लागी सोही जाणै कठण लगन दी पीर
लागी सोही जाणै कठण लगन दी पीर
लागी सोही जाणै, कठण लगन दी पीर।।टेक।।विपत पड्याँ कोई निकटि न आवै, सुख में, सब को सीर।
बाहरि घाव कछू नहिं दीसै, रोम रोम दी पीर।
जन मीराँ गिरधर के उपर, सदकै करूँ सरीर।।
मीरा बाई के इस पद में, वे ईश्वर के प्रति गहन प्रेम और भक्ति की कठिनाईयों का वर्णन करती हैं। वे कहती हैं कि इस प्रेम की पीड़ा वही समझ सकता है, जिसने इसे अनुभव किया हो। संकट के समय कोई साथ नहीं देता, जबकि सुख में सभी सहभागी बनते हैं। यह प्रेम बाहरी घाव जैसा नहीं है, जो दिखाई दे; यह तो रोम-रोम में व्याप्त पीड़ा है। मीरा स्वयं को गिरधर (कृष्ण) के प्रति समर्पित बताते हुए कहती हैं कि वे अपने शरीर को भी उनके लिए न्यौछावर करने को तैयार हैं।
(कठण=कठिन, लगण दी=प्रेम की, पीर=पीड़ा, सीर=हिस्सा दीसै=दिखाई देता है, सदकै=न्यौछावर)
सुन्दर भजन में भक्ति की अत्यंत गहन अनुभूति का उदगार है। मीराबाई का प्रेम श्रीकृष्णजी के प्रति अनन्य और आत्मसमर्पण से परिपूर्ण है। यह लगन वह पीड़ा है, जिसे केवल वह ही समझ सकता है, जिसने अपने हृदय को पूर्णतः ईश्वर को अर्पित किया हो।
संसार के व्यवहार में विपत्ति के समय कोई सहारा नहीं देता, परंतु सुख के समय सब समीप आ जाते हैं। यही भक्ति का सत्य है—जहाँ प्रेम बाहरी नहीं, बल्कि रोम-रोम में व्याप्त अनुभूति बन जाता है। ईश्वर के प्रति समर्पण वह प्रक्रिया है, जिसमें साधक प्रत्येक सांस में अपने आराध्य की उपस्थिति अनुभव करता है।
मीराबाई का समर्पण इस स्तर तक पहुँच जाता है कि वे अपना सम्पूर्ण अस्तित्व श्रीकृष्णजी को अर्पित करने को तत्पर हैं। यह भजन भक्ति की उस अवस्था का वर्णन करता है, जहाँ समर्पण का प्रत्येक भाव हृदय से सहज रूप से प्रवाहित होता है, और भक्त अपने आराध्य के प्रेम में स्वयं को विसर्जित कर देता है। यही वह दिव्यता है, जिसमें आत्मा और परमात्मा का मिलन होता है, और जिसमें मनुष्य सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर श्रीकृष्णजी की अनुकम्पा में लीन हो जाता है।
संसार के व्यवहार में विपत्ति के समय कोई सहारा नहीं देता, परंतु सुख के समय सब समीप आ जाते हैं। यही भक्ति का सत्य है—जहाँ प्रेम बाहरी नहीं, बल्कि रोम-रोम में व्याप्त अनुभूति बन जाता है। ईश्वर के प्रति समर्पण वह प्रक्रिया है, जिसमें साधक प्रत्येक सांस में अपने आराध्य की उपस्थिति अनुभव करता है।
मीराबाई का समर्पण इस स्तर तक पहुँच जाता है कि वे अपना सम्पूर्ण अस्तित्व श्रीकृष्णजी को अर्पित करने को तत्पर हैं। यह भजन भक्ति की उस अवस्था का वर्णन करता है, जहाँ समर्पण का प्रत्येक भाव हृदय से सहज रूप से प्रवाहित होता है, और भक्त अपने आराध्य के प्रेम में स्वयं को विसर्जित कर देता है। यही वह दिव्यता है, जिसमें आत्मा और परमात्मा का मिलन होता है, और जिसमें मनुष्य सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर श्रीकृष्णजी की अनुकम्पा में लीन हो जाता है।