साँवरिया म्हाँरी प्रीतड़ली न्हिभाज्यो
साँवरिया म्हाँरी प्रीतड़ली न्हिभाज्यो
साँवरिया, म्हाँरी प्रीतड़ली न्हिभाज्यो ।।टेक।।प्रीत करो तो स्वामी ऐसी कीज्यो, अधबिच पत छिटकाज्यो।
तुम तो स्वामी गुण रा सागर, म्हाँरा ओगुण चित मति लाज्यो।
काया गढ़ घेरा ज्यों पड़्या छे, ऊपर आपर खाज्यो।
मीराँ के प्रभु गिरिधरनागर, चित्त रखाज्यो।।
(सांवरिया=कृष्ण, प्रीतड़ली=प्रीत, न्हिभाज्यो= निभाओ, छिटकाज्यो=दूर हटाओ, गुण रा सागर= गुणों के सागर, ओगुण=अवगुण,दोष, चित मति लाज्यो=ध्यान मत दो, काया=शरीर, गढ़=किला)
सुन्दर भजन में प्रेम की गहराई और श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव प्रवाहित होता है। जब किसी ने प्रेम किया है, तो वह केवल क्षणिक नहीं, बल्कि अनंत तक टिकने वाला होता है। सच्ची भक्ति में अधूरी राह पर छोड़ देना संभव नहीं—वह समर्पण की पराकाष्ठा तक पहुँचती है।
श्रीकृष्ण के गुण अनंत हैं, और उनकी करुणा समुद्र के समान विशाल है। भक्त अपने दोषों और कमजोरियों को स्वीकार करता है, परंतु प्रभु केवल प्रेम को देखते हैं—वे अवगुणों को छोड़कर आत्मा की शुद्धता को अपनाते हैं।
जीवन सांसारिक बंधनों में उलझा हुआ है, मानो एक दुर्ग में कैद हो। लेकिन जब भक्ति की राह पर बढ़ते हैं, तब वह किले की दीवारों को पार कर जाती है। प्रभु का प्रेम वह शक्ति है, जो आत्मा को इस जगत के भ्रम से मुक्त करता है।
श्रीकृष्ण की भक्ति में मन का स्थिर रहना ही सच्ची शरणागति है। जब आत्मा पूरी तरह समर्पित हो जाती है, तब उसे बाहरी कष्टों का कोई भय नहीं रहता—केवल प्रेम और भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित होती है।