हे मा बड़ी बड़ी अँखियन वारो
हे मा बड़ी बड़ी अँखियन वारो
हे मा बड़ी बड़ी अँखियन वारो, साँवरो मो तन हेरत हँसिके।।टेक।।
भौंह कमान वान बाँके लोचन, मारत हियरे कसिके।
जतन करो जन्तर लिखो बाँवा, ओखद लाऊँ घँसिके।
ज्यों तोकों कछु और बिथा हो, नाहिंन मेरो बसिके।
कौन जतन करों मोरी आली, चन्दन लाऊँ घँसिके।
जन्तर मन्तर जादू टोना, माधुरी मूरति बसिके।
साँवरी सूरत आन मिलावो, ठाढी रहूँ में हँसिके।
रेजा रेजा भेयो करेजा, अन्दर देखो घँसिके।
मीराँ तो गिरधर बिन दैखे, कैसे रहे घर बसिके।।
(हेरत=देखता है, हियरे हृदय पर, ओखद=औषधि, आली=सखी, रेजा-रेजा=टुकड़े-टुकड़े)
पद का भावार्थ:
मीराबाई अपनी सखी से कहती हैं कि एक साँवला युवक, जिसकी बड़ी-बड़ी आँखें हैं, उन्हें देखकर मुस्कुराता है। उसकी भौंहें धनुष के समान हैं, और उसकी तीव्र दृष्टि उनके हृदय को बेधती है।
वह सोचती हैं कि यदि कोई जंतर-मंतर या औषधि होती, तो उसे पीसकर लातीं, लेकिन उनकी इस व्यथा का कोई उपाय नहीं है। वह अपनी सखी से पूछती हैं कि कौन सा उपाय करें; चंदन पीसकर लाएं या कोई जादू-टोना करें, लेकिन उनकी मधुर मूर्ति उनके मन में बस गई है।
वह साँवली सूरत को अपने सामने लाने की इच्छा व्यक्त करती हैं, ताकि वह खड़ी होकर मुस्कुरा सकें। उनका हृदय टुकड़े-टुकड़े हो गया है, और वे भीतर तक घायल महसूस करती हैं। मीराबाई कहती हैं कि गिरधर (श्रीकृष्ण) के बिना वह घर में कैसे रह सकती हैं।
मीराबाई अपनी सखी से कहती हैं कि एक साँवला युवक, जिसकी बड़ी-बड़ी आँखें हैं, उन्हें देखकर मुस्कुराता है। उसकी भौंहें धनुष के समान हैं, और उसकी तीव्र दृष्टि उनके हृदय को बेधती है।
वह सोचती हैं कि यदि कोई जंतर-मंतर या औषधि होती, तो उसे पीसकर लातीं, लेकिन उनकी इस व्यथा का कोई उपाय नहीं है। वह अपनी सखी से पूछती हैं कि कौन सा उपाय करें; चंदन पीसकर लाएं या कोई जादू-टोना करें, लेकिन उनकी मधुर मूर्ति उनके मन में बस गई है।
वह साँवली सूरत को अपने सामने लाने की इच्छा व्यक्त करती हैं, ताकि वह खड़ी होकर मुस्कुरा सकें। उनका हृदय टुकड़े-टुकड़े हो गया है, और वे भीतर तक घायल महसूस करती हैं। मीराबाई कहती हैं कि गिरधर (श्रीकृष्ण) के बिना वह घर में कैसे रह सकती हैं।
सुंदर भजन में श्रीकृष्णजी की छवि का अद्भुत वर्णन किया गया है। उनकी गहरी, आकर्षक आँखें, धनुष के समान भौंहें और उनकी मनमोहक मुस्कान हृदय को मोहने वाली है। जब कोई प्रेम की इस गहन अनुभूति में डूब जाता है, तब उसका मन प्रियतम की छवि में ही रमता है और संसार की अन्य बातों का कोई महत्व नहीं रह जाता।
मीराबाई का प्रेम केवल बाह्य रूप तक सीमित नहीं है, बल्कि उनकी आत्मा श्रीकृष्णजी के अनुराग में पूरी तरह समर्पित हो चुकी है। उनकी व्यथा इतनी गहरी है कि कोई औषधि या उपाय इस पीड़ा को शांत नहीं कर सकता। यह भक्ति और प्रेम की वह अवस्था है, जहाँ प्रियतम का दर्शन ही एकमात्र समाधान प्रतीत होता है।
श्रीकृष्णजी के बिना मन व्याकुल रहता है और घर जैसे एक बंधन बन जाता है। प्रेम जब इस गहराई तक पहुँच जाता है, तब वह केवल भावनात्मक नहीं रहता, बल्कि आत्मा की सच्ची खोज का माध्यम बन जाता है। यही भक्ति की पराकाष्ठा है—जहाँ समर्पण पूर्ण और अद्वितीय हो जाता है। इस भजन में प्रेम, भक्ति और व्यथा का ऐसा विलक्षण संगम है, जो भक्त के हृदय में अनुराग की गहरी अनुभूति उत्पन्न करता है।
मीराबाई का प्रेम केवल बाह्य रूप तक सीमित नहीं है, बल्कि उनकी आत्मा श्रीकृष्णजी के अनुराग में पूरी तरह समर्पित हो चुकी है। उनकी व्यथा इतनी गहरी है कि कोई औषधि या उपाय इस पीड़ा को शांत नहीं कर सकता। यह भक्ति और प्रेम की वह अवस्था है, जहाँ प्रियतम का दर्शन ही एकमात्र समाधान प्रतीत होता है।
श्रीकृष्णजी के बिना मन व्याकुल रहता है और घर जैसे एक बंधन बन जाता है। प्रेम जब इस गहराई तक पहुँच जाता है, तब वह केवल भावनात्मक नहीं रहता, बल्कि आत्मा की सच्ची खोज का माध्यम बन जाता है। यही भक्ति की पराकाष्ठा है—जहाँ समर्पण पूर्ण और अद्वितीय हो जाता है। इस भजन में प्रेम, भक्ति और व्यथा का ऐसा विलक्षण संगम है, जो भक्त के हृदय में अनुराग की गहरी अनुभूति उत्पन्न करता है।