लागी सोही जाणै कठण लगन दी पीर लिरिक्स

लागी सोही जाणै कठण लगन दी पीर लिरिक्स

लागी सोही जाणै, कठण लगन दी पीर।।टेक।।
विपत पड्याँ कोई निकटि न आवै, सुख में, सब को सीर।
बाहरि घाव कछू नहिं दीसै, रोम रोम दी पीर।
जन मीराँ गिरधर के उपर, सदकै करूँ सरीर।।

मीरा बाई के इस पद में, वे ईश्वर के प्रति गहन प्रेम और भक्ति की कठिनाईयों का वर्णन करती हैं। वे कहती हैं कि इस प्रेम की पीड़ा वही समझ सकता है, जिसने इसे अनुभव किया हो। संकट के समय कोई साथ नहीं देता, जबकि सुख में सभी सहभागी बनते हैं। यह प्रेम बाहरी घाव जैसा नहीं है, जो दिखाई दे; यह तो रोम-रोम में व्याप्त पीड़ा है। मीरा स्वयं को गिरधर (कृष्ण) के प्रति समर्पित बताते हुए कहती हैं कि वे अपने शरीर को भी उनके लिए न्यौछावर करने को तैयार हैं।

(कठण=कठिन, लगण दी=प्रेम की, पीर=पीड़ा, सीर=हिस्सा दीसै=दिखाई देता है, सदकै=न्यौछावर)
 
 
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