हो कांनां किन गूँथी जुल्फां कारियां
हो कांनां किन गूँथी जुल्फां कारियां
हो कांनां किन गूँथी जुल्फां कारियां मीरा भजनहो कांनां किन गूँथी जुल्फां कारियां।।टेक।।
सुधर कला प्रवीन हाथन सूँ, जसुमति जू ने सबारियां।
जो तुंम आओ मेरी बाखरियां, जरि राखूँ चन्दन किवारियां।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, इन जुलफन पर वारियां।।
(कांनां=कृष्ण, जुल्फां=लटें, सुधर=सुन्दर, प्रवीन=प्रवीण, निपुण, बाखरियां=मकान, जरि राखूँ=भली प्रकार बन्द करके रखूँ, वारियाँ=न्यौछावर होती हूँ)
सुंदर भजन में श्रीकृष्णजी के अनुपम सौंदर्य और उनकी मोहक छवि की सराहना प्रकट होती है। उनकी गहरी, घनी अलकों में अनुराग की अभिव्यक्ति सजीव होती है। यह प्रेम केवल बाह्य रूप का नहीं, बल्कि उस दिव्य आकर्षण का प्रतीक है, जो आत्मा को अपने प्रियतम की ओर खींचता है।
जब श्रीकृष्णजी की छवि मन को विभोर कर देती है, तब समर्पण स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है। मीराबाई का यह भाव दिखाता है कि जब प्रेम सच्चा होता है, तब भक्त अपने प्रिय के हर स्वरूप को अपनाने और उसकी प्रत्येक विशेषता को सराहने के लिए तत्पर रहता है।
प्रेम में जब समर्पण गहरा हो जाता है, तब मन और आत्मा प्रियतम के स्मरण में ही लीन रहती है। श्रीकृष्णजी का अलौकिक रूप केवल बाहरी सौंदर्य नहीं, बल्कि उनकी दिव्यता का प्रतीक है, जो भक्त के हृदय में प्रेम और श्रद्धा की लहरें उत्पन्न करता है। यह भाव भक्ति की पराकाष्ठा है, जहाँ प्रेम केवल आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा की अनवरत यात्रा बन जाता है।
जब श्रीकृष्णजी की छवि मन को विभोर कर देती है, तब समर्पण स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है। मीराबाई का यह भाव दिखाता है कि जब प्रेम सच्चा होता है, तब भक्त अपने प्रिय के हर स्वरूप को अपनाने और उसकी प्रत्येक विशेषता को सराहने के लिए तत्पर रहता है।
प्रेम में जब समर्पण गहरा हो जाता है, तब मन और आत्मा प्रियतम के स्मरण में ही लीन रहती है। श्रीकृष्णजी का अलौकिक रूप केवल बाहरी सौंदर्य नहीं, बल्कि उनकी दिव्यता का प्रतीक है, जो भक्त के हृदय में प्रेम और श्रद्धा की लहरें उत्पन्न करता है। यह भाव भक्ति की पराकाष्ठा है, जहाँ प्रेम केवल आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा की अनवरत यात्रा बन जाता है।