हूं जाऊं रे जमुना पाणीडा

हूं जाऊं रे जमुना पाणीडा

हूं जाऊं रे जमुना पाणीडा। एक पंथ दो काज सरे॥टेक॥
जळ भरवुं बीजुं हरीने मळवुं। दुनियां मोटी दंभेरे॥१॥
अजाणपणमां कांइरे नव सुझ्यूं। जशोदाजी आगळ राड करे॥२॥
मोरली बजाडे बालो मोह उपजावे। तल वल मारो जीव फफडे॥३॥
वृंदावनमें मारगे जातां। जन्म जन्मनी प्रीत मळे॥४॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। भवसागरनो फेरो टळे॥५॥
पद का भावार्थ:
मीराबाई कहती हैं कि वह यमुना नदी से जल भरने जाएंगी, जिससे एक ही मार्ग में दो कार्य संपन्न होंगे: जल भरना और श्रीकृष्ण से मिलना। वह कहती हैं कि जल भरने के बहाने वह अपने प्रियतम से मिलेंगी, जबकि संसार इसे सामान्य कार्य समझेगा। अपने अज्ञान के कारण वह कुछ समझ नहीं पाईं, जिससे यशोदा जी ने उन्हें डांटा। श्रीकृष्ण की मुरली की धुन सुनकर उनका मन मोहित हो जाता है, जिससे उनका हृदय व्याकुल हो उठता है। वृंदावन में मार्ग पर चलते हुए,

इस पद में मीराबाई अपनी गहरी भक्ति और प्रेम से प्रेरित होकर यमुना नदी पर जाने की इच्छा व्यक्त करती हैं। वह कहती हैं कि यमुना का पानी भरने के बहाने वह भगवान श्रीकृष्ण से मिलने की उम्मीद करती हैं। यह उनकी भक्ति का एक प्रतीक है, जहाँ संसार के सामने साधारण कार्य भी उनके लिए दिव्य हो जाता है। यशोदा जी की डांट को भी वह सहजता से स्वीकार करती हैं, क्योंकि उनके मन में केवल श्रीकृष्ण की मुरली की मधुर ध्वनि और उनकी भक्ति का प्रभाव है। अंत में, वह वृंदावन को अपनी भक्ति का केंद्र मानती हैं, जहाँ वह अपने प्रभु से जन्म-जन्मांतर का प्रेम निभाने की आकांक्षा रखती हैं।

सुंदर भजन में मीराबाई की भावनाओं का गहन प्रवाह प्रकट होता है। भक्ति की यह अवस्था केवल बाह्य आचरण नहीं, बल्कि आत्मा की गहनतम लालसा है। जब प्रेम ईश्वर से जुड़ जाता है, तब जीवन के हर क्रियाकलाप में उनकी छवि प्रतिबिंबित होती है।

यमुना तट पर जल भरने का कार्य मात्र एक बहाना बन जाता है, क्योंकि मन तो प्रियतम श्रीकृष्णजी के दर्शन के लिए व्याकुल है। यह भाव दर्शाता है कि जब प्रेम सच्चा होता है, तब वह किसी बाहरी स्थिति का मोहताज नहीं होता, बल्कि हर अवसर को ईश्वरीय मिलन की साधना बना लेता है।

मुरली की मधुर ध्वनि और श्रीकृष्णजी का मोहक स्वरूप मन को इस प्रकार बांध लेते हैं कि सांसारिक चेतना विलीन हो जाती है। वृंदावन की गलियाँ केवल स्थान नहीं, बल्कि अनंत प्रेम की यात्रा का प्रतीक बन जाती हैं।

मीराबाई की भक्ति केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि समर्पण की चरम सीमा तक पहुँच जाती है। श्रीकृष्णजी के बिना जीवन की कोई सार्थकता नहीं, और हर पग केवल उनकी ओर अग्रसर होने की अनवरत यात्रा बन जाता है। यही प्रेम की पराकाष्ठा है—जहाँ भक्त का प्रत्येक कर्म ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाता है।

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