रमईया मेरे तोही सूं लागी नेह

रमईया मेरे तोही सूं लागी नेह

रमईया मेरे तोही सूं लागी नेह
रमईया मेरे तोही सूं लागी नेह।।टेक।।
लागी प्रीत जिन तोड़ै रे वाला, अधिकौ कीजै नेह।
जै हूँ ऐसी जानती रे बाला, प्रीत कीयाँ दुष होय।
नगर ढँढोरो फेरती रे, प्रीत करो मत कोय।
वीर न षाजे आरी रे, मूरष न कीजै मिन्त।
षिण तात षिण सीतला रे, षिण वैरी षिण मिन्त।
प्रीत करै ते बाबरा रे, करि तोड़ै ते कूर।
प्रीत निभावण दल के षभण, ते कोई बिरला सूर।
तम गजगीरी कों चूँतरौरे, हम बालू की भीत।
अब तो म्याँ कैसे ब्रणै रै, पूरब जनम की प्रीत।
एकै थाणे रोपिया रे, इक आँबो इक बूल।
बाकौ रस नीकौ लगै रै, बाकी भागे सूल।
ज्यूं डूगर का बाहला रे, यूँ ओछा तणा स्नेह।
बहता बहेजी उतावरा रे, वे तो सटक बतावे छेह।
आयो साँवण भादवा रे, बोलण लागा मोर।
मीराँ कूँ हरिजन मिल्या रे, ले गया पवन झकोर।।

(नेह=प्रेम, बाला=वाल्हा,प्रियतम, दुष=दुख, ढंढोरों फेरती=ढोल बजा बजाकर कहती, मूरष=मूर्ख, मिन्त=मित,मित्र, षिण=क्षण, ताता=गर्म, कूर=क्रूर, निठूर, षभण=बंधन,बाधाएं, गजगोरी कों चूंततौरे=  सुद्दढ़ चबूतरा, थाणे=स्थान पर, आँबों=आम, बूल= बूबल, नीको=अच्छा, सूल=शूल,काँटे, डूंगर=ऊंचाई,  बाहला=बहने वाले स्त्रोत, सटक बतावे छेह=शीघ्र ही नष्ट कर देता है,तोड़ देता है)
 
राम के प्रति प्रेम मन में गहरे जड़ें जमाए है, जैसे कोई अटूट बंधन। यह प्रीत ऐसी कि टूट जाए तो और गहरा नेह उमड़े। दुनिया को देखकर लगता, प्रेम दुख लाता है, फिर भी मीराबाई ढोल बजाकर कहती है—प्रेम मत करो, पर मन तो प्रभु में रम ही गया। मित्र-शत्रु, गर्मी-सर्दी, सब क्षणभंगुर, पर प्रेम का बंधन तोड़ने वाला क्रूर, और निभाने वाला बिरला सूरमा। यह प्रेम जैसे बालू की दीवार और प्रभु का गजबुर्ज—नाजुक, फिर भी अडिग। आम और बबूल एक जगह उगें, पर रस केवल प्रिय का ही मीठा। सांसारिक प्रेम पहाड़ के झरने-सा, क्षण में बह जाता है। सावन आया, मोर बोला, पर मीराबाई का मन हरि के झकोरे में उड़ गया। वह प्रेम ही है, जो हर सांस को प्रभु के करीब ले जाता है।
 
यह भजन गहन प्रेम और अटूट श्रद्धा का प्रतीक है—एक ऐसी भावना जो किसी भी सांसारिक सीमा से परे है। यह प्रेम केवल अनुराग नहीं, बल्कि उस आत्मिक बंधन की अभिव्यक्ति है, जो जन्मों से जुड़ा हुआ है। जब भक्त इस प्रीत को तोड़ने का प्रयास करता है, तब वह केवल दुःख और विछोह की अनुभूति करता है, क्योंकि यह प्रेम परम सत्य से जुड़ा हुआ है।

यह प्रेम हल्का नहीं, बल्कि अचल और गहराई से भरा है। इसे साधारण स्नेह की तरह बहाकर समाप्त नहीं किया जा सकता—यह तो गहरे आत्म-संपर्क का स्वरूप है। जैसे डूंगर की ऊँचाई से उतरने वाले जल-स्त्रोत जल्द ही विलीन हो जाते हैं, वैसे ही अधूरा प्रेम ठहर नहीं सकता। केवल वही प्रेम टिकता है, जो आत्मा के सत्य को पहचान कर अनंतता में समाहित हो जाता है।

जब भक्त साँवण की ठंडी बयार में प्रभु की उपस्थिति को अनुभव करता है, तब उसकी आत्मा उनकी कृपा के स्पर्श से पुलकित हो जाती है। यह वह अवस्था है, जहाँ कोई भी विछोह केवल बाहरी होता है, और भीतर केवल मिलन की चेतना रह जाती है। यही प्रेम का अंतिम सत्य है—जहाँ आत्मा और परमात्मा के बीच कोई दूरी नहीं रहती, केवल आस्था और आनंद की अनुभूति ही शेष रहती है।
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