज की किरणें बादलों के बीच चमकें। उनके चरणों में सारा सौंदर्य और शक्ति समाई है। यह भक्ति का भाव है कि प्रभु का दर्शन ही जीवन का सच्चा सुख है, जैसे प्यासे को जल की बूँद अमृत बन जाए।
मीरा का मन उनके चरण-कमलों में रम गया, जहां न कोई चाह, न दुख, केवल प्रेम का आलम है। यह समर्पण सिखाता है कि सच्ची अर्ज वही, जो प्रभु के प्रति पूर्ण निष्ठा से भरी हो। जीवन का लक्ष्य उनके चरणों की शरण में मिलता है, जहां आत्मा को शांति और परम आनंद प्राप्त होता है।
मीरा का मन उनके चरण-कमलों में रम गया, जहां न कोई चाह, न दुख, केवल प्रेम का आलम है। यह समर्पण सिखाता है कि सच्ची अर्ज वही, जो प्रभु के प्रति पूर्ण निष्ठा से भरी हो। जीवन का लक्ष्य उनके चरणों की शरण में मिलता है, जहां आत्मा को शांति और परम आनंद प्राप्त होता है।
प्रभु की महिमा अनंत है—वह दिव्यता, सौंदर्य और करुणा का प्रतीक हैं। उनके मुख की आभा, उनके श्रीचरणों की शोभा, और उनके दिव्य अलंकार सब परम शरणागत के लिए आकर्षण का केन्द्र हैं। मोर-मुकुट से सुशोभित, श्रीछत्र की गरिमा से दीप्त, और कुंडलों की आभा से जगमगाते ब्रिजराज, दिव्य ऐश्वर्य से परिपूर्ण हैं।
वह केसरिया वस्त्र में सुशोभित हैं, जैसे सूर्य अपनी प्रभा से संपूर्ण जगत को आलोकित करता है। उनके चरणों पर समर्पित पुष्प न केवल भक्ति की अभिव्यक्ति हैं, बल्कि यह आत्मसमर्पण का प्रतीक भी हैं—जिसमें हर भक्त अपना सर्वस्व अर्पित करना चाहता है।
ईश्वर की उपासना में पूर्ण प्रेम ही सबसे बड़ा समर्पण है। जब हृदय उस दिव्य चरणों की शरण में आता है, तब संसार की समस्त व्याकुलताएँ विलीन हो जाती हैं। यही वह भाव है, जिसमें आत्मा अपनी पूर्णता को पाती है, और प्रभु में विलीन हो जाती है। उनके चरणकमलों की सेवा ही सच्ची भक्ति की पराकाष्ठा है, और यही जीवन की सार्थकता है।
वह केसरिया वस्त्र में सुशोभित हैं, जैसे सूर्य अपनी प्रभा से संपूर्ण जगत को आलोकित करता है। उनके चरणों पर समर्पित पुष्प न केवल भक्ति की अभिव्यक्ति हैं, बल्कि यह आत्मसमर्पण का प्रतीक भी हैं—जिसमें हर भक्त अपना सर्वस्व अर्पित करना चाहता है।
ईश्वर की उपासना में पूर्ण प्रेम ही सबसे बड़ा समर्पण है। जब हृदय उस दिव्य चरणों की शरण में आता है, तब संसार की समस्त व्याकुलताएँ विलीन हो जाती हैं। यही वह भाव है, जिसमें आत्मा अपनी पूर्णता को पाती है, और प्रभु में विलीन हो जाती है। उनके चरणकमलों की सेवा ही सच्ची भक्ति की पराकाष्ठा है, और यही जीवन की सार्थकता है।
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Author - Saroj Jangir
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