हे माई म्हाँको गिरधरलाल

हे माई म्हाँको गिरधरलाल

हे माई म्हाँको गिरधरलाल ।।टेक।।
थाँरे चरणाँ की आनि करत हों, और न मणि लाल।
नात सगो परिवारो सारो, मन लागे मानो काल।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, छबि लखि भई निहाल।।

(म्हाँको=हमारा, आनि करत हों=पूजा करती हूँ, नात=नहीं तो, काल=मृत्यु, छवि=शोभा, निहाल= प्रसन्न,सफल)

पद का भावार्थ:
मीराबाई अपनी माता से कहती हैं कि उनके गिरधरलाल (भगवान श्रीकृष्ण) ही उनके सब कुछ हैं। वह कहती हैं कि वह केवल उनके चरणों की पूजा करती हैं और किसी अन्य मणि या लाल की उन्हें आवश्यकता नहीं है। अपने नाते-रिश्तेदारों और पूरे परिवार को वह मृत्यु के समान मानती हैं, क्योंकि उनका मन केवल श्रीकृष्ण में लगा है।
मीराबाई कहती हैं कि उनके प्रभु गिरधर नागर की छवि देखकर वह निहाल (प्रसन्न) हो गई हैं। यह पद मीराबाई की भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अटूट भक्ति, संसारिक संबंधों से विरक्ति और उनके दिव्य स्वरूप के दर्शन से प्राप्त आनंद को प्रकट करता है।



सुंदर भजन में भक्ति की पराकाष्ठा और आत्मसमर्पण का गहन उद्गार प्रकट होता है। जब प्रेम परमात्मा के चरणों में अर्पित हो जाता है, तब सांसारिक बंधनों का कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता। मीराबाई का समर्पण दर्शाता है कि जब मन श्रीकृष्णजी की भक्ति में रम जाता है, तब परिवार, नाते-रिश्ते और सांसारिक मोह मात्र अस्थायी प्रतीत होते हैं।

यह भाव शुद्ध प्रेम की गहराई को प्रकट करता है—जहाँ न कोई अन्य वस्तु की लालसा होती है, न ही जीवन-मृत्यु का बंधन। ईश्वर का स्वरूप इतना दिव्य और मनमोहक होता है कि उसके दर्शन मात्र से आत्मा निहाल हो जाती है। श्रीकृष्णजी की छवि, उनकी माधुर्यता, और उनके प्रति पूर्ण समर्पण ही सच्चे भक्त का वास्तविक सुख है।

मीराबाई की भक्ति सांसारिक सीमाओं से परे जाकर उनकी आत्मा को श्रीकृष्णजी के प्रेम में विलीन कर देती है। जब प्रेम इस स्तर तक पहुँचता है, तब उसका कोई विकल्प नहीं रहता—केवल श्रीकृष्णजी का सान्निध्य ही आनंद का सर्वोच्च स्रोत बन जाता है। यही भजन का सच्चा संदेश है—जहाँ प्रेम केवल भावना नहीं, बल्कि आत्मा का शाश्वत समर्पण बन जाता है।
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