सुंदर मारो सांवरो भजन
सुंदर मारो सांवरो भजन
सुंदर मारो सांवरो। मारा घेर आउंछे वनमाली॥टेक॥नाना सुगंधी तेल मंगाऊं। ऊन ऊन पाणी तपाऊं छे॥
मारा मनमों येही वसे छे। आपने हात न्हवलाऊं छे॥१॥
खीर खांड पक्वान मिठाई। उपर घीना लडवा छे॥
मारो मनमों येही वसे छे। आपने होतसे जमाऊं छे॥२॥
सोना रुपानो पालनो बंधाऊं। रेशमना बंद बांधूं छे॥
मारा मनमों येडी वसे छे। आपने हात झूलाऊं छे॥३॥
मीराके प्रभू गिरिधर नागर। चरनकमल बलहारु छे॥
मारा मनमों येही वसे छे। अपना ध्यान धराऊं छे॥४॥
मीराबाई का भजन "सुंदर मारो सांवरो" उनके श्रीकृष्ण के प्रति गहरे प्रेम और भक्ति को व्यक्त करता है। इस भजन में मीराबाई अपने प्रिय श्रीकृष्ण के आगमन की प्रतीक्षा करती हैं और उनके बिना अपने जीवन की कठिनाईयों का वर्णन करती हैं।
मीराबाई कहती हैं कि वह महलों में चढ़कर अपने प्रिय श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा करती हैं, लेकिन वह नहीं आ रहे हैं। वह कहती हैं कि मेंढ़क, मोर, पपीहा और कोयल सभी मधुर आवाज़ों में गा रहे हैं, और इन्द्रदेव चारों दिशाओं में वर्षा कर रहे हैं, लेकिन उनके प्रिय श्रीकृष्ण नहीं आ रहे हैं। वह कहती हैं कि धरती रूपी गिरधरनागर के बिना उनका जीवन अधूरा है।
इस भजन में मीराबाई की गहरी भक्ति और श्रीकृष्णजी के प्रति उनके अनन्य प्रेम का भाव व्यक्त होता है। जब भक्त अपने आराध्य को अपने अंतःकरण में बसा लेता है, तब उसकी समस्त चिंताएँ तिरोहित हो जाती हैं, और उसके मन में केवल ईश्वर की आराधना का भाव रह जाता है।
मीराबाई अपने प्रिय प्रभु श्रीकृष्णजी की प्रतीक्षा में व्याकुल हैं। वह अपने आराध्य के आगमन के लिए सभी प्रकार की तैयारियाँ करती हैं—सुगंधित तेल, मधुर पकवान, स्वर्ण-रजत पालना, और रेशमी वस्त्रों से उनके स्वागत की आकांक्षा व्यक्त करती हैं। यह भक्ति का चरम रूप है, जहां आत्मा अपने प्रियतम के लिए संपूर्ण रूप से समर्पित हो जाती है।
श्रीकृष्णजी का प्रेम भक्त के जीवन को दिव्यता से भर देता है। जब मन केवल उनकी भक्ति में रम जाता है, तब सांसारिक सुख-दुख की कोई भी परिभाषा गौण हो जाती है। यह भजन समर्पण, प्रेम और निष्ठा की पराकाष्ठा को दर्शाता है, जहां आत्मा श्रीकृष्णजी के चरणों में पूर्ण रूप से समर्पित होकर आनंद का अनुभव करती है।
मीराबाई का यह भाव हमें सिखाता है कि सच्ची भक्ति केवल बाहरी क्रियाओं में नहीं, बल्कि आत्मा की गहन अनुभूति में निहित होती है। जब मन संपूर्ण रूप से ईश्वर को समर्पित करता है, तब समस्त जीवन एक मधुर संगीत की तरह प्रभु के प्रेम में गूंजने लगता है। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है—जहां भक्त अपने आराध्य में खोकर वास्तविक आनंद और शांति का अनुभव करता है।
मीराबाई अपने प्रिय प्रभु श्रीकृष्णजी की प्रतीक्षा में व्याकुल हैं। वह अपने आराध्य के आगमन के लिए सभी प्रकार की तैयारियाँ करती हैं—सुगंधित तेल, मधुर पकवान, स्वर्ण-रजत पालना, और रेशमी वस्त्रों से उनके स्वागत की आकांक्षा व्यक्त करती हैं। यह भक्ति का चरम रूप है, जहां आत्मा अपने प्रियतम के लिए संपूर्ण रूप से समर्पित हो जाती है।
श्रीकृष्णजी का प्रेम भक्त के जीवन को दिव्यता से भर देता है। जब मन केवल उनकी भक्ति में रम जाता है, तब सांसारिक सुख-दुख की कोई भी परिभाषा गौण हो जाती है। यह भजन समर्पण, प्रेम और निष्ठा की पराकाष्ठा को दर्शाता है, जहां आत्मा श्रीकृष्णजी के चरणों में पूर्ण रूप से समर्पित होकर आनंद का अनुभव करती है।
मीराबाई का यह भाव हमें सिखाता है कि सच्ची भक्ति केवल बाहरी क्रियाओं में नहीं, बल्कि आत्मा की गहन अनुभूति में निहित होती है। जब मन संपूर्ण रूप से ईश्वर को समर्पित करता है, तब समस्त जीवन एक मधुर संगीत की तरह प्रभु के प्रेम में गूंजने लगता है। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है—जहां भक्त अपने आराध्य में खोकर वास्तविक आनंद और शांति का अनुभव करता है।