हेली म्हाँसूं हरि बिनी रह्यो न जाय भजन
हेली म्हाँसूं हरि बिनी रह्यो न जाय मीरा भजन
हेली म्हाँसूं हरि बिनी रह्यो न जाय।।टेक।।
सास लड़ै मेरी नन्द खिजावै, राणा रह्या रिसाय।
पहरो भी राख्यो चौकी बिठार्यो, ताला दियो जड़ाय।
पूर्व जनम की प्रीत पुराणी, सो क्यूं छोड़ी जाय।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, अवरू न आवै म्हाँरी दाय।।
(हेली=सखि, खिजावै=चिढाती है, रिसाय=क्रोधित होना, अवरू=दूसरा, दाय=पसन्द)
पद का भावार्थ:
हेरी मैं तो प्रेम दिवानी, मेरो दर्द न जाणै कोय।
मीराबाई अपनी सखी से कहती हैं कि वह प्रेम की दीवानी हैं, और उनका दर्द कोई नहीं समझ सकता। यह दर्द भगवान श्रीकृष्ण से मिलन की तीव्र इच्छा और उनके प्रति असीम प्रेम का परिणाम है।
घायल की गति घायल जाणै, जो कोई घायल होय।
यहां मीराबाई यह कह रही हैं कि घायल व्यक्ति ही अपने दर्द को समझ सकता है। इसी प्रकार, जो व्यक्ति प्रेम में डूबा होता है, वही प्रेम के वास्तविक अर्थ को समझ सकता है।
जौहरी की गति जौहरी जाणै, जो कोई जौहर होय।
जौहरी ही अपनी कला और मूल्य को समझता है। इसी तरह, जो व्यक्ति प्रेम में पूर्ण रूप से समर्पित होता है, वही प्रेम की वास्तविकता को जानता है।
सूली ऊपर सेज हमारी, मिलना किस विध होए।
मीराबाई अपने प्रेम को सूली पर चढ़ने के समान कठिन और कष्टकारी मानती हैं। वह पूछती हैं कि इस स्थिति में भगवान श्रीकृष्ण से मिलन कैसे संभव है।
गगन मंडल पर सेज पिया की, किस विध मिलणा होए।
यहां मीराबाई भगवान श्रीकृष्ण के साथ मिलन की कल्पना करती हैं, जो आकाश में स्थित है। वह सोचती हैं कि इस दिव्य मिलन को कैसे प्राप्त किया जा सकता है।
दर्द की मारी बन-बन डोलूँ, वैद मिल्यो नहीं कोय।
मीराबाई अपने प्रेम के दर्द में वन-वन भटकती हैं, लेकिन उन्हें कोई वैद्य (चिकित्सक) नहीं मिलता जो उनके दर्द को समझ सके।
मीरा की प्रभु पीर मिटेगी, जब वैद सांवरिया होए।
मीराबाई कहती हैं कि उनका दर्द तभी मिटेगा जब भगवान श्रीकृष्ण (सांवरिया) स्वयं उनके पास आएंगे और उनका मिलन होगा।