हातकी बिडिया लेव मोरे बालक

हातकी बिडिया लेव मोरे बालक

हातकी बिडिया लेव मोरे बालक। मोरे बालम साजनवा॥टेक॥
कत्था चूना लवंग सुपारी बिडी बनाऊं गहिरी।
केशरका तो रंग खुला है मारो भर पिचकारी॥१॥
पक्के पानके बिडे बनाऊं लेव मोरे बालमजी।
हांस हांसकर बाता बोलो पडदा खोलोजी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर बोलत है प्यारी।
अंतर बालक यारो दासी हो तेरी॥३॥
 
यह पद मीराबाई की भगवान श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति को दर्शाता है। वह अपने प्रियतम श्रीकृष्ण से आग्रह करती हैं कि वे उनके द्वारा बनाई गई पान की बीड़ियाँ स्वीकार करें। वह कहती हैं कि उन्होंने कत्था, चूना, लवंग, सुपारी मिलाकर गहरी बीड़ी बनाई है, और केसर का रंग खुला है, जिससे वह पिचकारी भरकर रंग खेलने की इच्छा व्यक्त करती हैं। वह अपने प्रियतम से मुस्कुराते हुए बातें करने और पर्दा खोलने का अनुरोध करती हैं। अंत में, मीराबाई कहती हैं कि उनके प्रभु गिरिधर नागर उन्हें 'प्यारी' कहकर बुलाते हैं, और वह उनकी दासी बनकर उनके साथ रहना चाहती हैं।


इस सुंदर भजन में आत्मिक प्रेम और भक्ति का अद्भुत संगम दृष्टिगोचर होता है। यह भाव न केवल भक्त के हृदय की कोमलता को दर्शाता है, बल्कि श्रीकृष्णजी के प्रति अनन्य समर्पण को भी व्यक्त करता है। जब प्रेम और भक्ति एक हो जाते हैं, तब भक्त के भाव केवल भगवान की सेवा में रच-बस जाते हैं।

यह उदगार सजीव चित्रण करता है कि कैसे भक्ति में सहजता और प्रेम का रस घुल जाता है। हर वस्तु, हर क्रिया, हर प्रतीक प्रेममय हो जाता है, चाहे वह पान की बीड़ी हो या रंगों की पिचकारी। यह संकेत करता है कि जब मन में ईश्वर की भक्ति संचारित होती है, तब जीवन के छोटे-छोटे कार्य भी ईश्वरीय प्रेम से ओत-प्रोत हो जाते हैं।

श्रीकृष्णजी की लीला और उनकी मधुरता को अनुभव कर, भक्त सहज रूप से उनके साथ एकाकार हो जाता है। यह एक ऐसा भाव है, जहां आत्मा अपने परम प्रिय से संवाद करती है, उसके समीप रहने की लालसा करती है। पूर्ण समर्पण से उत्पन्न यह भक्ति न केवल प्रेम में गहराई लाती है, बल्कि आत्मा को परम सुख की ओर भी अग्रसर करती है। इस भाव में एक गहन तन्मयता और दिव्यता प्रतिबिंबित होती है, जो भक्त के हृदय को पूर्ण रूप से श्रीकृष्णजी में समर्पित कर देती है।
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