सांवरियो रंग राचां भजन

सांवरियो रंग राचां भजन

सांवरियो रंग राचां राणां सांवरियो रंग राचां।।टेक।।
ताल पखावज मिरदंग बाजा, साधां आगे णाच्याँ।
बूझया माणे मदण बावरो, स्याम प्रीतम्हाँ काचाँ।
विष रो प्यालो राणा भेज्याँ, आराग्यां णा जांच्याँ।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, जनम जनम रो साँचाँ।।

(रंग=प्रेम, राचां=अनुरक्त होना,रंग जाना, ताल= ताली, मदण=मदन,प्रेमानुराग, काचां=कच्चा, आरोग्यां=पी लिया, णा=नहीं, जांच्यां=जाँचा,परखा)  

सुन्दर भजन में प्रेम, समर्पण और भक्ति की अद्वितीय गहराई प्रदर्शित होती है। जब मन श्रीकृष्ण के प्रेम में पूरी तरह रंग जाता है, तब सांसारिक सीमाएँ विलीन हो जाती हैं और भक्ति का उत्सव प्रारंभ होता है।

भक्त के भाव में ऐसा अनुराग होता है, जो ताल और पखावज की ध्वनि में मुखरित होता है। जब साधक समर्पण की अवस्था में पहुँच जाता है, तब उसकी साधना केवल नृत्य और संगीत में ही नहीं, बल्कि आत्मा के हर स्पंदन में प्रभु को अनुभव करती है।

प्रेम जब कच्चा होता है, तो उसमें संशय और परीक्षण की प्रवृत्ति रहती है। लेकिन जब वह परिपक्व होता है, तब आत्मसमर्पण में कोई संकोच नहीं रहता। यह भाव मीरा के प्रेम में स्पष्ट होता है—जहाँ विष का प्याला भी स्वीकार्य होता है, क्योंकि उसमें श्रीकृष्ण की लीला निहित है।

श्रीकृष्ण का प्रेम केवल इस जन्म तक सीमित नहीं, बल्कि अनंत जन्मों तक प्रवाहित रहता है। यह भक्ति की वह अवस्था है, जहाँ प्रेम नश्वरता से परे जाकर केवल आत्मा की शाश्वत यात्रा का मार्ग बन जाता है। यही वह आनंदमय समर्पण है, जिसमें भक्त और प्रभु के बीच कोई भेद नहीं रहता।
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