हे री सखी देख्योरी नंद किशोर
हे री सखी देख्योरी नंद किशोर
हे री सखी देख्योरी नंद किशोर॥टेक॥मोर मुकुट मकराकृत कुंडल। पीतांबर झलक हरोल॥१॥
ग्वाल बाल सब संग जुलीने। गोवर्धनकी और॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। हरि भये माखन चोर॥३॥
पद का भावार्थ:
मीराबाई अपनी सखी से कहती हैं कि उन्होंने नंद किशोर (भगवान श्रीकृष्ण) को देखा है। उनके सिर पर मोर मुकुट है, कानों में मकराकृत कुंडल हैं, और वे पीतांबर पहने हुए हैं। वे ग्वाल-बालों के साथ गोवर्धन की ओर जा रहे हैं। मीराबाई कहती हैं कि उनके प्रभु गिरिधर नागर हैं, और वे माखन चोर हैं। यह भजन मीराबाई की भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अटूट भक्ति, उनके रूप और लीलाओं के प्रति उनकी श्रद्धा को प्रकट करता है।
मीराबाई अपनी सखी से कहती हैं कि उन्होंने नंद किशोर (भगवान श्रीकृष्ण) को देखा है। उनके सिर पर मोर मुकुट है, कानों में मकराकृत कुंडल हैं, और वे पीतांबर पहने हुए हैं। वे ग्वाल-बालों के साथ गोवर्धन की ओर जा रहे हैं। मीराबाई कहती हैं कि उनके प्रभु गिरिधर नागर हैं, और वे माखन चोर हैं। यह भजन मीराबाई की भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अटूट भक्ति, उनके रूप और लीलाओं के प्रति उनकी श्रद्धा को प्रकट करता है।
सुंदर भजन में मीराबाई का गहन अनुराग और उनकी भक्ति की मधुर अभिव्यक्ति होती है। श्रीकृष्णजी की छवि उनके हृदय में ऐसे अंकित है कि उनके दर्शन मात्र से मन प्रेम में मग्न हो जाता है। मोर मुकुट, मकराकृत कुंडल, पीतांबर की आभा—ये सब श्रीकृष्णजी के दिव्य स्वरूप को प्रकट करते हैं, जो हर भक्त के मन में अनुराग और श्रद्धा का संचार करता है।
ग्वाल-बालों के संग खेलते श्रीकृष्णजी ब्रजमंडल में आनंद की रसधारा बहाते हैं। उनका सरल, चंचल और प्रेममय व्यवहार भक्तों को उनके दिव्य स्वरूप का साक्षात्कार कराता है। उनके साथ हो जाना ही जीवन का परम उद्देश्य बन जाता है। यही प्रेम का स्वरूप है—जहाँ भक्ति पूर्ण समर्पण में परिवर्तित हो जाती है।
मीराबाई का यह उद्गार उनकी निष्ठा और कृष्ण के प्रति उनकी प्रगाढ़ भक्ति को दर्शाता है। वे अपने प्रभु के प्रेम में इतनी लीन हैं कि उनका प्रत्येक विचार, प्रत्येक अनुभूति, केवल श्रीकृष्णजी के दर्शन में ही सार्थक प्रतीत होता है। जब प्रेम इस स्तर तक पहुँच जाता है, तब वह केवल भावना नहीं, बल्कि जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है। यही भजन में प्रकट होने वाला दिव्य संदेश है—जहाँ ईश्वर का सान्निध्य ही सच्चा आनंद है, और उनकी लीलाओं में रम जाना ही वास्तविक मुक्ति की राह है।
ग्वाल-बालों के संग खेलते श्रीकृष्णजी ब्रजमंडल में आनंद की रसधारा बहाते हैं। उनका सरल, चंचल और प्रेममय व्यवहार भक्तों को उनके दिव्य स्वरूप का साक्षात्कार कराता है। उनके साथ हो जाना ही जीवन का परम उद्देश्य बन जाता है। यही प्रेम का स्वरूप है—जहाँ भक्ति पूर्ण समर्पण में परिवर्तित हो जाती है।
मीराबाई का यह उद्गार उनकी निष्ठा और कृष्ण के प्रति उनकी प्रगाढ़ भक्ति को दर्शाता है। वे अपने प्रभु के प्रेम में इतनी लीन हैं कि उनका प्रत्येक विचार, प्रत्येक अनुभूति, केवल श्रीकृष्णजी के दर्शन में ही सार्थक प्रतीत होता है। जब प्रेम इस स्तर तक पहुँच जाता है, तब वह केवल भावना नहीं, बल्कि जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है। यही भजन में प्रकट होने वाला दिव्य संदेश है—जहाँ ईश्वर का सान्निध्य ही सच्चा आनंद है, और उनकी लीलाओं में रम जाना ही वास्तविक मुक्ति की राह है।