राणा जी अब न रहूंगी तोर हठ की भजन
राणा जी अब न रहूंगी तोर हठ की भजन
राणा जी अब न रहूंगी तोर हठ कीराणा जी...हे राणा जी
राणा जी अब न रहूंगी तोर हठ की
साधु संग मोहे प्यारा लागे
लाज गई घूंघट की
हार सिंगार सभी ल्यो अपना
चूड़ी कर की पटकी
महल किला राणा मोहे न भाए
सारी रेसम पट की
राणा जी... हे राणा जी
जब न रहूंगी तोर हठ की
भई दीवानी मीरा डोले
केस लटा सब छिटकी
राणा जी... हे राणा जी!
अब न रहूंगी तोर हठ की।
मीरा की भक्ति सांसारिक बंधनों और सामाजिक मान्यताओं से ऊपर उठकर ईश्वर की ओर प्रवाहित होती है। यह केवल एक विद्रोह नहीं, बल्कि आत्मा की उस पुकार का स्वरूप है, जहाँ व्यक्ति प्रत्येक सांसारिक मोह को त्यागकर प्रभु की आराधना में मग्न हो जाता है। साधु-संगति में मीरा का मन रम गया, और उसके लिए अब सांसारिक सुख, आभूषण, और महल-किले का कोई आकर्षण नहीं रह गया।
जब आत्मा ईश्वर के प्रेम में पूर्ण रूप से समर्पित हो जाती है, तब वह किसी भी बंधन में नहीं रहती। लोक-लाज, कुल की मर्यादा, और सामाजिक परंपराएँ उसके पथ में बाधा नहीं बनतीं। यह साधना केवल विचारों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि जीवन की दिशा को बदल देती है। हरि के नाम में नृत्य, भक्ति, और उनकी सेवा में मीरा का मन इतना रम गया कि वह सांसारिक मूल्यों से मुक्त हो गई।
भक्ति की यह अवस्था केवल त्याग नहीं, बल्कि एक गहन जागरण भी है। जब व्यक्ति अपने अहं को मिटाकर ईश्वर के चरणों में पूर्ण समर्पण कर देता है, तब वह संसार की हर उलझन से ऊपर उठ जाता है। मीरा के इस भाव में वही संदेश है—कि जब प्रेम सच्चा होता है, तब किसी भी रूढ़ि, परंपरा या सामाजिक व्यवस्था की कोई सीमा भक्त को ईश्वर की भक्ति से दूर नहीं कर सकती।
राणाजी का हठ अब मीराबाई को बाँध नहीं सकता, क्योंकि मन प्रभु के प्रेम में रंग गया है। साधुओं का संग इतना प्यारा कि लोकलाज और घूँघट की मर्यादा भूल गई। गहने, चूड़ियाँ, सजावट—सब छोड़ दिया, क्योंकि ये बंधन बनते हैं। महल, किला, रेशमी कपड़े—इनका मोह नहीं, मन तो सादगी में रमा है। मीराबाई दीवानी बनकर डोलती है, केश बिखरे, मन प्रभु के रंग में डूबा। यह प्रेम और भक्ति ऐसी है, जो हर सांस को गिरधर के करीब ले जाती है, और दुनिया के हठ को तुच्छ कर देती है।