हरि मेरे जीवन प्राण अधार
हरि मेरे जीवन प्राण अधार
हरि मेरे जीवन प्राण अधार।
और आसरो नांही तुम बिन, तीनू लोक मंझार।।
हरि मेरे जीवन प्राण अधार।।
आपबिना मोहि कछु न सुहावै निरख्यौ सब संसार।
हरि मेरे जीवन प्राण अधार।।
मीरा कहै मैं दासि रावरी, दीज्यो मती बिसार।।
हरि मेरे जीवन प्राण अधार।।
हरि म्रा जीवन प्राण अधार ।।टेक।।
और आसिरो णा म्हारा थें बिण, तीनूं लोक मंझार।
थें बिण म्हाणे जग ण सुहावाँ, निरख्याँ पद संसार।
मीराँ रे प्रभु दासी रावली, लीज्यो णेक णिहार।।
और आसरो नांही तुम बिन, तीनू लोक मंझार।।
हरि मेरे जीवन प्राण अधार।।
आपबिना मोहि कछु न सुहावै निरख्यौ सब संसार।
हरि मेरे जीवन प्राण अधार।।
मीरा कहै मैं दासि रावरी, दीज्यो मती बिसार।।
हरि मेरे जीवन प्राण अधार।।
हरि म्रा जीवन प्राण अधार ।।टेक।।
और आसिरो णा म्हारा थें बिण, तीनूं लोक मंझार।
थें बिण म्हाणे जग ण सुहावाँ, निरख्याँ पद संसार।
मीराँ रे प्रभु दासी रावली, लीज्यो णेक णिहार।।
(हरि=कृष्ण, जीवण=जीवन, अधार=आधार,सहारा, आसिरो=ठिकाना, थें बिण=तुम्हारे बिना, निरख्याँ= निरख लिया,देख लिया, णेक णिहार=तनिक देख लो, रावली=आपकी,तुम्हारी)
मीराबाई कहती हैं कि हरि (भगवान श्री कृष्ण) उनके जीवन और प्राणों का आधार हैं, और उनके बिना तीनों लोकों में उन्हें कोई आश्रय नहीं मिलता। वह कहती हैं कि श्री कृष्ण के बिना उन्हें संसार की कोई भी वस्तु सुहाती नहीं है, क्योंकि उन्होंने सम्पूर्ण संसार को देख लिया है और उसमें उन्हें कुछ भी आकर्षक नहीं लगता। अंत में, मीराबाई स्वयं को भगवान की दासी मानती हैं और उनसे प्रार्थना करती हैं कि उन्हें कभी भी अपने स्मरण से वंचित न करें।
हरि मेरे जीवन प्राण आधार || श्री मीरा बाई जी का पद || श्री राजेंद्र दास जी महाराज भजन #bhajan
इस सुंदर भजन में भक्ति की पराकाष्ठा और आत्मसमर्पण का भाव उदगारित होता है। यह अनुभूति प्रेम और श्रद्धा की गहराइयों को छूती है, जहां जीव अपने संपूर्ण अस्तित्व को प्रभु श्रीकृष्णजी के चरणों में अर्पित कर देता है। भक्त की चेतना संसार की अस्थिरताओं को पहचानकर, केवल परमात्मा को ही अपना आधार मानने लगती है।
जब व्यक्ति समस्त जगत का निरीक्षण करता है, तो उसे बोध होता है कि सांसारिक सुख क्षणभंगुर हैं। इस भाव में आत्मा की पुकार है, जहां वह अपने इष्ट से आग्रह करती है कि उन्हें कभी अपने स्मरण से वंचित न करें। भक्ति की सच्चाई वहीं प्रकट होती है, जब मनुष्य अपने प्रभु को ही अपना सर्वस्व मानकर, संसार की माया से ऊपर उठ जाता है।
श्रीकृष्णजी की भक्ति केवल एक साधन नहीं, बल्कि आत्मा की मूल पहचान बन जाती है। यह मन और चेतना की उस गहन स्थिति को प्रकट करता है, जहां केवल परम प्रेम और प्रभु का आश्रय ही सार्थक प्रतीत होता है। इस अनुभूति में न केवल ईश्वरीय कृपा की याचना है, बल्कि आत्मा की परम शांति की खोज भी दृष्टिगोचर होती है। यही वह अवस्था है, जहां भक्त अपने इष्ट के चरणों में पूर्ण रूप से विलीन होकर, केवल उनकी कृपा से जीवन को सार्थक करता है।
जब व्यक्ति समस्त जगत का निरीक्षण करता है, तो उसे बोध होता है कि सांसारिक सुख क्षणभंगुर हैं। इस भाव में आत्मा की पुकार है, जहां वह अपने इष्ट से आग्रह करती है कि उन्हें कभी अपने स्मरण से वंचित न करें। भक्ति की सच्चाई वहीं प्रकट होती है, जब मनुष्य अपने प्रभु को ही अपना सर्वस्व मानकर, संसार की माया से ऊपर उठ जाता है।
श्रीकृष्णजी की भक्ति केवल एक साधन नहीं, बल्कि आत्मा की मूल पहचान बन जाती है। यह मन और चेतना की उस गहन स्थिति को प्रकट करता है, जहां केवल परम प्रेम और प्रभु का आश्रय ही सार्थक प्रतीत होता है। इस अनुभूति में न केवल ईश्वरीय कृपा की याचना है, बल्कि आत्मा की परम शांति की खोज भी दृष्टिगोचर होती है। यही वह अवस्था है, जहां भक्त अपने इष्ट के चरणों में पूर्ण रूप से विलीन होकर, केवल उनकी कृपा से जीवन को सार्थक करता है।