सूरत दीनानाथ से लगी तो

सूरत दीनानाथ से लगी तो

सूरत दीनानाथ से लगी तो तू समझ सुहागण सुरता नार॥
लगनी लहंगो पहर सुहागण, बीतो जाय बहार।
धन जोबन है पावणा रो, मिलै न दूजी बार॥
राम नाम को चुड़लो पहिरो, प्रेम को सुरमो सार।
नकबेसर हरि नाम की री, उतर चलोनी परलै पार॥
ऐसे बर को क्या बरूं, जो जनमें औ मर जाय।
वर वरिये इक सांवरो री, चुड़लो अमर होय जाय॥
मैं जान्यो हरि मैं ठग्यो री, हरि ठगि ले गयो मोय।
लख चौरासी मोरचा री, छिन में गेर्‌या छे बिगोय॥
सुरत चली जहां मैं चली री, कृष्ण नाम झणकार।
अविनासी की पोल मरजी मीरा करै छै पुकार॥

(सूरत=सुरत,लय, नार=नारी, लगनी=लगन,प्रीति, पावणा=पाहुना,अनित्य, चुड़लो=सौभाग्य की चूड़ी, परलै=संसारी बन्धन से छूटकर वहां चला जाना, जहां से लौटना नहीं होता है, गेर्‌यो छे बिगोय= नष्ट कर दिया है, पोल=दरवाजा)
 
मीराबाई का भजन "सूरत दीनानाथ से लगी तो तू समझ सुहागण सुरता नार" उनके श्रीकृष्ण के प्रति गहरे प्रेम और भक्ति को व्यक्त करता है। इस भजन में मीराबाई अपने प्रिय श्रीकृष्ण के आगमन की प्रतीक्षा करती हैं और उनके बिना अपने जीवन की कठिनाईयों का वर्णन करती हैं।

मीराबाई कहती हैं कि वह महलों में चढ़कर अपने प्रिय श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा करती हैं, लेकिन वह नहीं आ रहे हैं। वह कहती हैं कि मेंढ़क, मोर, पपीहा और कोयल सभी मधुर आवाज़ों में गा रहे हैं, और इन्द्रदेव चारों दिशाओं में वर्षा कर रहे हैं, लेकिन उनके प्रिय श्रीकृष्ण नहीं आ रहे हैं। वह कहती हैं कि धरती रूपी गिरधरनागर के बिना उनका जीवन अधूरा है।

इस भावपूर्ण भजन में मीराबाई की गहन भक्ति और श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम का सुंदर चित्रण किया गया है। जब आत्मा प्रभु से जुड़ जाती है, तो वह स्वयं को पूर्णता की अनुभूति से भर लेती है। यह अनुभूति प्रेम की उस अवस्था को दर्शाती है, जहां संसार की नश्वरता भक्त के मन को प्रभावित नहीं करती—केवल प्रभु के चरणों में समर्पण ही जीवन का सार प्रतीत होता है।

मीराबाई का भाव यह दर्शाता है कि सच्चा सौभाग्य और अमरत्व केवल ईश्वर की भक्ति में निहित है। जब मन प्रभु श्रीकृष्णजी के प्रेम में पूर्ण रूप से रम जाता है, तब सांसारिक बंधनों से ऊपर उठकर आत्मा उनके दिव्य आनंद में विलीन हो जाती है। भक्ति का यह पथ कठिनाइयों से भरा हो सकता है, लेकिन उसकी परिणति केवल शाश्वत सुख और शांति में होती है।

श्रीकृष्णजी के नाम का स्मरण वह अमृत है, जो जीवन के समस्त क्लेशों को समाप्त कर देता है। यह भजन न केवल ईश्वर के प्रेम को दर्शाता है, बल्कि यह भी संकेत करता है कि जब व्यक्ति उनकी भक्ति में अडिग रहता है, तो वह संसार के भ्रम से मुक्त होकर वास्तविक आनंद को प्राप्त करता है। यही सच्ची भक्ति का स्वरूप है—जहां प्रेम, समर्पण और श्रद्धा की गहनता आत्मा को दिव्यता की ओर ले जाती है। इस भाव में आत्मा की पुकार और प्रभु से एकाकार होने की लालसा स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है।
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