हमारे मन राधा स्याम बनी
हमारे मन राधा स्याम बनी
हमारे मन राधा स्याम बनी।।टेक।।कोई कहै मीराँ भई बावरी, कोई कहै कुलनासी।
खोल के घूँघट प्यार के गाती, हरि ढिग नाचत गासी।
वृन्दावन की कुँज गलिन में, भाल तिलक उर लासी।
विष को प्याला राणा जी भेज्याँ, पीवत मीराँ हांसी।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, भक्ति, मार्ग में फाँसी।।
(ढिग=पास, गासी=गाती है, उर=हृदय, लासी= लगाती है, हाँसी=हँसकर, फाँसी=फँस गई)
इस सुंदर भजन में प्रेम, समर्पण और त्याग का अद्भुत संगम प्रकट होता है। जब भक्त ईश्वर के प्रेम में पूर्ण रूप से लीन हो जाता है, तब समाज की धाराओं से परे केवल भक्ति का मार्ग ही उसका संबल बनता है। यह भाव आत्मा की गहन स्थिति को व्यक्त करता है, जहां सांसारिक मान्यताओं और लोकलाज का कोई प्रभाव नहीं रहता—केवल श्रीकृष्णजी का प्रेम ही उसके जीवन का आधार बन जाता है।
यह अनुभूति भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाती है, जहां प्रेम में उपहास और कठिनाइयाँ भी स्वीकार्य होती हैं। मीराबाई का यह भाव समाज के बंधनों से मुक्त होकर केवल प्रभु की आराधना में तल्लीन रहने की प्रेरणा देता है। जब आत्मा प्रेम और श्रद्धा की गहराइयों में उतरती है, तब ईश्वरीय आनंद के अतिरिक्त कुछ भी महत्वपूर्ण प्रतीत नहीं होता।
श्रीकृष्णजी के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित करने का यह भाव भक्ति की सबसे ऊंची अवस्था को प्रकट करता है। जब भक्त अपने आराध्य के स्मरण में स्थिर हो जाता है, तब विष भी अमृत हो जाता है, और कठिनाइयाँ भी उत्सव का रूप ले लेती हैं। यही प्रेम और श्रद्धा की सच्ची पहचान है—जहां मन केवल ईश्वर की भक्ति में रम जाता है, और समस्त सांसारिक द्वंद्व समाप्त होकर आत्मा को परम शांति का अनुभव कराते हैं। इस भाव में समर्पण, निर्भयता और दिव्यता का अद्भुत समन्वय दृष्टिगोचर होता है।
यह अनुभूति भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाती है, जहां प्रेम में उपहास और कठिनाइयाँ भी स्वीकार्य होती हैं। मीराबाई का यह भाव समाज के बंधनों से मुक्त होकर केवल प्रभु की आराधना में तल्लीन रहने की प्रेरणा देता है। जब आत्मा प्रेम और श्रद्धा की गहराइयों में उतरती है, तब ईश्वरीय आनंद के अतिरिक्त कुछ भी महत्वपूर्ण प्रतीत नहीं होता।
श्रीकृष्णजी के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित करने का यह भाव भक्ति की सबसे ऊंची अवस्था को प्रकट करता है। जब भक्त अपने आराध्य के स्मरण में स्थिर हो जाता है, तब विष भी अमृत हो जाता है, और कठिनाइयाँ भी उत्सव का रूप ले लेती हैं। यही प्रेम और श्रद्धा की सच्ची पहचान है—जहां मन केवल ईश्वर की भक्ति में रम जाता है, और समस्त सांसारिक द्वंद्व समाप्त होकर आत्मा को परम शांति का अनुभव कराते हैं। इस भाव में समर्पण, निर्भयता और दिव्यता का अद्भुत समन्वय दृष्टिगोचर होता है।