हे मेरो मनमोहना आयो नहीं सखी री

हे मेरो मनमोहना आयो नहीं सखी री

हे मेरो मनमोहना आयो नहीं सखी री।
कैं कहुँ काज किया संतन का।
कैं कहुँ गैल भुलावना।।
हे मेरो मनमोहना।

कहा करूँ कित जाऊँ मेरी सजनी।
लाग्यो है बिरह सतावना।।
हे मेरो मनमोहना।।

मीरा दासी दरसण प्यासी।
हरि-चरणां चित लावना।।
हे मेरो मनमोहना।।

हे मेरो मन मोहना। आयो नहीं सखीरी, हे मेरी ।।टेक।।
कै कहूँ काज किया संतन का, कै कहुं गैल भुलावना।
कहा करूँ कित जाऊं मोरी सजनी, लाग्यो है बिरह सतावना।
मीराँ दासी दरसण प्यासी, हरि चरणाँ चित लावणा।
(गैल=मार्ग,राह)
पद का भावार्थ:
मीराबाई अपनी सखी से कहती हैं कि उनका मनमोहक प्रियतम (भगवान श्रीकृष्ण) उनके पास नहीं आए। वह पूछती हैं कि संतों के साथ क्या किया जाए और किस मार्ग पर जाएं, क्योंकि उनका प्रियतम उनके पास नहीं है।

वह सोचती हैं कि अब कहां जाएं, क्योंकि उनके प्रियतम के बिना उनका मन व्याकुल है। मीराबाई कहती हैं कि वह भगवान श्रीकृष्ण की चरणों में अपने मन को लगाती हैं, क्योंकि वह उनके दर्शन की प्यास से व्याकुल हैं। यह भजन मीराबाई की भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अटूट भक्ति, उनके बिना जीवन की असहनीयता और उनके चरणों में मन को समर्पित करने की भावना को प्रकट करता है।



सुंदर भजन में मीराबाई की गहरी भावनाएँ और भक्ति की पराकाष्ठा उद्गारित होती है। जब मन ईश्वर के प्रेम में पूर्ण रूप से डूब जाता है, तब उनकी अनुपस्थिति भी एक गहरी पीड़ा बन जाती है। इस भजन में श्रीकृष्णजी के दर्शन की उत्कट अभिलाषा और उनके बिना जीवन की अधूरी अनुभूति प्रकट होती है।

मीराबाई की भक्ति सांसारिक सीमाओं से परे जाकर आत्मा की गहराइयों तक पहुँचती है। वे अपने प्रियतम श्रीकृष्णजी के दर्शन के लिए आतुर हैं, और उनके बिना मन की स्थिरता असंभव प्रतीत होती है। यह भाव दर्शाता है कि जब प्रेम सच्चा होता है, तब वह केवल बाह्य रूप तक सीमित नहीं रहता, बल्कि आत्मा की गहनतम अनुभूति बन जाता है।

भजन में जो कातरता और संपूर्ण समर्पण प्रकट होता है, वह भक्त की अटूट श्रद्धा को दर्शाता है। जब मन श्रीकृष्णजी की चरणों में लग जाता है, तब संसार की समस्त बाधाएँ तुच्छ हो जाती हैं। यही भक्ति का सार है—जहाँ प्रेम की गहराई में आत्मा अपनी पूर्णता को प्राप्त करती है। यही दिव्य प्रेम की उच्चतम अवस्था होती है, जहाँ समर्पण और प्रतीक्षा ही वास्तविक भक्ति का स्वरूप बन जाते हैं।
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