साँवरी सुरत मण रे बसी भजन

साँवरी सुरत मण रे बसी भजन

साँवरी सुरत मण रे बसी ।।टेक।।
गिरधर ध्यान धराँ निसबासर, मण मोहण म्हारे बसी।
कहा कराँ कित जावाँ सजणी, म्हातो स्याम डसी।
मीराँ रे प्रभु कबरे मिलोगे, नित नव प्रीत रसी।।

(सुरत=सूरत, निसबासर=रात दिन, स्याम डसी= काले साँपने काट लिया है,कृष्ण का विरह, रसी= प्रभावित कर चुकी है)

मीराबाई का भजन "साँवरी सुरत मण रे बसी" उनके श्रीकृष्ण के प्रति गहरे प्रेम और भक्ति को व्यक्त करता है। इस भजन में मीराबाई अपने प्रिय श्रीकृष्ण की सुंदरता और उनके बिना अपने जीवन की कठिनाईयों का वर्णन करती हैं।

सुन्दर भजन में प्रेम की वह गहराई प्रवाहित होती है, जो श्रीकृष्ण के प्रति अखंड समर्पण और विरह की तीव्रता को दर्शाती है। जब मन में प्रभु का प्रेम जागृत हो जाता है, तब सांसारिक बंधन महत्वहीन हो जाते हैं, और केवल उनकी छवि ही हृदय में बस जाती है।

प्रभु का ध्यान दिन-रात मन में संचारित होता है, और उनकी अनुपस्थिति आत्मा को एक गहन पीड़ा से भर देती है। यह विरह केवल कष्ट नहीं, बल्कि प्रेम की उस स्थिति का प्रतीक है, जहाँ श्रीकृष्ण के बिना संसार की कोई वस्तु आनंद नहीं देती।

भक्त का हृदय अनंत प्रतीक्षा में रहता है, यह जानने के लिए कि प्रभु का साक्षात्कार कब और कैसे होगा। जब प्रेम में ऐसी अनुरक्ति उत्पन्न हो जाती है, तब भक्ति केवल एक भाव नहीं, बल्कि जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य बन जाती है। यही समर्पण और प्रेम की अवस्था है, जिसमें मनुष्य अपने अस्तित्व को ईश्वर की भक्ति में पूर्णतः विलीन कर देता है।

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