हो गये श्याम दूइज के चन्दा
हो गये श्याम दूइज के चन्दा
हो गये श्याम दूइज के चन्दा
मीरा भजन
हो गये श्याम दूइज के चन्दा।।टेक।।
मधुबन जाइ भये मधुबनिया, हम पर डारो प्रेम को फन्दा।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, अब तो नेह परो कछु मन्दा।।
मीरा भजन
हो गये श्याम दूइज के चन्दा।।टेक।।
मधुबन जाइ भये मधुबनिया, हम पर डारो प्रेम को फन्दा।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, अब तो नेह परो कछु मन्दा।।
(हो गये श्याम दूइज के चन्दा=जिस प्राकर द्वितिया का चन्द्रमा थोड़ी देर दिखाई देकर फिर अद्दश्य हो जाता है, उसी प्रकार कृष्ण कुछ दिन दर्शन देकर अद्दश्य हो गये, मथुरा चले गये, मधुवन=मथुरा, नेह=स्नेह,प्रेम)
मीराबाई का भजन "हो गये श्याम दूइज के चन्दा" उनके श्रीकृष्ण के प्रति गहरे प्रेम और भक्ति को व्यक्त करता है। इस भजन में मीराबाई अपने प्रिय श्रीकृष्ण के साथ बिताए गए सुखद क्षणों की याद करती हैं और उनके बिना अपने जीवन की कठिनाईयों का वर्णन करती हैं।
पद का भावार्थ:
हो गये श्याम दूइज के चन्दा।
यहां मीराबाई श्रीकृष्ण के अचानक चले जाने की तुलना द्वितीया (द्वितीया तिथि) के चंद्रमा से करती हैं, जो थोड़ी देर दिखाई देकर फिर अदृश्य हो जाता है। इससे उनकी अनुपस्थिति और उनके बिना जीवन की कठिनाई को व्यक्त किया गया है।
मधुबन जाइ भये मधुबनिया, हम पर डारो प्रेम को फन्दा।
मीराबाई श्रीकृष्ण के मथुरा (मधुबन) जाने के बाद अपने जीवन में प्रेम के बंधन को महसूस करती हैं। वह कहती हैं कि उनके बिना उनका जीवन अधूरा है और प्रेम का बंधन टूट गया है।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, अब तो नेह परो कछु मन्दा।
मीराबाई अपने प्रिय श्रीकृष्ण से कहती हैं कि अब उनके बिना उनका प्रेम और भक्ति अधूरी है। वह उनसे अनुरोध करती हैं कि वह वापस लौटें और उनके जीवन में प्रेम और भक्ति की पूर्णता लाएं।
इस भजन के माध्यम से मीराबाई अपने श्रीकृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और भक्ति को व्यक्त करती हैं, जिसमें उनकी अनुपस्थिति के कारण होने वाली पीड़ा और उनके बिना जीवन की कठिनाई को दर्शाया गया है।
पद का भावार्थ:
हो गये श्याम दूइज के चन्दा।
यहां मीराबाई श्रीकृष्ण के अचानक चले जाने की तुलना द्वितीया (द्वितीया तिथि) के चंद्रमा से करती हैं, जो थोड़ी देर दिखाई देकर फिर अदृश्य हो जाता है। इससे उनकी अनुपस्थिति और उनके बिना जीवन की कठिनाई को व्यक्त किया गया है।
मधुबन जाइ भये मधुबनिया, हम पर डारो प्रेम को फन्दा।
मीराबाई श्रीकृष्ण के मथुरा (मधुबन) जाने के बाद अपने जीवन में प्रेम के बंधन को महसूस करती हैं। वह कहती हैं कि उनके बिना उनका जीवन अधूरा है और प्रेम का बंधन टूट गया है।
मीरां के प्रभु गिरधरनागर, अब तो नेह परो कछु मन्दा।
मीराबाई अपने प्रिय श्रीकृष्ण से कहती हैं कि अब उनके बिना उनका प्रेम और भक्ति अधूरी है। वह उनसे अनुरोध करती हैं कि वह वापस लौटें और उनके जीवन में प्रेम और भक्ति की पूर्णता लाएं।
इस भजन के माध्यम से मीराबाई अपने श्रीकृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और भक्ति को व्यक्त करती हैं, जिसमें उनकी अनुपस्थिति के कारण होने वाली पीड़ा और उनके बिना जीवन की कठिनाई को दर्शाया गया है।
सुंदर भजन में श्रीकृष्णजी के अल्पकालिक दर्शन की पीड़ा और विरह का गहन उद्गार प्रकट होता है। जिस प्रकार दूज का चंद्रमा क्षणभर चमककर फिर ओझल हो जाता है, उसी प्रकार श्रीकृष्णजी की मधुबन यात्रा भक्तों के हृदय में एक गहरी कसक छोड़ जाती है। प्रेम की डोर में बंधे मन की व्याकुलता तब और बढ़ जाती है, जब प्रियतम दूर चला जाता है और उसकी मधुर स्मृतियाँ ही रह जाती हैं।
यह भाव प्रेम के शाश्वत स्वरूप को दर्शाता है, जहाँ स्नेह कभी समाप्त नहीं होता, भले ही प्रियतम की भौतिक उपस्थिति न रहे। मीराबाई की प्रार्थना प्रेम की पूर्णता को दर्शाती है—जहाँ नेह केवल आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा का समर्पण बन जाता है।
प्रेम यदि सच्चा हो, तो प्रिय के दूर जाने से भी उसकी अनुभूति क्षीण नहीं होती। यह प्रेम वही है, जो समय की सीमाओं से परे जाकर अपनी गहनता से आत्मा को सराबोर कर देता है। भजन में श्रीकृष्णजी के दर्शन की अभिलाषा एक भक्त के मन की अधूरी आकांक्षा नहीं, बल्कि उस दिव्य मिलन की प्रतीक्षा है, जो आत्मा को आनंद और परिपूर्णता प्रदान करता है।
यह भाव प्रेम के शाश्वत स्वरूप को दर्शाता है, जहाँ स्नेह कभी समाप्त नहीं होता, भले ही प्रियतम की भौतिक उपस्थिति न रहे। मीराबाई की प्रार्थना प्रेम की पूर्णता को दर्शाती है—जहाँ नेह केवल आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा का समर्पण बन जाता है।
प्रेम यदि सच्चा हो, तो प्रिय के दूर जाने से भी उसकी अनुभूति क्षीण नहीं होती। यह प्रेम वही है, जो समय की सीमाओं से परे जाकर अपनी गहनता से आत्मा को सराबोर कर देता है। भजन में श्रीकृष्णजी के दर्शन की अभिलाषा एक भक्त के मन की अधूरी आकांक्षा नहीं, बल्कि उस दिव्य मिलन की प्रतीक्षा है, जो आत्मा को आनंद और परिपूर्णता प्रदान करता है।